यह लगाया जाता है आरोप
आरोप लगाने वालों का मानना है कि पत्रकारिता का काम भाषा को संवर्द्धित करना भी है. आरोप के साथ एक परिकल्पना यह भी जोड़ी जाती है कि अपनी पहुंच के कारण हिंदी पत्रकारिता ही हिंदी की सबसे बड़ी प्रशिक्षक है. उन्हें लगता है कि अनजाने में हिंदी पत्रकारिता से ही लोग हिंदी सीखते हैं. इन आरोपों पर बहस चलाएं तो यह भी देखना पड़ेगा कि औपचारिक रूप से पत्रकारिता का काम क्या है.
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यह अब तक वाद-विवाद का विषय है. फिर भी पत्रकारिता अब अध्ययन-अध्यापन का एक विषय बन गई है. सो पत्रकारिता के उद्देश्यों की एक छोटी सी सूची बन गई है जिसे पत्रकारिता की कक्षा में पढ़ाया जाता है. इस सूची में तीन काम हैं. सूचना देना, उन्हें शिक्षित या जागरूक बनाना और उनका मनोरंजन करना. इन तीनों काम में यह तो कहीं नहीं है कि हिंदी पत्रकारिता का काम हिंदी की सार संभाल या उसका पोषण करना है. इस तरह से आज के दिन पत्रकारिता मांग कर सकती है कि उसे हिंदी की चिंता करने वालों के लगाए आरोपों से मुक्त किया जाए. वैसे आज के विवाद प्रिय समाज में पूरी संभावना है कि भाषा को लेकर हिंदी पत्रकारिता को कटघरे में खड़ा करने वाले विद्वान नए आरोपों को लेकर सामने आ जाएं. लेकिन उसके जवाब तब ही तलाशे जाएंगे.
पत्रकारिता और साहित्य की समानताओं और असमानताओं का जिक्र भी इसी मौके पर कर लिया जाना चाहिए. बेशक दोनों ही सच्चाई के वर्णन के लिए होते हैं. लेकिन साहित्यकार काल्पनिक पात्रों को गढ़कर सच्चाई का वर्णन करता है. इसलिए उसका काम ज्यादा बारीकी का है, ज्यादा मौलिक है. इसीलिए वह रचनाकार कहलाता है. वह बड़ा है. खासतौर पर उपन्यासकार वाकई बड़ा है जो झूठे पात्र और झूठे कथानक के सहारे सच्चाई के वर्णन का महान कार्य करता है. लेकिन पत्रकार अपने समय के सचमुच के खलनायकों की प्रवृत्ति का वर्णन करता है. अपने ही सहनागरिकों के बीच रहते हुए उन पर टिप्पणी का जोखिम भी कम बड़ा काम नहीं है. पत्रकार अपने समय के नायकों की प्रशंसा के मौके भी तलाशता है. दोनों के ध्येय या लक्ष्य समान हैं. यानी साहित्य और पत्रकारिता अपने-अपने तरीके से सच को अभिव्यक्त करते हैं. लेकिन एक भाषा के रूप में दोनों के उपकरण समान होते हुए भी उसे बरतने में भेद होना स्वाभाविक है.
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पत्रकारिता का ध्यान संप्रेषण पर ज्या़दा
भाषा के सौंदर्य और शुद्धता की बजाए पत्रकारिता का घ्यान संप्रेषण पर ज्यादा है. उसका ग्राहक समग्र समाज है. सो उसे वैसी बोलचाल की भाषा चाहिए जो समाज के हर तबके से सरलता से बात कर सके जबकि साहित्यकार का ग्राहक समाज का साहित्यप्रेमी तबका है. जो बेशक उच्च बौद्धिक स्तर का है जिसे अंग्रेजी में 'क्लास' कहते हैं. उसके लिए भाषा की शुद्धता और सौंदर्य भी चाहिए. इसीलिए रस, छंद, अलंकार, व्याकरण की जितनी जरूरत साहित्य को चाहिए उतनी पत्रकार को नहीं. अब ये अलग बात है कि पत्रकारिता का एक रूप निबंध लेखन का भी बनने लगे. राजनीतिक पत्रकारिता में उसे प्रतिद्वंद्वी की खिल्ली उड़ाने के लिए हास्य या किसी की छवि के नाश के लिए वीभत्स, रौद्र, घृणा रस का सहारा लेना पड़े. उन परिस्थितियों में पत्रकारिता को हम साहित्य की श्रेणी में जरूर रख सकते हैं. लेकिन यह भी एक तथ्य है कि पत्रकारिता के प्रशिक्षण में साहित्य के इन उपकरणों के इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण होता नहीं है लिहाजा वैसी पत्रकारिता की पोल खुलने का अंदेशा बना ही रहता है. और फिर पहली बात तो ये कि जब साहित्य सृजन का काम या सीधे सीधे राजनीति करने का काम पत्रकारिता का काम है ही नहीं तो उसे वह काम करना ही क्यों चाहिए.
हिंदी और राजनीति
भाषा को लेकर राजनीति पर नज़र रखने वाले तो यह भी कहते हैं कि जब तक भाषा के जरिए राजनीतिक ज़़मीन पर कब्जा करने की गुंजाइश रही तब तक ही हिंदी आंदोलन चले. बाद में राजनीतिक विस्तार के लिए भाषा का मुद्दा बनाए रखने की जरूरत खत्म हो गई. लेकिन तब तक दूसरी भारतीय भाषा भाषियों में अपनी अपनी भाषाओं के प्रति अस्मिता बोध इतना भर दिया गया कि वह रोग बन गया.उस बोध को अब उनके मन से बाहर निकालने में दिक्कत आ रही है. जिस तरह धर्म और जाति को लेकर सांप्रदायिकता का इस्तेमाल होता है उसी तरह निकट इतिहास में हिंदी को लेकर भी खूब हुआ. हिंदी के ज़रिए देश को एक सूत्र में बांधने के काम में आ रही अड़चन की बात करते समय क्या हमें उस इतिहास को नहीं देखना चाहिए.
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क्या हिंदी भी दूसरों की तरह मिश्रित भाषा नहीं
कोई भाषा यह दावा नहीं कर सकती कि उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है. क्योंकि भाषा संप्रेषण का एक माध्यम है. संप्रेषण का मतलब है कि जिससे बात की जाए उसकी समझ में आए. इसीलिए दो अलग अलग भाषाओं के बीच संप्रेषण की पहली शर्त है कि दोनों के बीच की एक और भाषा का निर्माण हो. कालक्रम में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश के रूप बदलती हुई आज हिंदी तक आई अपनी भाषा कोई अपवाद नहीं है. आज बोलचाल की ताकतवर हिंदी में उर्दू अंग्रेजी और भारतीय बोलियों के शब्दों के इस्तेमाल ने हिंदी को नया रूप दे दिया है. हिंदी के वर्तमान रूप की की निंदा आलोचना करना चाहें तो अपनी अस्मिता के खतरे के रूप में कर सकते हैं. और चाहें तो संप्रेषण की सुविधा के रूप में उसकी प्रशसा भी कर सकते हैं. ज्य़ादा सही क्या है? इस पर सोचविचार करने के लिए हिंदी दिवस से बेहतर और कौन सा मौका हो सकता है.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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