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This Article is From Oct 26, 2015

मौन साहित्यकारों के खिलाफ मुखर विरोध

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 31, 2018 12:18 pm IST
    • Published On अक्टूबर 26, 2015 14:33 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 31, 2018 12:18 pm IST
राजधानी के बीचोंबीच स्वतंत्रताप्रिय लेखकों के मौन प्रदर्शन के दौरान आखिर वही हुआ, जिसका अंदेशा था। शुक्रवार को अचानक एक वर्ग खड़ा नजर आया, जिसने मौन प्रदर्शन कर रहे साहित्यकारों के विरोध में खुलकर नारे लगाने शुरू कर दिए। बहरहाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन की मुखालफत में जमा मूक प्रदर्शनकारियों को अचानक अपने प्रतिपक्ष की मुखर अभिव्यक्ति को भी सहन करना पड़ा।

साहित्य अकादमी से सम्मानित साहित्यकारों द्वारा सम्मान वापस किए जाने का सिलसिला बनने के बाद पिछले हफ्ते ही केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने उन साहित्यकारों के विरोध में मोर्चा खोला था। तभी तय हो गया था कि देश के साहित्यकारों में भीतर ही भीतर बढ़ रही बेचैनी पर प्रतिपक्षी वर्ग की ओर से कोई प्रतिक्रिया ज़रूर होगी, लेकिन इसका अंदाज़ा कोई नहीं लगा पाया था कि साहित्यकारों के मौन प्रदर्शन के दौरान उसी जगह, उसी समय प्रतिरोध के विरोध का दिलचस्प दृश्य बनाया जा सकता है।

इस मौन जुलूस के तीन रोज पहले ही साहित्यकारों ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के सभागार में एक प्रतिरोध सभा की थी, जिसमें व्यक्त साहित्यकारों की भावनाओं को मीडिया में ज्यादा तव्वजो नहीं मिल पाई थी, लेकिन वहीं यह लगने लगा था कि देश में बढ़ती असहिष्णुता पर अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए साहित्यकार वर्ग तैयार हो रहा है।

अरुण जेटली के बयान पर ध्यान दें तो उनका बिल्कुल सीधा हमला था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर चिंतित ये साहित्यकार पिछली सरकारों के समय साहित्य अकादमी से सम्मानित साहित्यकार हैं। इसका लगभग यह आशय था कि पिछली सरकार के समय अकादमी से सम्मानित ये साहित्यकार संदिग्ध हैं और मौजूदा सरकार के विरोध करने के पीछे उनके विरोध का यही कारण है। कुल मिलाकर देश के दिग्गज वकीलों में एक अरुण जेटली का तर्क सम्मानित साहित्यकारों को संदिग्ध सिद्ध करना था, लेकिन ऐसी दलील से यहां यह फच्चर फंसेगा कि अब उनके अपने शासनकाल के दौरान साहित्य अकादमी जिस भी साहित्यकार को सम्मान के लिए चुनेगी, वह खुद-ब-खुद सरकार से उपकृत साहित्यकार सिद्ध होता हुआ निकलेगा।

यानी अरुण जेटली के बयान से एक ही झटके में साहित्य अकादमी की विश्वसनीयता बिल्कुल खत्म हो जाती है। हमारी न्याय प्रणाली में मौजूदा अदालतें और हमारी स्वायत्त संस्थाओं के निर्णायक मंडल ही अकेले उपलब्ध विश्वसनीय उपाय हैं, और किसी भी राजनीतिक व्यवस्था के पास विश्वसनीयता को नापने का अगर और कोई निरापद उपाय हो तो पहले उसे बताए, वरना सब कुछ ही संदिग्ध हो गया तो पूरा समाज संदेह के पचड़े में पड़ जाएगा।

निर्विकल्पता की स्थिति में इसीलिए हम सबने आपस में सहमति बना रखी है कि कुछ मामलों में संदेह नहीं करेंगे। कम से कम तब तक नहीं, जब तक उसका कोई विकल्प पेश न कर दिया जाए। इस मौके पर पिछली सदी के चौथे और पांचवें दशक में ज्ञानपीठ से प्रकाशित लेखक मशहूर साहित्यकार रावी के एक उपन्यास के पात्र के इस संवाद का जिक्र किया जा सकता है...

सत्य क्या है
इसे सार्वजनिक सभा भवनों में घोषित नहीं किया जा सकता
आओ चलो, खोज की संकरी कोठरी में चलें
वहां, हम तुम मिलकर सत्य पर सही का निशान लगाएंगे


लेकिन सत्य पर सही का निशान लगाने के लिए 'हम तुम' का मिलकर बैठना एक शर्त है। इधर आज साहित्यकारों को दो धड़ों में बंटा दिखाकर उनके मिल-बैठने की हर संभावना को खत्म किया जा रहा हो, तो फिलहाल वह उम्मीद भी खत्म नजर आती है।

साहित्य जगत में बिल्कुल निर्लज्ज, खुल्लमखुल्ला आग्रह हों तो बात अलग है, वरना आधुनिक वैज्ञानिक संप्रेषण प्रणालियों के युग में सही और गलत का फर्क समझना और समझाना उतना मुश्किल काम भी नहीं होना चाहिए। कम से कम इस मामले में कि हम कैसे व्यवहार को सही मानते हैं। समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र के विद्धान वैज्ञानिक विमर्श में मिल-बैठकर बड़ी आसानी से एक सुझावपत्र पेश कर सकते हैं कि समाज के लिए 'सहअस्तित्व का सिद्धांत' माफिक है या 'मत्स्य न्याय', यानी 'सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट' का सिद्धांत। क्या इस सत्य पर सही का निशान नहीं लगाया जा सकता कि सहअस्तित्व के भाव का पोषण करने वाली साहित्यिक कृतियां और वैसे साहित्यकार सम्मानयोग्य हैं। 'मत्स्य न्याय' का सिद्धांत समाज के लिए घातक है, इसे आम राय से मान लेने में आज के किसी भी सभ्य समाज को कहां अड़चन आ सकती है...? व्यवहार की बात बाद की है, पहले सैद्धांतिक तौर पर तो हमें रजामंदी जतानी पड़ेगी कि हम किसे सही मानना चाहते हैं...?

इतना ही नहीं, राजनीतिक चिंतक हमें पुनर्विचार कर बता सकते हैं कि 'साध्य ही साधन के औचित्य को सिद्ध करता है', यह बात कितनी सही या गलत, और कितनी अच्छी या बुरी निकली। उस निष्कर्ष के आधार पर अपने-अपने धर्म, अपनी जाति, अपना क्षेत्र, अपना मोहल्ला, अपनी गली की अस्मिता के लिए वैमनस्य और हिंसा के साधन को उचित सिद्ध करना आसान नहीं होगा। खैर क्या सही होगा...? आसान नहीं होगा या होगा...? ये सब बातें विमर्श से ही निकल सकती हैं, लेकिन वर्तमान काल में स्थितियां इतनी विकट हो चली हैं कि हम विमर्श करने लायक माहौल को ही खत्म होता देख रहे हैं।

साहित्य जगत में आलोचना-समालोचना का दौर तो जैसे खत्म हो ही गया है, तब फिर वाजिब साहित्यकार तबका बेचैन न हो तो क्यों...? और नागरिक या पाठक के तौर पर हमारी मजबूरी भी देखिए - साहित्यकार ही मानव की जटिलताओं को सरल और रोचक बनाकर सुरुचिपूर्ण तरीके से व्यक्त करने में सक्षम होते हैं, और जब वे ही मुश्किल में फंस गए, तो अच्छे साहित्य से हमारा वंचित हो जाना तो तय है ही।

- सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं

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