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This Article is From Apr 20, 2017

क्या-क्या मुसीबतें आएंगी 'सस्ते इलाज' के नए सपने की राह में...?

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 20, 2017 13:39 pm IST
    • Published On अप्रैल 20, 2017 12:30 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 20, 2017 13:39 pm IST
नए-नए सपनों में सस्ते इलाज का एक और सपना जुड़ गया है. देश में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत सबको पता है. महंगे इलाज की सुविधाएं जिस तरह बढ़ रही हैं, उससे हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि सबको स्वास्थ्य का हमारा इरादा किस तरह हारता चला जा रहा है. सरकार को कुछ करते दिखना ज़रूरी होता है, सो, कई दशकों से हमेशा नए-नए सरकारी कार्यक्रम या मिशन सुनने में आते रहे, लेकिन हालात में खास फर्क नज़र नहीं आया, बल्कि बढ़ती आबादी के अनुपात में अस्पतालों में भीड़ ज़रूर बढ़ती जा रही है. यह हकीकत कोई एक-दो जगह की नहीं, और कोई ऐसा सरकारी अस्पताल नहीं बचा, जहां डॉक्टरों और दवाओं की कमी न हो, इसीलिए इस मामले में निजी क्षेत्र दिन-दूनी रात-चौगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है. बहरहाल भारत सरकार ने इस समय दवाइयों के दाम कम कराने का नारा छेड़ा है, सो आइए, ज़रा इसका आगा-पीछा देखें...

बीमारी का समाजशास्त्र...
मानव जीवन की अब तक की ज्ञात विपदाओं में सबसे ज़्यादा सार्वभौमिक और सर्वकालिक विपदा शारीरिक रोगों को ही माना जाता है. आधुनिक समाजशास्त्री बीमारी को सामाजिक विघटन का रूप और कारण दोनों मानते हैं. इस तरह रोग या बीमारी को सिर्फ व्यक्तिगत विघटन या पारिवारिक विघटन ही नहीं माना जाता, और इसीलिए कोई भी सरकार, खासतौर पर लोकतांत्रिक सरकार, स्वास्थ्य सेवा को अपनी प्राथमिकताओं में रखती है. अब यह अलग बात है कि अपनी प्राथमिकताओं को दिखाने के लिए आमतौर पर सरकारें नीतियां बनाने का प्रचार ही कर पाती हैं, उन्हें लागू कर सबको स्वास्थ्य मुहैया कराने का मकसद पूरा करना बड़ा मुश्किल होता जा रहा है.

बीमारी का राजनीतिशास्त्र...
हर काम को आगे के लिए निलंबित किया जा सकता है, लेकिन बीमारी ही है, जिसे तुरंत इलाज की ज़रूरत पड़ती है. इसमें कोई शक नहीं कि देश की आज़ादी के समय मृत्युदर का जो आंकड़ा था, वह सुखद आश्चर्य की तरह घटा है. पिछले सात दशक में हमने देश में कुपोषण, स्वास्थ्य सेवाओं और साफ-सफाई के काम को राजनीतिक तौर पर कितनी तवज्जो दी, यानी यह सेवा कितनी कम-ज़्यादा थी, यह बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन आज़ादी के समय हमारी माली हालत जैसी थी, उसमें हमने अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भरता और शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं का आधारभूत ढांचा खड़ा करने में कोई कम दम नहीं लगाया. आज का रोना यह नहीं है कि अस्पताल नहीं हैं, बल्कि हर तरफ से ख़बर आती है कि अस्पतालों में डॉक्टर कम हैं और दवाइयां हैं ही नहीं.

राजनीतिक तौर पर आज स्वास्थ्य सेवा के आधारभूत ढांचे का काम काफी कुछ निपटा हुआ नज़र आ रहा है. आज इन सुविधाओं के समान वितरण की नई चुनौती है. मौजूदा सरकार ने सत्ता में आने से पहले जिस तरह 'सबका साथ सबका विकास' नारे का सहारा लिया था, वह सबूत है कि सरकार मानती है कि अब सबको समान सुविधाएं देने का काम शुरू होना है. स्वास्थ्य सेवा तक गरीब की पहुंच हो जाए, इसके लिए जो कुछ भी हो, उस पर ज़्यादा टीका-टिप्पणी का सवाल ही नहीं उठता, लेकिन गरीबों को सस्ती दवाएं दिलवाने के लिए कानून बनाने और उसे लागू करवाने की प्रणाली पर ज़रूर सोचना पड़ेगा. खासतौर पर तब, जब देश की आबादी हर साल दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही हो और न्यूनतम स्तर का जीवनयापन करने वालों की संख्या, यानी ग़रीबों की भी उसी अनुपात में बढ़ रही हो.

दवाओं का अर्थशास्त्र...
इस मामले में नई बात यह उठी है कि एक ही दवा के दामों में भारी अंतर है. एक दवा वह है, जो उसमें मौजूद रासायनिक यौगिक के नाम से जानी जाती है. उन्हें जेनेरिक दवाएं कहा जाता है. दवाओं के दूसरे वर्ग का नाम ब्रांडेड दवाएं हैं. यानी, एक ही दवा को अलग-अलग प्रकार से या ज़्यादा बारीकी से असरदार दिखाने के लिए अलग-अलग फार्मास्यूटिकल कंपनियां अपने ब्रांड नाम से बेचती हैं. ब्रांडेड दवाओं के दाम औसतन तीन से पांच गुना तक हैं. इन्हीं ब्रांडेड दवाओं के खिलाफ माहौल बनाने का प्रचार हो रहा है. सरकारी तौर पर कोशिश की जा रही है कि डॉक्टर लोग सस्ती दवाएं, यानी जेनेरिक दवा ही पर्चे में लिखा करें. डॉक्टरों पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि वे दवा बनाने और बेचने वालों से मेल-मिलाप बढ़ाकर गरीब बीमारों को भी महंगी दवाएं लिखते हैं.

क्या इतनी आसान है ब्रांडेड दवाओं की मुख़ालफ़त...?
जेनेरिक दवा में जो पदार्थ है, उसका दाम, उसे गोली-कैप्सूल के आकार में लाकर उसका पत्ता बनाने का दाम फिर भी तय हो सकता है. उस नाम से कोई भी कंपनी दवा बनाए, तो उसे बाज़ार की गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा से निपटना होता है. लेकिन उसी दवा को नए-नए शोधों के ज़रिये ज़्यादा कारगर तरीके से खून में जल्द या देर से मिलाने की प्रणाली विकसित करने के नाम पर कंपनियां अपने-अपने ब्रांड बनाकर ताबड़तोड़ प्रचार करती हैं. जनता के बीच दवाइयों के प्रचार पर पाबंदी है, लेकिन डॉक्टरों के बीच प्रचार पर रोक नहीं है. मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव के ज़रिये दवा कंपनियां जो भारीभरकम खर्च करती हैं, वह खर्च जेनेरिक दवाओं को बेचने के लिए नहीं, बल्कि महंगी ब्रांडेड दवाएं बेचने के लिए ही होता है. अभी मेडिकल स्टोर और डॉक्टरों के बीच तालमेल बनाकर किसी ब्रांडेड दवा को ज़्यादा बिकवाने का अंदेशा बना हुआ है. हमारी सरकार इसी अंदेशे को खत्म करने के लिए कोई कानूनी उपाय करने की बात कह रही है. ऐसे फायदे की बात सुनकर जनता का खुश होना स्वाभाविक है. अब सवाल यह है कि दवाओं को सस्ता करवाने का यह काम होगा कैसे...?

कानून लागू करवाना सबसे बड़ी चुनौती...
देश में सालाना ढाई लाख करोड़ रुपये के दवा उद्योग के सिलसिले में कोई कानून बन पाना खुद में एक चुनौती है, लेकिन उस कानून को लागू करवा पाना उससे भी मुश्किल काम नज़र आता है. कानून अपने आप लागू नहीं होता. खासतौर पर चिकित्सा जैसे विशेषज्ञ क्षेत्र में कोई कानून लागू करवाने के लिए कितने फार्मास्यूटिकल प्रोफेशनलों की ज़रूरत पड़ेगी. देश के हर जिले में 20 इंस्पेक्टरों का हिसाब लगाएं, तो यह आंकड़ा 12,000 इंस्पेक्टरों का बैठेगा. इन इंस्पेक्टरों पर नज़र के लिए दूसरे इंस्पेक्टर बढ़ाने की ज़रूरत अलग. महंगी दवा लिखने वालों पर मुकदमों के दौरान फॉरेंसिक विशेषज्ञों की भी ज़रूरत पड़ा करेगी. अगर यह काम वाकई करने का इरादा हो, तो इन विशिष्ट फॉरेंसिक विशेषज्ञों के प्रशिक्षण का काम अभी से शुरू हो जाना चाहिए.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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