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This Article is From Jun 25, 2017

राष्ट्रपति चुनाव : जाति की बातें ज़्यादा, व्यक्तित्व की चर्चा कम...

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 25, 2017 15:45 pm IST
    • Published On जून 25, 2017 15:45 pm IST
    • Last Updated On जून 25, 2017 15:45 pm IST
राष्ट्रपति के चुनाव में इतना ज़्यादा गुणा-भाग तो कभी नहीं होता था. वैसे भी राष्ट्रपति पद को अपनी संसदीय चुनाव प्रणाली में सरकार द्वारा अपने ऊपर नियंत्रण, यानी स्वनियंत्रण की एक विलक्षण रस्म-भर माना जाता है. हां, विशेष परिस्थितियों, यानी किसी संवैधानिक संकट या किसी सरकार के कार्यकाल के बीच में ही आगे सरकार न चला पाने की विशेष परिस्थिति में, यानी राष्ट्रपति शासन लगाने में राष्ट्रपति की भूमिका बढ़ जाती है. अब तक का अनुभव है कि आमतौर पर राष्ट्रपति बड़े संवैधानिक विवादों के बीच नहीं पड़ते. इसीलिए संतोष की बात है कि इक्का-दुक्का मामले छोड़ दें, तो अब तक के राष्ट्रपतियों में किसी पर ज़्यादा अंगुलियां उठी भी नहीं. वैसे एक तथ्य यह भी है कि अंगुली उठाने लायक कोई काम उनके कार्यक्षेत्र में आता भी नहीं है. इस पद को सर्वोच्च पद हम कहते ज़रूर हैं, लेकिन इस सर्वोच्च पद की संप्रभुता नहीं होती. पूर्वजों के सतर्क प्रयास से राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाकर उन्हें हटाने का प्रावधान भी हमारे संविधान में है.

इस अप्रत्यक्ष चुनाव में ज़्यादा अनिश्चितता नहीं होती...
राष्ट्रपति चुनावों का इतिहास देखें, तो एक-दो मौके ही आए हैं, जब इस पद के उम्मीदवार को लेकर अनिश्चय का रोमांच खड़ा हुआ हो. इनमें एक प्रकरण वह है, जब अंतरात्मा की आवाज़ पर वोट देने की अपील की गई थी. वरना, इस चुनाव में आमतौर पर पहले से चुनाव जीतकर आए जनप्रतिनिधि ही वोटर होते हैं. उनकी दलगत प्रतिबद्धता पहले से तय होती है. यानी कोई भी आसानी से हिसाब लगा सकता है कि किस राजनीतिक दल का उम्मीदवार जीतेगा. हालांकि इस बार सत्तारूढ़ दल के वोट कम ज़रूर थे, लेकिन इतने कम भी नहीं थे कि कोई रोमांचकारी अनिश्चय हो. खासतौर पर इस कारण से कि कई प्रदेशों में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की सरकारें हैं और उन सबको विपक्ष के एक खेमे में रख पाना मुश्किल होता है.

क्षेत्रीय दलों की प्रदेश सरकारों को केंद्र सरकार के असहयोग का भय बना रहता है, सो, आमतौर पर केंद्र में जो सत्तारूढ़ हो, उसे क्षेत्रीय दलों के समर्थन का लाभ मिल ही जाता है. यही इस बार हो रहा है. जो 10-20,000 वोटों की कमी एनडीए उम्मीदवार को है, वह बिहार और ओडिशा जैसे प्रदेशों के सत्तारूढ़ जनप्रतिनिधि वोटरों से पूरी हो ही जाएगी.

तो फिर इतना गुणा-भाग क्यों...?
यही सवाल काम का है. इसका जवाब बनाने के लिए अगर पिछले एक हफ़्ते की हलचल और नेताओं के बयानों पर गौर करें, तो एनडीए उम्मीदवार की जाति की बात सबसे ज़्यादा बार दोहराई गई. अब तक राष्ट्रपति जैसे आभामंडल वाले पद के लिए राजनीति से ऊपर उठकर चलने की बात होती थी. आम सहमति बनाने का जुमला सबसे ज़्यादा बार दोहराया जाता था. हालांकि यह कभी पता नहीं चलता था कि सर्वसहमति बनाने के लिए ज़रूरी क्या है. अब तक का अनुभव है कि उम्मीदवार का चयन करते समय राष्ट्रपति पद की गरिमा के अनुकूल उम्मीदवार की योग्यता की बातें दोहराई जाती थीं. लेकिन यह पहली बार है कि जाति की बात सबसे पहले कही गई और किसी न किसी बहाने से उसी को सबसे ज़्यादा बार दोहराया गया.

यहां गौर करने की बात यह भी है कि सत्तारूढ़ एनडीए के उम्मीदवार के ऐलान के बाद जब विपक्ष ने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार घोषित किया, तो उसके विरोध में एनडीए नेताओं ने बार-बार यही बोला कि उनकी जाति के कारण ही यूपीए और अन्य दलों ने उन्हें उम्मीदवार बनाया. राजनीति में आज के संकट और वक्त की मांग के लिहाज से देखें, तो दोनों ही उम्मीदवारों के क्रमशः मृदुभाषी और मितभाषी होने के गुण को चुनाव प्रचार में शामिल क्यों नहीं किया जा सकता था.

खैर, यह तो शुरुआत है. अब आगे से राष्ट्रपति की उम्मीदवारी को लेकर भी जाति को ही आधार बनाने की परंपरा डल जाने को अब कौन रोक सकता है.

क्या रहा होगा कारण...?
यह बात तो सिद्ध हो गई है कि राष्ट्रपति पद भी जातिगत राजनीति के घेरे में आ गया है. ऐसा क्यों करना पड़ा, यह पहेली भी देखी जानी चाहिए. राजनीति के वक्र होते जा रहे इस काल में यह तथ्य देखा जाना चाहिए कि पिछले एक-दो साल से दलितों पर दबिश की घटनाओं से उनमें असंतोष बढ़ा है. इस असंतोष का प्रबंधन हो नहीं पा रहा था. दलित जनाधार को साधना इस वक्त की सबसे बड़ी चुनौतियों में एक है. अब यह सवाल गहराई से सोच-विचार का बनता है कि इस काम के लिए राष्टपति पद के चुनाव में भी उम्मीदवार की जाति का इस्तेमाल करना क्या इतना ज़रूरी था. वैसे भी पूर्व लोकसभा अध्यक्ष और कई बार सांसद और केंद्रीय मंत्री रह चुकीं मीरा कुमार और पूर्व सांसद और अब तक बिहार के राज्यपाल रहे रामनाथ कोविंद अपने राजनीतिक सामाजिक जीवन की प्रारंभिक अवस्था के व्यक्ति नहीं है. दोनों ही उम्मीदवारों के अपने-अपने लंबे अनुभवों के कारण आज उनकी योग्यता और संविधान के प्रति उनकी वैचारिक निष्ठा को राष्ट्रपति पद के चुनाव प्रचार का आधार क्यों नहीं बनाया जा सकता था.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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