अच्छी ख़बर यह है कि समाज में शांति व्यापक हो चुकी है. इतनी शांति पहले कभी नहीं महसूस की गई. पता ही नहीं चल रहा था कि समाज में लोग भी रहते हैं. भला हो उन नेताओं का जिन्होंने लाउडस्पीकर ( loudspeakers) बजाने के धार्मिक अधिकार को लेकर जंग छेड़ दी है. अपनी अंतरात्मा और परमात्मा तक पहुंचने का सुपर फास्ट तरीका है, लाउडस्पीकर. लाउडस्पीकर को लेकर दो धर्मों के बीच होड़ सी पैदा कर दी गई है, जिससे लाउड स्पीकर भी धर्म के अस्तित्व का एक महत्वपूर्ण प्रतीक बन गया है. हर कोई अपने हिसाब से लाउडस्पीकर लगाना चाहता है. उन चौराहों पर भी जहां पहले भी कई दशकों से लाउडस्पीकर लगता रहा है और बजता रहा है. लोगों को याद दिलाया जा रहा है कि यहां लाउडस्पीकर उनके संघर्ष के बाद बज रहा है. वो दिन दूर नहीं जब देश का हर नागरिक अपना अपना लाउडस्पीकर लेकर चलेगा. जो लाउड स्पीकर का विरोध करेगा, अपने अपने धर्म का विरोधी माना जाएगा. धर्म की रक्षा में जो युवा तलवार नहीं चला सकते वे लाउडस्पीकर बांधने का काम तो कर ही सकते हैं. भोंपू भोंदू नहीं होता है लेकिन भोंदू भोपू होता है. इस सूत्र वाक्य को दिन में सौ बार लिखें, भोंपू भोंदू नहीं होता है लेकिन भोंदू भोपू होता है.आपका कल्याण होगा.
क्या ये शोर इसलिए है कि धर्म की आड़ में सरकारें अपनी नाकामियों पर पर्दा डालती रहें और मनमानी करती रहें? क्या धर्म के आगे सारे तर्क ढेर हो जाते हैं, किसी प्रकार की संवैधानिक और राजनीतिक नैतिकता की कोई जगह नहीं बचती है? किसी को हिंदू विरोधी बता कर उस पर हमला कर देना क्रांतिकारी होना बताया जा रहा है,यह बात वे लोग बता रहे हैं जो क्रांति का नाम सुन कर ही घबरा जाते हैं. इस तस्वीर को देखकर आपको किसी तरह से संदेह नहीं होना चाहिए कि ये क्रांतिकारी नहीं हैं, क्योंकि बीजेपी इन्हें क्रांतिकारी मानती हैं. छत की दिशा में मुट्ठी ताने ये युवा गिनती में आठ हैं और आज इनका स्वागत प्रदेश भाजपा के दफ्तर में किया गया.प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने स्वागत कार्यक्रम की तस्वीरों को ट्वीट किया है और इन आठ क्रांतिकारियों की प्रशंसा और अनुशंसा में जो दो चार शब्द कहे हैं वो इस प्रकार हैं जिन्हें मैं पढ़ रहा हूं, “आज इन सभी का दिल्ली प्रदेश भाजपा के दफ्तर में स्वागत किया गया. तोड़फोड़ करने के बाद इस तरह से स्वागत करने की राजनीतिक नैतिकता का उदाहरण बहुत कम देखने को मिलता है.
बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने बाकायदा स्वागत की तस्वीरों को ट्वीट किया है और लिखा है कि हिन्दू विरोधी केजरीवाल के खिलाफ प्रदर्शन करते वक्त जेल गए भाजपा युवा मोर्चा के 8 कार्यकर्ताओं को 14 दिनों बाद कोर्ट द्वारा ज़मानत मिली. आज प्रदेश कार्यालय में अपने इन युवा क्रांतिकारियों का स्वागत किया गया. हमारा प्रत्येक कार्यकर्ता हिन्दू विरोधी ताकतों के खिलाफ सदैव लड़ता रहेगा. यह है वह क्रांति जिसका दृश्य आप स्क्रीन पर देख रहे हैं. 30 मार्च को दिल्ली के मुख्यमंत्री के घर के बाहर भाजपा युवा मोर्चा के सदस्यों ने प्रदर्शन किया था और घर के बाहर तोड़फोड़ की थी. इस आरोप में आठ युवा गिरफ्तार हुए थे जो अब ज़मानत पर बाहर आ गए हैं. यहां जो हो रहा है वह बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता के मुताबिक क्रांति हो रही है. आदेश गुप्ता ने इस ट्वीट को प्रधानमंत्री को भी टैग किया है.
गृह मंत्री अमित शाह को भी टैग किया है.बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को भी टैग किया है, जिन लोगों ने मुख्यमंत्री के घर के बाहर तोड़फोड़ की उनका स्वागत हो रहा है. क्रांतिकारी बताकर प्रधानमंत्री को टैग किया जा रहा है. मतलब एक मुख्यमंत्री के घर तोड़फोड़ हो और ऐसा करने वाले की तस्वीर प्रधानमंत्री से साझा की जा सकती है. क्या आदेश गुप्ता यह समझते हैं कि प्रधानमंत्री भी तोड़फोड़ करने वाले इन आठ युवाओं को क्रांतिकारी मान कर सम्मान देंगे? जब तक यह ट्वीट डिलिट नहीं होता है, प्रधानमंत्री पर बेवजह शक करना ठीक नहीं है. क्या यह माना जाए कि उनकी पार्टी के नेता जो सोचते हैं उसे वह सही मानते हैं, वर्ना सही नहीं होता तो प्रधानमंत्री को क्यों टैग करते? सबका भारत है या एकतरफा भारत है?
आम आदमी पार्टी ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया है कि BJP गुंडों लफंगों और दंगाइयों की पार्टी है इसलिए भाजपा में गुंडों, लफंगों और दंगाइयों को सम्मानित किया जाता है. क्या यह सबका भारत का एलान है या एकतरफा भारत का एलान है? ऐसा कब हुआ था कि पार्टी के जो कार्यकर्ता मारपीट करते धरे जाएं उनका पार्टी में स्वागत हो और वह तस्वीर प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को भेजी जाए. क्या यह भी गौरव की बात है? क्या हिन्दू विरोधी होने के आरोप पर फैसला करने का अधिकार केवल बीजेपी को है? उसके कार्यकर्ता एक मुख्यमंत्री के घर के बाहर तोड़फोड़ भी करेंगे और क्रांतिकारी भी कहलाएंगे? क्रांतिकारियों के नाम होते हैं लेकिन बीजेपी अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने इनके नाम ट्विटर पर नहीं डाले.
इन सभी के नाम क्रम से न बता पाने के कारण क्षमा चाहता हूं. अख़बारों में जो नाम छपे हैं वही बात रहा हूं. इनका नाम सम्मान से लिया जाना चाहिए इसलिए हर नाम के आगे क्रांतिकारी लगा रहा हूं.क्रांतिकारी चंद्रकांत भारद्वाज जी, क्रांतिकारी नवीन कुमार जी, क्रांतिकारी नीरज दीक्षित जी, क्रांतिकारी सन्नी जी, क्रांतारिकारी जितेंद्र सिंह बिष्ठ जी, क्रांतिकारी प्रदीप कुमार तिवारी जी, क्रांतिकारी राजी कुमार सिंह जी और क्रांतिकारी बब्लू कुमार जी. मांग तो यह होनी चाहिए कि अगर ये आठ लोग क्रांति कर लौटे हैं तो इनके जीवन काल में ही दिल्ली की आठ सड़कों के नाम पर इनके नाम पर रखे जाने चाहिए. इससे ज्यादा अच्छा होगा कि दक्षिण दिल्ली के आठ मोहल्लों के नाम इनके नाम पर रखे जाएं.क्या आप देख पा रहे हैं कि लोकतंत्र में नैतिकताएं संवैधानिक और लोकतांत्रिक मर्यादाओं से तय नहीं हो रही हैं?
आप इन क्रांतिकारियों को ध्यान से देखिए. इस एकतरफा भारत में क्रांतिकारी की भी एकतरफा परिभाषा लागू कर दी गई है. इस नए भारत के इन क्रांतिकारियों का आप भी स्वागत करें, बल्कि कर रही रहे हैं. मुझे पता है आप नहीं देख रहे हैं. एक दिन यह देश आपसे पूछेगा, घबराइये मत,सिम्पल सवाल पूछेगा कि आठ क्रांतिकारियों में कोई इंग्लिश मीडियम का भी है या सब हिन्दी मीडियम वाले हैं. कई बार मुझे लगता है कि इस तरह की क्रांति से इंग्लिश मीडियम वाले नौजवान दूर हैं, अपना करियर बनाने के स्वार्थी काम में लगे हैं,केवल हिन्दी मीडियम वाले ही योगदान कर रहे हैं. हो सकता है मैं ग़लत हूं जो कि होता ही हूं. मध्य प्रदेश में जो अपराधी जेल में बंद थे, उनका नाम भी दंगा करने वालों में शामिल है.
अनुराग द्वारी बता रहे हैं कि खरगोन में सांप्रदायिक दंगों के बाद 10 अप्रैल को दो मोटरसाइकिलों को आग लगाने के आरोप में जिन तीनों पर मामला दर्ज किया गया है, उनकी पहचान शहबाज़, फकरू और रऊफ के रूप में हुई है. तीनों पांच मार्च से आईपीसी की धारा 307 के तहत हत्या के प्रयास के मामले में जेल में बंद हैं. जब ये जेल में बंद थे तब कैसे मोटरसाइकिल जलाने बाहर आ गए?
अलीगढ़ में लाउडस्पीकर पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक़ हो रही अज़ान को बंद कराने को लेकर ABVP ने मुहिम शुरू कर दी है, ABVP ने शहर के मुख्य 21 चौराहों पर लाउडस्पीकर लगा कर हनुमान चालीसा बजाने की इजाज़त मांगी है, कुछ ने तो अपने घरों में ही लाउडस्पीकर लगाकर बजाना शुरू कर दिया है. उम्मीद है इन युवाओं में कुछ इंग्लिश मीडियम वाले भी होंगे, या यहां भी हिन्दी मीडियम वाले ही सारा बोझ उठा रहे हैं.ऐसा नहीं है कि समाज में सब हिंसा के बहाव में चले जा रहे हैं. इसकी धारा को रोकने वाले कम हैं मगर हैं. मधुलिका सिंह ने तो अकेले भीड़ को रोक दिया. वे दंगा करना चाहते थे. दुकानें जला देना चाहते थे. लेकिन 15 दंगाइयों के सामने खड़े हो जाना आसान तो नहीं रहा होगा.
भारत के युवाओं में गौरव के कई लक्षण होते हैं. वे अलग-अलग समय पर अलग-अलग चीज़ों पर गौरव करते हैं.
शायद इसी तरह से स्पेन वाले भी करते होंगे लेकिन भारत का युवा केवल धर्म को लेकर गौरव नहीं करता है. इंग्लिश मीडियम में पढ़ने के बाद भी मातृ भाषा पर गर्व करता है और मातृ भाषा में पढ़ते हुए भी उसमें फेल कर जाता है.विश्व गुरु भारत में मातृ भाषा पर बहुत ज़ोर दिया जा रहा है और देना भी चाहिए.किंतु इससे यह भ्रम न फैलाएं जो मातृ भाषा में पढ़ रहे हैं वे उसमें अव्वल ही आ रहे हैं.मातृ भाषा की हालत केवल अंग्रेज़ी के कारण या उसके सामने ख़राब नहीं है,अपने कारण से भी है.
कुछ साल पहले महाराष्ट्र में दुकानों के नाम मराठी में लिखने का आंदोलन चला, वहां पर पहले भी लिखे जाते थे लेकिन इसके बाद मराठी में भी लिखे जाने लगे. इस साल छह अप्रैल को मुंबई की वृहनमुंबई म्यूनिसिपल कारपोरेशन ने आदेश निकाला कि मुंबई में जितनी भी दुकानें हैं उन सभी पर मराठी में नाम लिखा होगा. देवनागरी में होगा लेकिन मराठी में. हमने यह खबर इंडियन एक्सप्रेस में देखी और उसी अखबार में 2008 की ऐसी ही एक खबर देखी कि BMC ने इसी तरह का आदेश निकाला था. अब हाई कोर्ट ने भी इस फैसले पर मुहर लगा दी है. ऐसे भी मुंबई की कई दुकानों पर देवनागरी लिपि में मराठी में नाम लिखा मिलेगा, बैंक से लेकर बड़े रेस्त्रां भी लिखते हैं.इससे आसानी तो होगी लेकिन मराठी लिपि का क्या होगा? क्या बग़ैर लिपि के भाषा का विकास हो सकता है?
ऐसा नहीं है कि भाषा को प्रचलन में रखने का यह सुंदर तरीका नहीं है लेकिन मातृ भाषा की हालत जानने का यह एकमात्र तरीका भी नहीं है. 2019 में टाइम्स आफ इंडिया की एक खबर है कि दसवीं के इम्तहान में ढाई लाख से अधिक छात्र मराठी में फेल कर गए. जो महाराष्ट्र की मातृ भाषा है और राजकीय भाषा है. उस साल 11 लाख 9 हज़ार छात्रों ने परीक्षा दी थी, जिसमें से 21 प्रतिशत छात्र फेल कर गए.
इसी तर्ज पर गुजरात सरकार ने इस बार आदेश निकाला कि सभी सरकारी दफ्तरों, शापिंग मॉल, दुकानों, स्कूल कालेजों, कैफे, अस्पताल सिनेमा हाल के बाहर गुजरात में नाम पट्टिका होगी. यहां अच्छी बात यह भी है कि गुजराती लिपि में ही लिखे जा रहे हैं जिससे लोगों का अपनी लिपि का भी अभ्यास होता रहेगा. लेकिन इन फैसलों को गर्व की नज़र से देखने के पहले यह भी देखिए कि गुजराती मीडियम की हालत क्या है? दिव्य भास्कर ने 22 फरवरी को पहले पन्ने पर रिपोर्ट छापी कि पिछले पांच साल में गुजरात में दसवीं और 12 वीं के इम्तहान में गुजराती भाषा में 7 लाख 80 हज़ार छात्र फेल हुए हैं. मतलब दुकानों की बोर्ड पर लिखने से भाषा मज़बूत नहीं होती बल्कि क्लास रूम में भाषा की पढ़ाई करने से भाषा बेहतर होती है. गुजराती भाषा में ही हर साल छात्र लाखों की संख्या में फेल हो जाएं यह भाषा की अच्छी तस्वीर तो नहीं है. 2020 में 10 वीं के इम्तहान में एक लाख से अधिक छात्र गुजराती भाषा में फेल कर गए थे.क्या इसका संबंध इस बात से भी है कि राज्य में गुजराती की पढ़ाई का स्तर गिर रहा है? वैसे संदेश की इस खबर के अनुसार पाकिस्तान के कराची में गुजराती भाषा बचाओ आंदोलन चल रहा है.
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में एक शहर का नाम है गुजरात. बिहार में इस बार दसवीं की परीक्षा में 16 लाख 11 हज़ार से अधिक छात्र बैठे थे लेकिन केवल 12 लाख 86 हज़ार से कुछ अधिक ही पास हुए. बीस प्रतिशत छात्र फेल कर गए. करीब साढ़े तीन लाख छात्र थर्ड डिविज़न से पास हुए हैं. 27 प्रतिशत छात्र थर्ड डिविज़न से पास हुए हैं. ये हमारा आउटपुट है. बिहार की शिक्षा का बजट बीस हज़ार करोड़ है और 20 प्रतिशत छात्र फेल कर जाते हैं और 27 प्रतिशत छात्र थर्ड डिविज़न पाते हैं. आपको याद होगा कुछ साल पहले हमने प्राइम टाइम में एक रिपोर्ट की थी कि उत्तर प्रदेश में 2018 में दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में 11 लाख छात्र हिन्दी पेपर में फेल कर गए थे.
20 जुलाई 2020 की यह खबर देखिए. अमर उजाला में छपी है. हेडलाइन भी दिलचस्प है. हिन्दी में डब्बा गोल देख चल जाता था सोंटा, यूपी के 10 वीं और 12 वीं की बोर्ड में परीक्षा में आठ लाख विद्यार्थी इस विषय में फेल. सोचिए यूपी में जहां कि बोल चाल की हिन्दी भी अच्छी मानी जाती है वहां बोर्ड की परीक्षा में हिन्दी विषय में 8 लाख छात्र फेल कर जा रहे हैं. अमर उजाला ने इस बारे में लिखा है कि राजकीय कालेजों में हिन्दी के 1300 शिक्षकों के पद खाली हैं. अमर उजाला की रिपोर्ट में लिखा है कि लखनऊ में 51 राजकीय कालेज हैं जहां हिन्दी शिक्षकों के 80 पद रिक्त हैं.उम्मीद है अब भर गए होंगे या भरे जाने वाले होंगे क्योंकि यह रिपोर्ट पुरानी है.
हाल ही में अमित शाह ने जब कहा कि पूर्वोत्तर में 22000 हिन्दी के शिक्षकों की नियुक्ति हुई तो हिन्दी सेवियों में उत्साह आ गया तब शायद उन्हें यूपी या किसी अन्य हिन्दी प्रदेश में देखना चाहिए कि लाखों की संख्या में हिन्दी में छात्र क्यों फेल कर रहे हैं, क्यों हिन्दी शिक्षकों के पद खाली हैं? हिन्दी की महिमा को लेकर हर दिन लेख छप रहे हैं आज भी हिन्दू में छपा है और 14 अप्रैल को इंडियन एक्सप्रेस में छपा है. लेकिन इस पर भी चिन्ता करनी चाहिए कि हिन्दी के सबसे बड़े प्रदेश यूपी में आठ लाख छात्र हिन्दी में क्यों फेल कर रहे हैं? इस साल जब यूपी में दसवीं और 12 वीं की बोर्ड परीक्षा शुरू हुई तब पहला पर्चा हिन्दी का था. चार लाख से अधिक छात्रों ने हिन्दी का पेपर नहीं दिया. टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर छपी है. चार लाख छात्रों के परीक्षा छोड़ने की खबर अमर उजाला में भी छपी है.
आखिर हिन्दी के पेपर छोड़ने वाले छात्रों की संख्या 4 लाख से अधिक क्यों है? मीडिया में छपी खबरों के मुताबिक अतिरिक्त मुख्य सचिव अराधना शुक्ला ने यूपी बोर्ड के सचिव से कहा है कि एक कमेटी बनाकर जांच करें कि क्यों परीक्षा छोड़ी. हिन्दी की चिन्ता कीजिए लेकिन हिन्दी के लिए न कि हिन्दी के नाम पर दूसरी भाषाओं में असुरक्षा पैदा करने के लिए.हिन्दी की पढ़ाई का स्तर ही गिरता जा रहा है और पढ़ाने वाले योग्य शिक्षक नहीं हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि लाउडस्पीकर लगाना ज़रूरी नहीं है. अलीगढ़ में युवा ये ज़रूरी काम कर रहे हैं. परीक्षा व्यवस्था में बदलाव ज़रूरी है. अगर इन सब काम को भी प्रैक्टिल मान कर नंबर दिए जाएं तो कोई छात्र हिन्दी में फेल नहीं करेगा.
हमारे युवा बहुत ज़रूरी काम कर रहे हैं. अगर वे यह काम न करें तो उनका ध्यान रोज़गार की तरफ जा सकता है जिसकी काफी कमी है. बस अफसोस इस बात का है कि इस काम में इंग्लिश मीडियम स्कूलों के युवा नहीं हैं. वे केवल अपने करियर की सोच रहे हैं. धर्म में भी कम शानदार करियर नहीं है. लेकिन लोग मेरी बात कहां मानते हैं. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के महेश व्यास ने लिखा है कि मार्च 2020 में श्रम शक्ति में 38 लाख की कमी आई है. काम नहीं मिलने के कारण काम मांगने वाले लोगों की संख्या में कमी आई है.7 अप्रैल को सरकार ने लोक सभा में बताया है कि चार साल में केंद्र के सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में नियमित कर्मचारियों की संख्या करीब 20 प्रतिशत कम हो गई है.
2017-18 में कर्मचारियों की संख्या 10.87 लाख , 2019-20 में 9 लाख 10 हज़ार हो गई और 2020-21 में 8 लाख 61 हज़ार हो गई.ये संख्या केवल सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की है लेकिन सरकार में काम करने वाले कुल कर्मचारियों की संख्या में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है. जैसा कि एक अन्य जवाब में सरकार ने बताया है केंद्र सरकार में ख़ाली पदों की संख्या 8 लाख 72 हज़ार है. प्रधानमंत्री ने सचिवों से कहा भी है कि इनकी भर्ती प्रक्रिया में तेज़ी लाई जाए.रवीश रंजन बागपत में हैं, जहां पर NBCC ने लोगों के लिए ऐसे घर बनाए हैं कि लोग बेघर महसूस कर रहे हैं.
लोगों ने रखरखाव के नाम पर लाखों रुपये दिए, ज़िला प्रशासन ने नोटिस भी दिया लेकिन इन सबसे कहां कुछ होता है. बिल्डर की शक्ति असीम है.बिल्डर भी क्रांतिकारी होते हैं. तभी तो उनकी क्रांति के आगे बेबस जनता बिना पानी के त्याग तपस्या करती रहती है. कभी इस अखबार में तो कभी उस अखबार में छप कर अपनी उम्मीदें ज़िंदा रखती है.इस रिपोर्ट को देखकर बिल्डर से परेशान कई लोग संपर्क करने लगेंगे. इस अंतहीन समस्या के समाधान की कोई व्यवस्था हमारे पास नहीं है और न ही हर समस्या को कवर करने के संसाधन. मन आध्यात्मिक कार्यों में लगाएं और ब्रेक ले लीजिए.