संथारा उपासना पद्धति क्या है...? क्यों है...? इसकी चर्चा तो बड़े पैमाने पर हो ही चुकी है, लेकिन सिर्फ कानूनी लिहाज़ से। यह मामला चूंकि धर्म का है, सो विश्वसनीय प्रकार के विद्वान इसमें ज्यादा नहीं पड़ते। एक से एक दबंग राजनेता और मीडिया के लोग भी ऐसे मामलों में टीका-टिप्पणी से बचते ही हैं। बाकी बचते हैं वकील लोग, सो, उनकी व्यावसायिक बाध्यता है कि वे पक्ष और विपक्ष, दोनों में से अपने किसी भी पक्षकार की तरफ से पैरवी के लिए तर्क और तथ्य जुटा लेते हैं। अपने पक्षकार की बात रखना ही उनका काम है। लिहाजा सामाजिक मंच की बहस में उनका होना ज्यादा मायने नहीं रखता। अपने-अपने तर्कों से एक-दूसरे को काटने की प्रतिस्पर्धा में स्थिति आमतौर पर एक रोचक द्वंद्व तक सीमित होकर रह जाती है। यानी संथारा पर मौजूदा बहस से एक ऐसा अवसर बना है, जिसके बारे में हम कह सकते हैं कि विद्वानों के बीच विमर्श होगा और धर्म के एक विभाग के रूप में उपासना की तमाम पद्धतियों पर शोधपरक चर्चाओं के दौर चलेंगे।
अहिंसा को अपना बहुत बड़ा व्रत मानने वाले जैन दर्शन के अनुयायियों की एक खास बात यह देखने में आई है कि वे पिछले एक-डेढ़ हजार साल से बहुत ज़्यादा बहस और द्वंद्व से बचते आ रहे हैं। एक धर्म के रूप में उसके नैतिक विभाग में अनेकांत और स्यादवाद दो ऐसे सिद्धांत हैं कि उनकी तरफ से विवाद की ज्यादा गुंजाइश बचती ही नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में बहस के दौरान अगर जैन दर्शन के इन सिद्धांतों का जिक्र आ गया तो यह बात आएगी ही कि किस लिहाज़ से संथारा उचित है और किस लिहाज़ से अनुचित।
अनौचित्य की बात यह कहते हुए उठ सकती है कि इसका आगा-पीछा देखना पड़ेगा। इस पर यह तर्क दिए जाने की संभावना बनती है कि ज्ञात इतिहास में जैन दर्शन की उपासना पद्धतियां और परंपराएं ढाई हजार साल पुरानी हैं और इस आधार पर यह कहा जाएगा कि यह समयसिद्ध पद्धति या परंपरा है। एक और बड़ा तथ्य यह भी है कि पांच हजार साल पुराने पुरातात्विक साक्ष्य अगर अब तक किसी भारतीय परंपरा के पास हैं तो वह जैन धर्म ही है।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के उत्खनन में प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव से संबधित साक्ष्य और वेदों में जैन तीर्थंकरों के उल्लेख की चर्चा अदालती कार्यवाहियों में जरूर आएगी। चौबीसवें तीर्थंकर महावीर की देशना को याद किया जाएगा। वह ऐसा अवसर होगा, जब जैन धर्मावलंबियों को अपनी प्राचीनता और समयसिद्ध परंपरा को सिद्ध करने का मौका मिलेगा। यानी संथारा के मामले में जैन धर्म को कठघरे में खड़ा किए जाने से इस धर्म और जैन समाज को अपनी प्रतिस्थापनाएं सार्वभौमिक रूप से सामने रखने का मौका मिलने वाला है।
उपासना पद्धति या परंपरा के रूप में संथारा पर जब न्यायालय में विमर्श होगा, तब सिर्फ मौजूदा कानून की व्याख्याओं से ही नहीं, बल्कि विश्व में प्रचलित न्याय प्रणालियों और कानून बनने की प्रक्रियाओं पर भी चर्चा शुरू हो सकती है। भले ही न्यायकक्ष की परिस्थितियों में न हो पाए, लेकिन विद्वत समाज और विकसित देशों में स्थापित अपराधशास्त्रियों के बीच बुद्धि-उत्तेजक विमर्श शुरू होना टल नहीं सकता। जिन न्याय प्रणालियों में कानून का एक स्रोत परंपरा को माना जाता है, उनके लिए तो संथारा विवाद बड़ी शिद्दत से सोच-विचार का विषय बनेगा।
इन विमर्शों में जैन शास्त्रियों और अकादमिक क्षेत्र के दर्शनशास्त्रियों और जैन शास्त्रियों की उदाहरणशास्त्र में पटुता मीडिया और विद्वानों के लिए विशेष रूप से आकर्षक होगी। मसलन, कुछ विद्वान पचपन साल पहले मध्य प्रदेश सरकार द्वारा जैन दर्शन पर आयोजित व्याख्यानमाला का जिक्र कर रहे होंगे। इस आयोजन में लगातार चार दिन, यानी 7 से 10 मार्च, 1960 को प्राकृत, पाली और संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध अधिकारी विद्वान डॉ एचएल जैन ने चार शोधपरक व्याख्यान दिए थे। पहले व्याख्यान के आयोजन की अध्यक्षता मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ कैलाशनाथ काटजू ने की थी। आगे के तीन व्याख्यानों के आयोजनों की अध्यक्षता क्रमशः विधानसभा अध्यक्ष पंडित कुंजीलाल दुबे, प्रदेश के वित्तमंत्री मिश्रीलाल गंगवाल और उस समय वहां शिक्षामंत्री रहे डॉ शंकरदयाल शर्मा ने की थी।
इन व्याख्यानों को बाद में, यानी 1962 में मध्य प्रदेश शासन साहित्य परिषद ने 494 पेज के ग्रंथ के रूप में प्रकाशित किया था, जिसमें समाधिमरण या सल्लेखना या संथारा के विषय में पेज 262 और 263 पर यह कहा गया है - "महान संकट, दुर्भिक्ष, असाध्य रोग और वृद्धत्व की अवस्था में जब साधक को यह प्रतीत होने लगे कि वह उस विपत्ति से बच नहीं सकता, तब उसे कराह-कराहकर व्याकुलता से मरने की अपेक्षा श्रेयस्कर है कि वह क्रमशः अपना आहारपान इस विधि से घटाता जाए, जिससे उसके चित्त में क्लेश व व्याकुलता उत्पन्न न हो और वह शांतभाव से अपने शरीर का उसी प्रकार त्याग कर सके, जैसे कोई धनी पुरुष अपने गृह को सुख का साधन समझता हुआ भी उसमें आग लगने पर स्वयं सुरक्षित निकल आने में ही अपना कल्याण समझता है... इसे सल्लेखना या समाधिमरण कहा गया है, इसे आत्मघात नहीं समझना चाहिए, क्योंकि आत्मघात तीव्र राग-द्वेश वृत्ति का परिणाम है और वह शस्त्र व विष के प्रयोग, भृगुपात आदि घातक क्रियाओं द्वारा किया जाता है... इन क्रियाओं का सल्लेखना में सर्वथा अभाव है, सो, इस प्रकार यह योजनानुसार शांतिपूर्वक मरण, जीवन संबंधी सुयोजना का एक अंग है..."
उपरोक्त वक्तव्य प्राचीन ग्रंथों के सूत्रों और बाद में प्राचीन जैन आचार्यों की टीकाओं का बहुत संक्षिप्त और सरलीकृत अनुवाद है। संथारा या सल्लेखना पर मौजूदा बहस में मूल ग्रंथों, खासतौर पर तीर्थंकर महावीर की वाणी, यानी जैन आगमों को पढ़कर समाज के सामने पेश करना ही होगा। इस कवायद में जैन धर्म के विभिन्न आम्नायों (दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी आदि) के कोई तीन सौ आचार्यों, डेढ़ सौ से ज्यादा जैन दर्शन के अकादमिक विद्वानों और दूसरे जैन शास्त्रियों को एक साथ मिल-बैठकर संवाद की स्थिति बनानी होगी। संथारा एक बात है, लेकिन इक्कीसवीं सदी के विश्व में जिस तरह की हिंसा और परिग्रह की परिस्थितियां हैं, उनमें जैन दर्शन के सिद्धांतों की चर्चा से हो सकता है, समाधान का कोई उपाय हमें सूझ जाए। संथारा पर विवाद से शुरू होने वाली बहस का यह एक शुक्ल पक्ष है।
- सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं
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