बाबा साहेब का और ज्यादा प्रासंगिक होते जाना...

बाबा साहेब का और ज्यादा प्रासंगिक होते जाना...

बाबा साहेब आंबेडकर क्या अचानक ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं? अगर सिर्फ इसी साल के लिहाज से देखें तो 125वीं जयंती के विशेष अवसर पर उनका जिक्र स्वाभाविक है। लेकिन बात इतनी सी ही नहीं है। देश में राजनीतिक और सामाजिक हलचल भी इसका एक कारण है। एक-दो साल से आरक्षण का मुद्दा किसी न किसी बहाने उठा दिया जाता है। हमें देखना पड़ेगा कि माहौल में अचानक इस बदलाव के कारण क्या हैं? इसके साथ ही एक और बदलाव आया। अभी तक सिर्फ सरकारी नौकरियों में आरक्षण ही मुददा बनता रहता था। अब हमें निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण की मांग सुनाई दे रही है। बाबा साहेब की जयंती पर इस मामले पर अगर सोच-विचार होता है तो इससे अच्छी बात और क्या होगी।

आरक्षण का उपाय था क्या
आजादी मिलते ही देश में सामाजिक न्याय की बात सबसे पहले सोची गई थी। सामाजिक भेदभाव के सदियों से चले आ रहे दौर को गौर से देखा गया था। इस मामले में सर्वमान्य महात्मा गांधी के विचारों और कृतित्व को सबने देखा और समझा था। अमानवीयता की हद तक दलित और वंचित रहे वर्ग को मुआवजा देने और आगे से मानवतावादी व्यवस्था को बनाने के लिए तब आरक्षण की व्यवस्था ही सूझी थी। और सर्वसम्मति से वैधानिक व्यवस्था बनाई गई थी। भविष्य की परिस्थितयों के लिए व्यवस्था में लचीलेपन का भी ख्याल रखा गया था।

लोकतंत्र के अब तक के सफर में हुआ कितना?
आजादी के बाद से अब तक हम समानता आधारित व्यवस्था बनाने में लगे हैं। सबसे पहले हमने यह सोचा कि पहला काम देश को आत्मनिर्भर बनाने का हो। यह काम हमने कर लिया। यह काम करते-करते पचास साल गुजर गए। सार्वजनिक क्षेत्र यानी सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र दोनों को साथ-साथ चलाने वाली व्यवस्था हमने स्वीकारी  थी। इसे इसलिए स्वीकारा था ताकि सबके कल्याण वाली व्यवस्था का काम सार्वजनिक क्षेत्र से होता रहे और देश की आर्थिक तरक्की का काम निजी क्षेत्र के जरिये हो जाएगा। दुनिया में यह कौन नहीं मानता कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखकर या चलाए रखकर बड़े -बड़े और दिग्गज देशों को हमने हैरत में डाल दिया। लेकिन एक कमी फिर भी रह गई। वह यह कि सामाजिक और आर्थिक समानता का लक्ष्य पूरे तौर पर हासिल नहीं हो पाया। यही वह बात है जो बाबा साहेब की जयंती पर करने की है।

आर्थिक समानता और सामाजिक समानता का भेद
गौर से नजर डालेंगे तो इस मामले में एक दुविधा खड़ी करने की कोशिश होती दिखती है। जो लोग समझते हैं कि आरक्षण का उपाय सिर्फ आर्थिक समानता के लक्ष्य के लिए था, वे यही समझाएंगे कि आरक्षण के कारण आज समाज के विभिन्न वर्गों में असंतुलन की स्थिति बन रही है। अब चूंकि इतने बड़े देश में विपन्नों और संपन्नों का अनुपात देखने का तो ठीक से प्रबंध है नहीं। है भी तो सामाजिक वर्गों के लिहाज से तो बिल्कुल भी नहीं। जातिगत आधार पर जनगणना का मामला भी अधर में ही है। सो कैसे पता चलेगा कि जातियों के आधार पर विपन्नता या संपन्नता की मौजूदा स्थिति है क्या?

फिर भी गरीबी रेखा खींचकर जब उसके नीचे की जनसंख्या देखते हैं तो देश का दो तिहाई तबका विपन्नता की श्रेणी में ही दिखाई देता है। और इसमें हर सामाजिक वर्ग वंचित ही नजर आता है। यह स्थिति क्या इस बात पर सोचने की तरफ इशारा नहीं कर रही है कि देश में हर व्यक्ति के लिए नौकरी या काम-धंधा देने का माहौल बनाने की बात होनी चाहिए। इसीलिए यह बात उठती है कि आरक्षण को लेकर बहस उठाना उस हालत से मुंह फेरना है जिसमें सब के लिए नौकरी या काम-धंधा है ही नहीं।  सबके लिए पढ़ाई-लिखाई तक का इंतजाम नहीं है।

बेरोजगारी से निपटने में क्यों नहीं लग जाते
किसी को अगर वाकई आरक्षण गलत लगता हो तो क्या उसे आरक्षण के मूल कारणों को नहीं देखना पड़ेगा। चाहे नौकरियों में हो और चाहे शिक्षा के क्षेत्र में, आरक्षण का उपाय मजबूरी में सूझा था। तब मजबूरी यह थी कि हमारे पास सर्वजन हिताय के लिए संसाधन नहीं थे। अब आज अगर हम देश के स्तर पर साधन संपन्न होने का दावा कर रहे हैं तो क्या सबसे पहले सबके लिए रोजगार के काम पर नहीं लग जाना चाहिए। कारण जो भी हों, अगर नहीं लग सकते तो नौकरियों में या शिक्षा के क्षेत्र में हम चयन का आधार बनाएंगे क्या? कोई भी वाजिब आधार सोच लें, घूम-फिर कर हमें वहीं आना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि जो शुरू में सोचा गया था, वही अकेला विकल्प आज भी है।

यहीं तक नहीं, अब निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की बात
यह आवाज कुछ नई है। इस पर गौर करें तो औचित्य और अनौचित्य की बहस शुरू होगी ही। फिलहाल यहां एक सैद्धांतिक बात दर्ज कराई जा सकती है। वह ये कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का राज कल्याणकारी राज्य हो सकता है लेकिन मुनाफे के घोषित ध्येय वाले निजी क्षेत्र को हम किस तरह से कल्याणकारी राज्य वाली व्यवस्था में तब्दील कर पाएंगे। अब यह बड़े विद्वानों के सोचने की बात है कि ऐसा सोचना निजी क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण की शुरुआत तो नहीं कही जाने लगेगी। हां, पिछली सरकार ने जिस तरह कारपोरेट जगत पर सामाजिक जिम्मेदारी डालते हुए सीएसआर कानून बनाया था, वैसा कोई कोमल कानून बनाया जा सकता हो तो अलग बात है। अगर ऐसा कानून बनाने बैठेंगे तो हो नहीं सकता कि संविधान बनाए जाने के दिनों को याद न करना पड़े। उस समय भी हमें बाबा साहेब को याद करना ही पड़ेगा...।

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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