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This Article is From Mar 27, 2019

न्यूनतम आय योजना कितनी नायाब

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 27, 2019 21:07 pm IST
    • Published On मार्च 27, 2019 21:07 pm IST
    • Last Updated On मार्च 27, 2019 21:07 pm IST

न्यूनतम आय की गारंटी के वायदे ने भारी असर पैदा कर दिया. इसका सबूत यह कि वायदों के बड़े-बड़े खिलाड़ी भौंचक हैं. केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली को जल्दबाजी में इस योजना को ब्लफ, यानी झांसा कहना पड़ा. खैर, यह तो चुनावी माहौल में एक दूसरे की राजनीतिक मारकाट की बात है, लेकिन यह भी हकीकत है कि अपने अनुभवी लोकतंत्र में नागरिक अब जागरूक हो चला है. औसत नागरिक समझने लगा है कि देश की फौरी समस्याएं क्या हैं, और उनके समाधान के लिए व्यावहारिक उपाय क्या हो सकते हैं. इन सवालों के जवाब के लिए तथ्यों की ज़रूरत है.

क्या वाकई नायाब योजना है...?
न्यूनतम आय के आद्याक्षरों को मिलाकर इस योजना का नाम न्याय बना है. योजना का नामकरण देखें तो हमारे लोकतंत्र की शुरुआत ही न्यायपूर्ण राजव्यवस्था के मकसद से हुई थी. न्यायपूर्ण व्यवस्था, यानी समानता वाली व्यवस्था. पूरी दुनिया में इसी काम को आज सबसे बड़ा काम माना जा रहा है. वैसे पूंजी के प्रभुत्व वाली मौजूदा अर्थव्यवस्थाओं में गरीबों की बात करना जोखिम भरा काम है. हर देश के आर्थिक विकास को आज भी सस्ते मजदूर ही सुनिश्चित करते हैं. अर्थशास्त्री और विद्वान सिद्ध कर चुके हैं कि श्रम के शोषण से ही पूंजी बनती है. इन हालात में अगर गरीबों को न्यूनतम आय की गारंटी की बात हुई है तो अमीर तबके का चौकन्ना हो जाना स्वाभाविक है.

लोकतंत्र के मुख्य मकसद के लिहाज़ से...
लोकतंत्र का मकसद समानता का न्याय है. फिर भी इस राजव्यवस्था में बहुसंख्यों या अधिसंख्यों के गणित को कौन नहीं समझता. लोकतांत्रिक चुनावों में ज्यादातर राजनीतिक दल इसी तलाश में रहते हैं कि कोई एक नारा मिल जाए, जो ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं को साध ले. दुनिया के कमजोर लोकतंत्रों में बड़ी चतुराई से नस्ल, धर्म, जाति या क्षेत्र के आधार पर तबकों की पहचान की जाती रही है, लेकिन इन सीमित तबकों तक भी सुख-समृद्धि पहुंचाना टेढ़ा काम है. अनुभव बताता है कि यह काम हर राजनीतिक दल के लिए टेढ़ी खीर साबित हो चुका है. इसीलिए जातियों और धर्मों को लड़ाकर राजनीतिक उल्लू सीधा करना अब आसान नहीं बचा. ऐसे में जनता का अर्थशास्त्र अगर सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन रहा हो, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. बेशक यह एक सुखद आश्चर्य ही है.

वैसे आर्थिक मुद्दे ही अहम रहे हैं अब तक...
आजाद होने के बाद से आज तक हमने लोकतंत्र के मकसद को हासिल करने के कई उपाय देखे हैं. जमींदारी प्रथा को खत्म करना, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, बदहाल किसानों की कर्जमाफी और उन्हें सब्सिडी, गरीबों को मुफ्त शिक्षा और इलाज के लिए मुफ्त बीमे के इंतजाम जैसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जो हमने गरीबी मिटाने के राजनीतिक उपायों के तौर पर देखे हैं. पिछले सात दशक में इनका चामत्कारिक असर देखा गया है. और इन्ही नारों वायदों के सहारे सरकारों का सत्ता में आना, जाना और बने रहना हमने देखा है.

आज सवाल वादों पर यकीन का भी है...
इस बात को मान लेने में संकोच नहीं होना चाहिए कि हाल के दौर में चुनावी वादों ने अपने असर को खोया है. आज इनके बेअसर होने के अंदेशे पैदा हो गए हैं. इसे लेकर सभी राजनीतिक दल इस समय चौकन्ने हैं, इसीलिए वादों की विश्वसनीयता वक्त की सबसे बड़ी मांग बन गई है.

कितनी विश्वसनीय है यह योजना...?
इसे मानने में कोई दुविधा नहीं है कि एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस सबसे ज्यादा अनुभवी है. शासन का सबसे ज्यादा अनुभव उसी के पास है. आजादी के बाद से लेकर आज तक उसकी बनाई और चलाई सैकड़ों योजनाएं आज भी चल रही हैं. यहां तक कि गरीबी हटाओ योजना भी उसी के नाम दर्ज है, जिसके बारे में कांग्रेस के विरोधी यह दावा करते हैं कि गरीबी आज तक नहीं हटी. अलबत्ता यह भी एक सवाल है कि गरीबी किस हद तक हटी या नहीं हटी, आज तक गरीबी हटने या कम होने की कितनी गुंजाइश और बची है, इस मोर्चे पर क्या किया जा सकता है, अनुभवी राजनीतिक दल होने के नाते इन सवालों के जवाब ढूंढने की जिम्मेदारी भी सबसे ज्यादा कांग्रेस पर ही डाली जाती है. खासतौर पर पिछले पांच साल में गरीबी के मोर्चे पर हुए सरकारी कामकाज और आर्थिक हादसों की समीक्षा के बाद तो इस तथ्य पर और भी ज्यादा गौर की जरूरत पड़ रही है.

सवाल गरीबों के न्याय पर खर्च का...
किसी योजना की व्यावहारिकता को जांचने का सबसे जरूरी पैमाना उस पर होने वाले खर्च का है. अब वे दिन हवा हुए, जब देश के आर्थिक विकास का तर्क देकर गरीबी कम करने का दावा किया जा सके. हमने अच्छी तरह देख लिया कि सबसे तेजी से बढ़ रही अपनी अर्थव्यवस्था में फिलवक्त गरीबी या बेरोज़गारी का क्या आलम है. हालांकि रोजगारविहीन आर्थिक वृद्धि का दोष हमें पहले भी पता था. लेकिन यह नहीं पता था कि कुछ परिस्थितियों में आर्थिक वृद्धि गरीबी की तीव्रता और आकार किस कदर बढ़ा देती है. यह नया ज्ञान है. यह बात अब बेकार है कि कुछ लोगों की अमीरी बढ़ाकर बहुत सारे लोगों की गरीबी कम हो सकती है. हालांकि इस विषय पर तीन साल पहले एक आलेख इसी स्तंभ में लिखा गया था - क्या हमारे देश में अमीरी घटाए बगैर घट सकती है गरीबी...? बहरहाल, सारे अनुभवों के बाद अब यही तरीका बचता है कि गरीबों तक सीधे ही न्यूनतम धनधान्य पहुंचाने का इंतजाम हो. चाहे वह गरीबों के लिए मनरेगा जैसी रोजगार योजना चलाकर हो या उनके खाते में सीधे पैसा डालकर हो. बस शर्त एक है कि पर्याप्त सरकारी धन के बिना ऐसी कोई योजना चल नहीं सकती. इस बारे में एक अनुमानित आंकड़ा है कि न्याय की योजना के लिए सालाना कोई तीन लाख 60 हजार करोड़ का खर्चा आएगा. बेशक सुनने में यह रकम बहुत बड़ी लगती है. लेकिन इस रकम को बहुत बड़ी करार देने के पहले हमें अपनी माली हैसियत का हिसाब अलग से देखना पड़ेगा.

हमारी माली हैसियत...
हमारा दावा है कि पिछले दो दशकों से हम विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में एक हैं. सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से आज हमारी अर्थव्यवस्था कोई दो सौ लाख करोड रुपए़ है. उद्योग व्यापार पर टैक्स, डीजल पैटोल पर टैक्स और दूसरे जरियों से केंद्र सरकार के पास कोई 27 लाख करोड़ रुपये आ जाते हैं. यह रकम कम नहीं है. इसी रकम को हम जरूरतमंदों और पंचायती कामों पर खर्च करने की योजना बनाते हैं. और इन्हीं योजनाओं के बनाते समय हमारे सामने वह लक्ष्य होता है, जिसे हम लोकतंत्र का मुख्य मकसद कहते हैं, यानी समानता के लिए काम करना. यानी वंचितों, गरीबों, पीड़ितों के लिए काम करना. पहले से किया गया हमारा ऐलान है कि अमीरों से पैसा उगाहा जाएगा और गरीबों को दिया जाएगा, ताकि बराबरी बनाए रखना जारी रहे. अगर यह इतना बड़ा मकसद है, बल्कि लोकतंत्र का अगर यह पहला मकसद है तो अपने बजट के कुल आकार की सिर्फ 15 फीसदी रकम गरीबों के खाते में सीधे डाल देने को किसी भी कोण से विसंगत नहीं ठहराया जा सकेगा.

मसला पैसे के इंतजाम का...
बेशक सरकारी आमदनी और खर्च का बराबर होना एक हकीकत है. अभी अमीरों से उगाहकर गरीबों पर जो खर्च किया जा रहा है, वह ऐसा ही हिसाब है. गरीबों को न्याय देने पर जो अतिरिक्त खर्चा होगा, वह कहां से आएगा. योजना बनाने वालों ने इस सवाल का जवाब यह दिया है कि लगभग इतनी ही रकम हम अमीरों के कर्जों की माफी और उन्हें दूसरी सुविधाएं देने पर खर्च कर रहे हैं. इस तरह से एक अंदाजा लगता है कि गरीबों को न्याय देने के लिए अमीरों को दी जाने वाली राहत को काटकर रकम का इंतजाम होगा. अब यह अलग सवाल है कि संसदीय लोकतंत्र, यानी चुनावी लोकतंत्र में अमीरों को नाराज़ करना कितना मुमकिन है. वैसे कांग्रेस नेताओं ने अब तक जो संकेत दिए हैं, उसमें यह बात भी शामिल है कि अगर तीन लाख 60 हजार करोड़ रुपए गरीबों के जेब तक पहुंचा दिए गए तो वे इस्तेमाल होकर पहुचेंगे बाजार में ही. इससे उद्योग व्यापार चक्का खुदबखुद तेजी से घूमने लगेगा. मुद्रा का वेग बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था का आकार चमत्कारिक रूप से बढ़ेगा. यह हिसाब अर्थशास्त्री ही लगा सकते हैं कि मंदी के इस दौर पर मुद्रास्फीति बढ़ने से कितना नफा हो सकता है और भयावह बेरोजगारी खत्म करने में कितनी मदद मिलेगी?

वामपंथियों का अंदेशा...
योजना का ऐलान होते ही जेटली के अलावा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी नेता डी राजा ने भी एक अंदेशा जताया है. उनका कहना है कि कहीं इस समय चालू कल्याणकारी योजनाओं को काटकर तो गरीबों के लिए इस योजना को लागू नहीं किया जाएगा? उनका सवाल वाजिब है. लेकिन देखने की बात यह भी है कि जब लाख कोशिशों के बावजूद मनरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसी भारी खर्चीली योजनाओं को बंद नहीं किया जा सका तो छोटी-छोटी सैकड़ों कल्याणकारी योजनाओं को बंद करने की हिम्मत कोई सरकार कैसे कर सकती है? वैसे भी हर सरकार चाहती है कि नागरिकों का कोई भी तबका नाराज़ न हो. बल्कि अच्छी सरकारें हरचंद कोशिश करती हैं कि अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की योजनाओं को और ज्यादा बेहतर ढंग से चलाएं और यश प्राप्त करें. यानी डी राजा का अंदेशा फिजूल है. फिर भी लगता है कि डी राजा कांग्रेस से यह साफ-साफ वादा करवा लेना चाहते हैं कि पहले से चल रहीं अच्छी योजनाओं को चालू रखा जाएगा.

योजना चली तो दुनिया कौतूहल से देखेगी...
सभी नगरिकों में सुख का समान वितरण हर राजनीतिक व्यवस्था का पहला मकसद है. साम्यवादी, पूंजीवादी, साम्राज्यवादी यानी हर तंत्र के शासक की तमन्ना होती है कि वह अपने नागरिकों के साथ भेदभाव करती न दिखे. हालांकि अधिनायकवादी जरूर इसका अपवाद माने जाते हैं, जो अपने-पराये का भेद करते हैं और इसी के ज़रिये सत्ता पाते और सत्ता बचाते हैं, लेकिन वे भी यह कतई नहीं चाहते कि विश्वबिरादरी में उनपर भेदभाव का आरोप लगे. इसीलिए आजकल हर देश में गरीबी मिटाने के सरल उपायों की ढूंढ मची है. मसलन, फ्रांस, ब्राजील, अमेरिका और जर्मनी जैसे कम से कम 20 देश अलग-अलग रूपों में न्यूनतम आय का प्रयोग कर चुके हैं. सबके अपने अपने खट्टे-मीठे अनुभव हैं. अब अगर अपने देश में कांग्रेस ने यह योजना सोची है, तो उन देशों के अनुभव हमारे बहुत काम आएंगे. यानी यह न माना जाए कि यह कोई मौलिक विचार है और इसे पहले-पहल अपने यहां आजमाया जाएगा. बल्कि एक अच्छी बात यह है कि अपने देश में अचानक बढ़ी भयावह बेरोजगारी और अमीर व गरीब के बीच चौड़ी हो रही खाई के दौर में कोई राजनीतिक दल  गंभीरता से इस योजना को लागू करने का वादा कर रहा है.


सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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