सुप्रीम कोर्ट ने क्या-क्या स्पष्ट किया
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को अच्छी तरह से समझा दिया है कि कानून व्यवस्था बिगड़ने का बहाना लेकर वे कला या साहित्य की वाजिब गतिविधियों को नहीं रोक सकतीं. फिल्म पर पाबंदी लगाने के तरह-तरह के तर्कों में से एक तर्क यह दिया जा रहा था कि अगर दंगा भड़केगा तो यह फिल्म जिम्मेदार होगी. इसी तर्क को खारिज करते हुए अदालत ने कहा है कि कानून व्यवस्था राज्य सरकार का काम है, उसे वह करना चाहिए. किसी फिल्म के रिलीज़ को मंजूरी देना या न देना सेंसर बोर्ड का काम है और प्राधिकृत बोर्ड से इस फिल्म को देख समझने के बाद मंजूरी मिल चुकी है.
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कुछ लोग अभी भी फिल्म का विरोध कर रहे हैं. विरोध करने वालों को अंदेशा है कि फिल्म में उनकी आनबान को नुकसान पहुंचाने वाली सामग्री हो सकती है. वे चाहते हैं कि रिलीज़ के पहले उनसे इजाजत ली जाए जबकि फिल्म दिखाने की इजाजत देने या नहीं देने का फैसला करने के लिए देश ने पहले से एक संस्था बना रखी है जिसे सीबीएफसी यानी सेंसर बोर्ड कहा जाता है. इस बोर्ड ने पिछले तीन महीनों की भारी कशमकश और देश के जानकारों की एक कमेटी से सलाह मशविरे के बाद इस फिल्म में कुछ रद्दोबदल करवाते हुए इस फिल्म को मंजूरी दे दी है. जनता के लिए या जनता के किसी तबके के लिए इस फिल्म में कुछ गलत है या नहीं, इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत बड़ी बारीकी से देखा समझा जा चुका है यानी कोई राज्य सरकार फिल्म पर पाबंदी लगा ही नहीं सकती थी. यही बात सुप्रीम कोर्ट ने कही है. अब राज्य सरकारों के सामने यह मुश्किल खड़ी हो गई है कि एक तबके के जो लोग सेंसर बोर्ड के फैसले से भी सहमत नहीं है और अदालती फैसले से भी राजी नहीं है, वे कहीं गुस्सा न जताने लगें. इसी अंदेशे के आधार पर कुछ राज्य सरकारें चाह रही थीं कि फिल्म पर पाबंदी लगे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के बाद स्थिति स्पष्ट कर दी है और इस पाबंदी को ग़लत करार दे दिया है.
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अदालत की कही बातों से तो यही लगता है. अदालत ने कह दिया है कि जायज़ और वाजिब अभिव्यक्ति के अधिकार को नहीं रोका जा सकता. रही बात कानून व्यवस्था बिगड़ने के अंदेशे की, तो अदालत ने राज्य सरकारों से यह भी कह दिया है कि यह आपकी जिम्मेदारी पहले से तय है. गौर से देखें तो ऐसा लगता है कि राज्य सरकारें जो और फायदे देख रही थीं उसमें एक यह भी है कि वे कानून व्यवस्था की अपनी जिम्मेदारी से बचने की जुगत में भी लगी थीं. लेकिन इस संभावना को अदालत ने खत्म कर दिया. हालांकि सरकारों की इस कोशिश में यह उजागर हो गया है कि वे कानून व्यवस्था बिगड़ने के अंदेशे को दूर करने और उससे निपटने में असमर्थ या कमज़ोर हैं.
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संबधित राज्य सरकारें शुरू से ही 'पद्मावत' फिल्म के विरोधी तबके के पक्ष में खड़ी नज़र दिखती रही हैं. मसलन फिल्म को देखे बगैर ही चारों प्रदेश सरकारों ने अपने अपने राज्यों में फिल्म रिलीज़ पर पाबंदी लगा दी थी. चारों प्रदेश में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के नेता उसी हिसाब के बयान भी देते चले आ रहे थे, लेकिन अब उनके लिए मामला फंसा दिख रहा है. उनके सामने यह झंझट खडी हो गई है कि अदालत से सही गलत तय होने के बाद अब वे क्या रुख लें. भारत सरकार से अधिकृत संस्था सेंसर बोर्ड और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद राज्य सरकारों के पास अब कोई गुंजाइश नहीं बची कि फिल्म के विरोध पर अड़े रहें क्योंकि ये सरकारें आखिरकार लोकतांत्रिक व्यवस्था में बनी सरकारें है और कानून का पालन करना उनकी मजबूरी है.
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क्या विरोध यहीं खत्म समझें
सब कुछ के बावजूद लोगों का एक तबका फिल्म के विरोध में कुछ न कुछ करने में लगा रह सकता है. उनका यही विरोध राज्य सरकारों को मुश्किल में डालेगा. उस असंतोष से ये सरकारें सख्ती से निपेटेंगी? या नरमी से निपटेंगी? या नहीं निपटेंगी? इसकी अटकलें अलग-अलग तरह के लोग अलग-अलग तरह से लगा सकते हैं. वैसे एक सूरत यह भी बन सकती है कि ज्यादा कुछ हो ही न क्योंकि विरोध करने वालों को सबसे बड़ा आसरा राज्य सरकारों के रुख का ही था जिसे बदलने के लिए राज्य सरकारों को कानून ने मज़बूर कर दिया है. इस तरह से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अब तक फिल्म के विरोधियों के पक्ष में खड़ी ये राज्य सरकारें खुद को बड़ी मुश्किल में पा रही होंगी? हालात से निपटने के लिए मुस्तैद रहना या दिखना उनकी मजबूरी हो गई है क्योंकि किसी अप्रिय स्थिति से निपटने में अगर कोताही बरती गई तो अब सारी जवाबदेही इन्ही की होगी. ऐसे हालात में राज्य सरकारों की एक और बड़ी मुश्किल है क्योंकि ये सरकारें फिल्म पर पाबंदी लगाने की जल्दबाजी में हालात खराब होने के अंदेशे पहले ही इतनी बार जता चुकी हैं कि बाद में यह बहाना भी नहीं बना सकतीं कि ऐसी किसी स्थिति का अंदाजा उन्हें नहीं था.
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सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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