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This Article is From Jul 21, 2016

अब जाति विवाद में भी मुद्दा बनी गाय....

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 21, 2016 20:35 pm IST
    • Published On जुलाई 21, 2016 19:38 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 21, 2016 20:35 pm IST
गाय को अब धर्म विवाद से आगे बढ़ाकर जाति विवाद में भी डाल दिया गया है। गुजरात का उना कांड इसका सबूत है। सवर्ण और दलितों के बीच सांप्रदायिक भेदभाव बढ़वाने की कोशिशें क्या क्या नई परेशानियां पैदा करेंगी, यह जल्द ही सामने आने लगेगा। फिलहाल गुजरात में दलितों पर अत्याचार की नई और सनसनीखेज वारदात देश को झकझोर रही है। इस वारदात पर दलितों की प्रतिक्रिया से अंदाजा लग रहा है कि गाय की रक्षा के मसले पर बहस का नया दौर शुरू होने वाला है। अगर यह दौर लंबा चला तो इसके अगल-बगल धर्म, जाति, राजनीति, कानून और सांप्रदायिकता के नए रूप भी सामने आने लगेंगे।

धार्मिक आस्था बनाम राजनीति
गाय को लेकर अभी तक हिंदू, मुसलमान विवाद ही चलाया जा रहा था। पहली बार है कि इस बात को आगे बढ़ाकर इसके दायरे में दलितों को भी ला दिया गया। इसका कारण तो तसल्ली से बैठकर सोच-विचार करने से निकलेगा, लेकिन एकनजर में अंदाजा लगाएं तो बात राजनीतिक पहलू पर जाकर अटकती है। यह अलग बात है कि कहने, सुनने में धार्मिक भावनाओं का तर्क ही ज्यादा इस्तेमाल होता है। इस बात को हैरानी से देखने की अब जरूरत ही नहीं कि धार्मिक भावनाओं के सहारे राजनीति आसान हो चली है। खासतौर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता हासिल करने के लिए उपकरण के तौर पर धार्मिक भावनाओं की काट तो कोई भी ढूंढकर नहीं ला पा रहा है।

उना कांड का मकसद कहीं यह तो नहीं
दलितों पर अत्याचार की घटना का जिक्र ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भी विस्तार से किया जा सकता है। लेकिन हाल ही में गुजरात के उना में दलितों पर बेरहमी के वीडियो तो लोगों का दिल दहला रहे हैं। बड़ी हैरानी की बात है कि ये फिल्में कथित तौर पर खुद वारदात करने वालों ने बनवाईं। यानी मसला ये काम लुकछिपकर करने का नहीं है बल्कि खुलकर और पूरे प्रचार प्रबंध के साथ करने का है। इसका विश्लेषण राजनीतिक जानकार इस तरह कर रहे हैं कि यह सवर्णों के ध्रुवीकरण के मकसद से है यानी इसके पीछे की राजनीति को समझाने के लिए कोई बारीक विज्ञान लगाने की ज्यादा जरूरत नहीं होनी चाहिए।

मायावती को अपशब्‍द कहने का मामला
चुनावी लोकतंत्र में यानी बहुमतवादी लोकतंत्र में समाज को खंडखंड करके कुछ खंडों को लुभाना क्या इतना आसान हो गया है? मायावती अगर दलितों की एक नेता समझी जाने लगी हैं तो सवर्णो में उनके खिलाफ घृणा का भाव बढ़ाना और फिर उन्हें लुभाना किस तरह का काम कहा जा सकता है। इस चक्कर में उप्र में भाजपा उपाध्यक्ष ने मायावती के बारे में इतनी आपत्तिजनक बात कह दी कि उप्र में दलित एकजुट होकर विरोध पर उतर आए। भले ही इन उपाध्यक्ष को छह वर्ष के लिए पार्टी से निष्‍कासित किया जा चुका हो लेकिन इस मामले में मौजूदा राजनीति के बदलते मिजाज पर सोचविचार अभी भी शुरू नहीं हुआ है।

राहुल गांधी का उना दौरा
मौजूदा राजनीति जैसी भी होने लगी हो लेकिन इस बीच समाज के भयानक और वीभत्स बनते जाने पर गंभीरता से सोचने वाला कोई तो होगा, जो चिंता जताएगा। वैसे यह विद्वानों का काम है। वे ही आगा-पीछा सोच पाते हैं। लेकिन जब देश में सोचविचार का माहौल लगभग खत्म कर दिया गया हो और विद्वानों के खिलाफ मुहिम चलवाकर उनकी विश्वसनीयता को 'जब्त' कराके उन्हें चुप करवा दिया गया हो तो अब कौन बताने आएगा कि समाज के विभिन्न वर्गों को एक दूसरे के मुखालिफ खड़ा करवा देने के बाद देश की क्या हालत हो जाने वाली है। बहरहाल गुजरात में दलितों पर बेरहमी के बाद उन्हें अपना मनोबल बचाए रखने के लिए मदद की दरकार जरूर पड़ रही होगी। ऐसे में राहुल गांधी के उनके पास बैठ आने से उन पीड़ित दलितों के मनोबल पर अच्छा असर जरूर पड़ा होगा।

उना और दयाशंकर कांड की चौतरफा निंदा के मायने
लखनऊ में दलितों के प्रदर्शन, संसद में हर नेता के मुंह से दोनों घटनाओं की निंदा, यहां तक कि दयाशंकर की पार्टी के बड़े नेताओं द्वारा भी एकदम 'सिकुड़ कर' अफसोस जताने के बाद यह निस्‍संकोच कहा जा सकता है कि इस समय हर कोई दलितों के पक्ष में खड़ा है। भले ही यह मजबूरी में हो या जरूरत के कारण। कुछ भी हो, यह सबसे माफिक समय है कि राजनीति के सामाजिक पहलू पर गंभीरता से सोच विचार शुरू कर दें...।

(सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं)

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