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This Article is From Oct 31, 2016

अपने देश को अब फॉरेंसिक धर्मशास्त्रियों की जरूरत

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 31, 2016 15:24 pm IST
    • Published On अक्टूबर 31, 2016 15:24 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 31, 2016 15:24 pm IST
धार्मिक कानून कायदों से उपजे विवादों ने आपराधिक न्याय प्रणाली के सामने नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं. धार्मिक रीति रिवाजों खासतौर पर तीन तलाक के मुद्दे पर जिस तरह की आक्रामक बहस होने लगी हैं उनसे यह चुनौती ज्यादा ही बड़ी हो गई है. अभी यह मसला वकीलों, स्वायत्तताप्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं, धर्माचार्यों और मीडिया के बीच है, लेकिन धार्मिक विवादों की तीव्रता को देखते हुए अपराधशास्त्रीय नजरिए से भी  सोच विचार शुरू होने में अब देर नहीं है. ऐसा हुआ तो अपराधशास्त्रियों खासतौर पर फॉरेंसिक साइंस यानी न्यायालिक विज्ञानियों को अब न्यायालिक धर्मशास्त्री भी विकसित करने पड़ेंगे. फॉरेंसिक साइंस में अभी तक फॉरेंसिक मेडीसिन, फॉरेंसिक साइकोलॉजी जैसी बीसियों शाखाएं तो हैं लेकिन धर्मशास्त्र के प्रशिक्षित पेशेवर यानी फॉरेंसिक धर्मशास्त्र के विशेषज्ञ नहीं है. इस काम के लिए जल्द ही फॉरेंसिक माइथोलॉजी यानी न्यायालिक धर्मशास्त्र की प्रशिक्षण सामग्री तैयार करने के काम पर भी लगना पड़ेगा.

है क्या फॉरेंसिक साइंस
विज्ञान की उस हर शाखा को, जिसका इस्तेमाल अदालती कमरे में जरूरी हो जाता है, उसे हम फॉरेंसिक साइंस के दायरे में ले आते हैं. तरह-तरह के अदालती मामलों में चिकित्साशास्त्र, मनोविज्ञान, मनोचिकित्सा, भौतिकी, रसायनशास्त्र, जीवविज्ञान या और भी किसी विज्ञान के विशेषज्ञ से जब अदालती मामले में मदद ली जाती है तो उस विशेषज्ञ को फॉरेंसिक नाम का विशेषण लगाकर बुलाया जाता है. अब जब अदालत में पहुंच रहे धार्मिक मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है तो फॉरेंसिक धर्मशास्त्री जैसे विशेषज्ञ भी हमें आगे पीछे तैयार करने ही पड़ेंगे. यह काम चाहे आज ही शुरू करें और चाहे खूब परेशान हो जाने के बाद करना पड़े. धर्म के मामलों के लिए अदालतों को इन फॉरेंसिक माइथोलॉजिस्ट की जरूरत पड़नी ही पड़नी है.

अभी कौन कर रहा है यह काम
यह काम अभी वकील लोग ही निपटा रहे हैं. न्यायाधीश से तो पहले से ही ज्यादा अपेक्षा नहीं की जाती कि वह हर विषय का विशेषज्ञ हो. तराजू लिए न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधे होने का प्रतीकात्मक अर्थ ही यह है कि अदालत पहले से कुछ नहीं जानती यानी उसका कोई पूर्वाग्रह नहीं होता. दोनों पक्षों के मुवक्किलों की तरफ से उनके वकील जिरह करके अदालत को वस्तुस्थिति बताते हैं. उन्हें तसल्ली से सुनने के बाद अपनी मेधा और विवेक का इस्तेमाल करते हुए और मौजूदा कानूनों को ध्यान में रखते हुए अदालत अपना फैसला सुनाती है. और फिर उसका फैसला कानून ही बन जाता है. मानकर चला जाता है कि अदालत पहले से या यहां वहां से सुनी किसी बात से प्रभावित नहीं होती इसीलिए सही फैसला लेने में अदालतों को वक्त लगता है. यह सिर्फ अपने देश की बात नहीं बल्कि हर सभ्य समाज की अदालत का चलन है.

फॉरेंसिक धर्मशास्त्री तैयार करने के काम में शुरुआती अड़चन
अपराधशा़त्र के चयनित विद्याथियों को फॉरेंसिक धर्मशास्त्र का विशेषज्ञ बनाने के लिए दर्शनशास्त्र के विद्वानों को पढ़ाने या सिखाने के काम पर लगाना पड़ेगा. बेशक विद्वान धर्माचार्यों की सेवाएं भी लेनी पड़ेंगी. लेकिन ये धर्माचार्य अपनी-अपनी आस्थाओं के जबर्दस्त आग्रह के कारण क्या किसी सर्व सम्मत पाठ्य सामग्री बनाने के लिए राजी हो पाएंगे. कुल मिलाकर वैज्ञानिक मिजाज के दर्शनशास्त्रियों के अलावा कोई सूरत बनती नहीं. ये अलग बात है कि ये दार्शनिक ही पूर्वाग्रहों की चपेट में आ जाएं. फिर भी उस प्रक्रिया में इतना तो हो ही जाएगा कि इस समय मौजूद दसियों धर्मों के मूलपाठ सामने आ जाएंगे.

धर्म और न्याय प्रणाली के बीच विसंगतियों का पता चलेगा
कानून बनने की प्रक्रिया को जो लोग जानते समझते हैं उनमें इसे लेकर कोई विवाद नहीं है कानून का एक स्रोत सामाजिक रीति रिवाज भी होते हैं. क्योंकि कानून जिन पर लागू होना है उनकी स्वीकृति के बगैर उसे लागू करना बहुत ही कठिन होता है. इसीलिए किसी भी कानून के बनते समय उस लोक में जागरूकता पैदा करने का काम किया जाता है. खासतौर पर लोकतांत्रिक प्रणाली वाले समाजों में यह काम हमेशा से और हर समय करते रहने की जरूरत पड़ी है.

कहां से शुरू हो सकता है यह काम
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई जैन बौद्ध जैसे दसियों धर्मों के धर्माचार्यों के बीच क्या कुछ ऐसे धर्माचार्य नहीं निकल सकते जो धर्म के नैतिक पक्ष पर चर्चा शुरू कर दें. धर्म के कर्मकांड वाले पक्ष और अध्यात्म वाले पक्ष को वे बाद में कभी सोचने के लिए फिलहाल छोड़ भी सकते हैं. वैसे भी समाज के पेट में जो दर्द उठा है वह धर्म के नैतिक वाले हिस्से में उठ रहा है. आपस में लड़ते झगड़ते  ये धर्माचार्य भले ही कुछ भी तय न कर पाएं लेकिन कम से कम व्यवस्थित रूप से अध्ययन करने वाले समाज विज्ञानियों खासतौर पर अपराधशास्त्रियों को सर्वमान्य पाठ्य सामग्री मुहैया कराने का न्यूनतम प्रबंध तो हो ही जाएगा. धर्म के मामले में वास्तविक तथ्य सामने आने लगें तो फॉरेंसिक धर्मशास्त्र के प्रशिक्षण के लिए पाठ्य सामग्री बनाने का काम आसान हो जाएगा.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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