यह सही है कि इस साल जैसा ऑक्सीजन की सप्लाई का संकट पहले कभी नहीं हुआ लेकिन यह भी सही है कि इसी सरकार के कार्यकाल में भारत के तीन राज्यों में ऑक्सीजन का संकट हुआ था. हमने उन दुर्घटनाओं से क्या सिखा, ऑक्सीजन की सप्लाई चेन को पहले से कितना बेहतर बनाया यह सब पूछना बेकार है क्योंकि ढंग से एक जगह से कोई जवाब नहीं मिलता है. पिछली बार जब कोरोना की वैश्विक महामारी आई तब कई देशों में वेंटिलेटर की मांग बढ़ने लगी. वेंटिलेटर का हिसाब इस तरह से लगाया जाने लगा कि कार कंपनियां भी वेंटिलेटर बनाने लगीं. अब कोई भी इस बात को समझ सकता है कि जब वेंटिलेटर लगेगा तो ऑक्सीजन की सप्लाई भी करनी होगी. और तब ऑक्सीजन की मांग बढ़ेगी. तब जवाब तो देना चाहिए कि उस समय जो भी हिसाब किया गया होगा उसके आधार पर आक्सीजन की सप्लाई चेन को ठीक करने का क्या बंदोबस्त किया गया. हम बार बार नहीं बताना चाहते कि बांबे हाई कोर्ट के औरंगाबाद बेंच ने अपने आदेश में कहा है कि पीएम केयर्स के तहत खराब वेंटिेलेटर की सप्लाई हुई है और अगर इससे किसी की जान जाती है तो ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की है. एक बार बताऊं या सौ बार बताऊं खराब वेंटिलेटर से संबंधित किसी रिपोर्टर पर किसी कार्रवाई की ख़बर नहीं आती.
आपको याद तो होगा ही कि 9 अगस्त 2017 को गोरखपुर के BRD मेडिकल कालेज में ऑक्सीजन खत्म हो जाने से 60 बच्चों की मौत हो गई थी. उस वक्त योगी सरकार ने इस बात से इंकार किया था कि ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की मौत हुई है. बच्चों की मौत हुई लेकिन ऑक्सीजन की कमी से नहीं हुई. सरकार का यह कहना था. दि वायर की अनु भुइयां ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि इस घटना के एक साल बाद मौत को लेकर सहमति नहीं बन सकी लेकिन इसे लेकर कोई विवाद नहीं कि 10 अगस्त से 13 अगस्त के बीच अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी हो गई थी. सरकारी शब्दावली में ऑक्सीजन की आपूर्ति में बाधा का प्रयोग हुआ. वायर ने अपनी खोजी रिपोर्ट में पाया था कि अस्पताल और यूपी सरकार को तीस पत्र लिखे गए थे कि महीनों से बजट क्लियर नहीं हुआ है और ऑक्सीजन की आपूर्ति करने वाले का बकाया 63 लाख हो गया है. इसी घटना ने डॉ कफील खान की ज़िंदगी बदल दी. ऑक्सीजन सिलेंडर लेकर पहुंचने वाले डॉ कफिल ख़ान पहले हीरो की तरह देखे गए और फिर सरकारी कार्रवाई की चपेट में आ गए. ये कहानी फिर कभी. लेकिन इस घटना की मिसाल इसलिए दी कि अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी कई कारणों से हो सकती है.
सरकार ने खंडन और सफाई से ख़ुद को मुक्त कर लिया लेकिन यह घटना काफी थी कि देश भर के अस्पतालों में ऑक्सीजन की सप्लाई की व्यवस्था के बारे में नए सिरे से सोचा जाना चाहिए था. सप्लाई के नाम पर ठेकेदारों के नेटवर्क की जगह अस्पतालों में ही ऑक्सीजन की सप्लाई का इंतज़ाम शुरू हो जाना चाहिए था.
2017 के जून में ही इंदौर के महाराजा यशवंतराव अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से 17 लोगों की मौत हो गई थी. जिसके बारे में डाउन टू अर्थ ने रिपोर्ट किया था. अगस्त 2017 में ही रायपुर के बी आर अंबेडकर अस्पताल में ऑक्सीजन का दबाव कम होने से तीन बच्चे मर गए थे.
इन उदाहरणों से इतना ही समझें कि 2017 के साल में ऑक्सीजन की आपूर्ति को लेकर कई बड़ी घटनाएं हुई तो फिर हमने ऑक्सीजन की सप्लाई व्यवस्था में क्या बदलाव किए? स्थानीय स्तर पर अस्पतालों में ऑक्सीजन के उत्पादन की व्यवस्था सुनिश्चित नहीं की. सितंबर 2020 में भी जब कोरोना का केस इस साल के अप्रैल और मई जैसा नहीं था तब कई राज्यों से ऑक्सीजन के संकट की खबर आई थी. NDTV की ही रिपोर्ट है. सितंबर 2020 में महाराष्ट्र IMA के अध्यक्ष डॉक्टर अविनाश भोंडवे ने कहा है कि इस वक्त मांग के हिसाब से ऑक्सीजन का उत्पादन कम है.
महाराष्ट्र IMA के अध्यक्ष अविनाश कह रहे हैं कि ऑक्सीजन के ट्रांसपोर्ट की दिक्कत है. बता रहे हैं कि ऑक्सीजन 100 गुना ज्यादा दाम पर मिल रहा है. कालाबाज़ारी चल रही थी. ऑक्सीजन सिलेंडर 50,000 रुपये के मिल रहे थे. हम आगे फिर से डॉ अविनाश से बात करेंगे लेकिन पहले बताना चाहते हैं कि उस वक्त कर्नाटक, यूपी, राजस्थान, मध्य प्रदेश से खबरें आने लगी थीं कि ऑक्सीजन का संकट है. यह तब की बात है कि जब 9 लाख सक्रिय मामले थे. किसी को सोचना चाहिए था कि इससे अधिक केस आ गए तो संकट कितना गहरा होगा जैसे कि इस साल अप्रैल में 28 लाख सक्रिय मामलों की संख्या थी.
अमर उजाला, पत्रिका, नवभारत टाइम्स, टाइम्स आफ इंडिया की ये खबरें पिछले साल सितंबर महीने की हैं. राजस्थान में अशोक गहलोत ने ऑक्सीजन की कमी होने से दूसरे राज्यों की सप्लाई पर रोक लगा दी थी. तब राजस्थान में एक लाख केस आए थे. राजस्थान के कई ज़िलों में ऑक्सीजन की कमी होने लगी थी. यूपी से खबर छपती है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सक्रिय हो गए हैं और ऑक्सीजन की कमी को देखते हुए मुरादाबाद से आपात स्थिति में लखनऊ, कानपुर, अलीगढ़ जैसे शहरों में ऑक्सीजन भेजा गया है. यही नहीं मुरादाबाद के भी 9 अस्पतालों को लिए ऑक्सीजन की सप्लाई का कोटा तय किया गया था. सितंबर महीने में ही कर्नाटक के उद्योग प्रधान सचिव गौरव गुप्ता का बयान छपा है कि राज्य में हर दिन ऑक्सीजन की मांग चार गुना बढ़ गई है. सरकार ने आदेश दिया है कि इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन का इस्तेमाल कम किया जाए और बचे हुए हिस्से को अस्पतालो को दिया जाए. सितंबर में बेंगलुरु के एक निजी अस्पताल ने अचानक सप्लाई कम हो जाने की शिकायत की थी. 13 सितंबर के पत्रिका में शिवराज सिंह का बयान छपा था कि मध्य प्रदेश में ऑक्सीजन की कमी नहीं होने देंगे.
क्या अब भी कोई कहेगा कि इस बार अप्रैल में लोगों का ऑक्सीजन की कमी से जो नरसंहार हुआ वह इसलिए हुआ क्योंकि ऑक्सीजन की कमी का ऐसा संकट अकल्पनीय था और ऐतिहासिक था? सिंतबर महीने में ही इस संकट की झलक मिल गई थी जब ऑक्सीजन की सप्लाई की कमी के सवाल बार बार उठ रहे थे और सरकार की तरफ से जवाब भी दिया जा रहा था कि कोई कमी नहीं है.
22 सितंबर 2020 की ANI की ख़बर है. स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण का बयान है कि कोविड के मरीज़ों के इलाज के लिए ऑक्सिजन की सप्लाई की कोई कमी नहीं है. “देश में जो ऑक्सिजन कि कुल उत्पादन होती है और जो कुल खपत है, जिसमें इंडस्ट्रीयल और मेडिकल ऑक्सिजन की खपत दोनो शामिल हैं, उसके बावजूद sufficient headroom है.” - 22 सितंबर 2020
अगर राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री ऑक्सीजन के संकट को अकल्पनीय न कहते तो हम भी इतनी मेहनत नहीं करते. अकल्पनीय का मतलब होता है जिसकी कल्पना न की जा सकी हो. हम बता रहे हैं कि कल्पना करने की ज़रूरत ही नहीं थी. ऑक्सीजन का संकट आएगा यह साफ-साफ दिख रहा था. आपने 2017 और 2020 के कई प्रसंगों से देखा कि भारत में ऑक्सीजन की सप्लाई का संकट कोरोना से पहले भी आया था और कोरोना के बाद भी आया. राष्ट्र के नाम संदेश पर फैक्ट चेक करते करते यह तीसरा प्रोग्राम बन गया है. अच्छा नहीं लगता है, जब डिबेट शो के सारे एंकर दो दो गेस्ट बिठाकर दस मिनट में अपना काम निबटा कर मौज कर रहे हों तो हम तीन दिन से एक ही भाषण को लेकर रिसर्च कर रहे हैं. प्रधानमंत्री तीनों एपिसोड देख लें तो उन्हें भी हंसी आने लग जाए कि ये बंदा इतना सीरियस क्यों हो रहा है. आप यह न सोचें कि हमारे नेता केवल नाराज़ ही होते हैं. कभी कभी लाइट मूड में भी होते हैं.
“सेकेंड वेव के दौरान अप्रैल और मई के महीने में भारत में मेडिकल ऑक्सीजन की डिमांड अकल्पनीय रूप से बढ़ गई थी. भारत के इतिहास में कभी भी इतनी मात्रा में मेडिकल ऑक्सीजन की जरूरत कभी भी महसूस नहीं की गई. इस जरूरत को पूरा करने के लिए युद्धस्तर पर काम किया गया. सरकार के सभी तंत्र लगे. ऑक्सीजन रेल चलाई गई, एयरफोर्स के विमानों को लगाया गया, नौसेना को लगाया गया.”
एयर फोर्स और नौसेना के जुट जाने से यह सवाल पीछे नहीं हट जाता है. अच्छा होता कि प्रधानमंत्री सितंबर में आए संकट की बात विस्तार से करते. बताते कि जब प्रधानमंत्री खुद पिछले साल सितंबर से ऑक्सीजन संकट से जुड़ी बातों को लेकर संपर्क में थे तब इस बार उनकी तैयारी इतनी ख़राब क्यों साबित हुई? 15 अप्रैल 2021 को PIB ने एक प्रेस रिलीज में बताया कि PMO के तहत बने “Empowered group 2 ने गृह मंत्रालय को पीएसए प्लांट्स स्थापित करने की मंजूरी देने पर विचार करने के लिए दूर-दराज के क्षेत्रों में 100 अन्य अस्पतालों की पहचान करने का निर्देश दिया है.” 11 मई 2021 को PIB की एक और रिलीज़ आती है. इसके अनुसार कैबिनेट सचिव राजीव गौबा बताते हैं कि पिछले साल सितंबर से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तरल आक्सीजन की आपूर्ति और उत्पादन को लेकर स्वदेशी उद्योगों के साथ संपर्क में थे. इसके परिवहन को लेकर कई तरह की दिक्कतों को दूर करने में मदद की. सितंबर महीने में कोरोना के केस बढ़ने के कारण लिक्विड ऑक्सीजन को लेकर संकट हुआ था और हमने उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर दिया था.
क्या सितंबर में प्रधानमंत्री या सरकार की किसी संस्था को बिल्कुल अंदाज़ा नहीं हुआ कि इससे अधिक केस आ गए तब क्या होगा? कोरोना के आते ही पहले दिन से यह बात हो रही है कि एक को संक्रमण होता है तो कई लोगों को होता है. उसी आधार पर इससे लड़ने की सारी योजनाएं बनी हैं. ये आधार वैज्ञानिक हैं न कि कल्पनीय और अकल्पनीय. तो जब सितंबर से PMO की कमेटी ऑक्सीजन की सप्लाई देख रही थी तो इस बार संकट आने के बाद सरकार हरकत में क्यों आई?
23 अप्रैल का दिन दिल्ली के अस्पतालों में नरसंहार का दिन था जिस दिन दिल्ली के कई अस्पतालों में ऑक्सीजन की सप्लाई रुक जाने के कारण वहां भर्ती मरीज़ों के मर जाने की खबर आई थी. गंगाराम अस्पताल में ऑक्सीजन की सप्लाई की कमी से 25 मरीज़ मर गए. 23 अप्रैल को ही दिल्ली के जयपुर गोल्डन अस्पताल में 25 मरीज़ों की मौत हो जाती है. 24 घंटे के भीतर 50 लोगों की ऑक्सिजन की कमी के कारण मौत हो गई. एक हफ़्ते बाद दिल्ली के बत्रा अस्पताल में ऑक्सीजन की सप्लाई कम होती है और वहां भर्ती 12 मरीज़ की मौत हो जाती है. इनमें से छह मरीज़ ICU में भर्ती थे. उसी अस्पताल के एक विभाग के प्रमुख डॉ आर के हिमथानी की मौत हो जाती है. ऑक्सीजन की सप्लाई की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पास थी तो दिल्ली के इन तीन अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से हुई 62 लोगों की मौत की ज़िम्मेदारी किसकी होगी?
महाराष्ट्र IMA के अध्यक्ष डॉ अविनाश को सुनिए. पिछले साल सितंबर में भी इन्होंने खतरे की घंटी बजा दी थी. डॉ अविनाश का अंदाज़ा है कि अगर सप्लाई होती तो राज्य में 25 प्रतिशत मरीज़ों को बचाया जा सकता था. महाराषट्र में करीब 49,000 लोगों की मौत हुई. इस हिसाब से 12250 लोगों को बचाया जा सकता था.
ऑक्सीजन की सप्लाई सुनिश्चित करने को लेकर कब सरकार सोती रही और कब जागती रही यह पता करना मुश्किल है. इस मामले में इतनी कमेटियों की खबरें मिलेंगी कि आप कंफ्यूज़ हो जाएंगे. तय करना मुश्किल है कि ये कमेटियां जवाबदेही के सवाल को कंफ्यूज़ करने के लिए बनाई जाती हैं या काम करने के लिए.
23 अप्रैल को हरकिशन शर्मा इंडियन एक्स्प्रेस में रिपोर्ट में लिखते हैं कि अप्रैल 2020 में ही EG6 यानी एम्पावर्ड ग्रुप का गठन किया गया था. इस ग्रुप की बैठकों के मिनट्स के आधार पर हरकिशन शर्मा रिपोर्ट लिख रहे हैं कि अप्रैल 2020 की बैठक में ही चेतावनी दे दी गई थी कि आने वाले दिनों में भारत को ऑक्सीजन की कमी का सामना करना पड़ सकता है. इस का मुकाबला करने के लिए CII, इंडियन गैस एसोसिएशन, डिपार्टमेंट फार प्रमोशन आफ इंडस्ट्री एंड ट्रेड DPIIT को मिलकर काम करने के लिए कहा गया था. इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर ने लिखा है कि जब CII और DPIIT से प्रतिक्रिया जाननी चाहिए तो कोई जवाब नहीं आया.
यही होता है. सवाल का जवाब नहीं दिया जाता है. बहरहाल इस रिपोर्ट से आप जानते हैं कि ऑक्सीजन के संकट की चेतावनी अप्रैल 2020 में दी गई थी और सितंबर 2020 में संकट आया भी था. फिर हमने क्या किया? 25 नवंबर को राम गोपाल यादव की अध्यक्षता में स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट लोकसभा और राज्यसभा में पेश की जाती है जिसमें कहा जाता है कि ऑक्सीजन की सप्लाई व्यवस्था को ठीक करना होगा. अस्पतालों में बेड और वेंटिलेटर की व्यवस्था ठीक नहीं है. अब नवंबर आ चुका है. इसके बाद भी सरकार तैयारी का दावा करती है.
सरकार को बताना चाहिए कि ऑक्सीजन की कमी के कारण अस्पतालों में कितने लोग मर गए. सरकार यह आंकड़ा भी नहीं बताती है और अपनी ग़लती के लिए इन परिवारों को पांच करोड़ का मुआवज़ा भी नहीं देती. लोगों के घर बर्बाद हो गए होंगे. वे अपना संदेश लेकर किस राष्ट्र के पास जाएं. बता दीजिए.
इनके सवालों का जवाब कौन देगा. सरकार अगर काम कर रही होती तो 9 मई को सुप्रीम कोर्ट को नेशनल टास्क फोर्स नहीं बनाना पड़ता. ऐसी रिपोर्ट हिन्दी के अखबारों और चैनलों से गायब ही रहती है ताकि देश की बड़ी आबादी जवाबदेही के सवालों तक पहुंच ही न सके. 6 मई को स्क्रोल में मनु कौशिक की यह रिपोर्ट आप विस्तार से पढ़ सकते हैं. जिसमें बताया जाता है कि सितंबर के संकट के बाद, अक्टूबर में टेंडर निकाला गया कि 162 ऑक्सिजन प्लांट बनाए जाएंगे जिनसे ऑक्सीजन की सप्लाई हो सकेगी. स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार यह प्लांट मई 2021 के अंत तक बन जाएंगे. 18 अप्रैल की रिपोर्ट में अरुणाभ सैकिया और विजेता ललवानी ने लिखा है कि उन्होंने 14 राज्यों के 60 अस्पतालों को फोन किया कि प्लांट का क्या हुआ. केवल 11 जगहों पर प्लांट स्थापित हुआ था और उसमें से भी 5 ही चालू हो सके थे.
स्क्रोल की ऑक्सिजन प्लांट की खोजी रिपोर्ट के छपने के दो घंटे बाद 18 अप्रैल को ही स्वास्थ्य मंत्रालय एक ट्वीट करता है और कहता है कि 162 में से 33 प्लांट लगाए जा चुके हैं. और बाकी सभी प्लांट इस साल मई तक लग जाएंगे. सोचिए पिछले साल अक्टूबर में फैसला होता है कि 162 प्लांट लगेंगे और मार्च तक 6 महीने बीत जाने के बाद भी 33 प्लांट ही लग पाते हैं. ये थी हमारी तैयारी.
मेरठ के लाला लाजपत राइ मेमोरियल मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन प्लांट लगाया जाना था. अप्रैल महीने में स्क्रोल से बात करते हुए मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल ज्ञानेंद्र कुमार ने कहा कि प्लांट के लिए जमीन दी जा चुकी है लेकिन मशीन नहीं पहुंची है. कंपनी ने कोई जवाब नहीं दिया है. आज हमारे सहयोगी सनुज कुमार को प्रिंसिपल ज्ञानेंद्र कुमार ने बताया कि ऑक्सीजन जनरेटर प्लांट लगाने का प्रस्ताव पिछले साल अक्टूबर-नवंबर में भेजा गया था. सिविल वर्क शुरू हो चुका है और 20 जून तक काम पूरा हो जाएगा. 30 जून तक प्लांट काम करना शुरू करेगा. जब हमारे सहयोगी सनुज शर्मा ने मेडिकल कॉलेज के इमरजेंसी के पीछे जाकर देखा तो वहां कोई सिविल वर्क शुरू नही हुआ है. हां भूमि पूजन जरूर किया गया और चार ईंटें नज़र आती हैं. आज 9 जून है. आखिर कैसे 20 जून तक सिविल वर्क पूरा होगा और कैसे 30 जून तक ऑक्सीजन जनरेशन प्लांट शुरू होगा.
स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा था कि ये सारे प्लांट मई के अंत तक बन कर तैयार हो जाएंगे, मई निकल गया और अभी भूमिपूजन ही हुआ है. हम तीस जून को भी चेक करेंगे कि प्लांट शुरू होता है या नहीं. दूसरी लहर के बीच मध्य प्रदेश में कई जगहों पर प्लांट लगाने का एलान हो गया. इंदौर में अभी तक काम शुरू नहीं हुआ है जबकि दावा किया गया था कि 7 दिन में प्लांट शुरू हो जाएगा. यह तो हाल है. जिस इंदौर में तीस प्लांट बनाए जाने थे एक भी शुरू नहीं हुआ है बनना तो दूर की बात.
हेमंत शर्मा ने बताया कि राधा स्वामी सत्संग परिसर एमआरटीवी अस्पताल और चेस्ट सेंटर में ऑक्सीजन प्लांट की स्वीकृति दी गई थी. राधा स्वामी सत्संग परिसर में बनने वाले ऑक्सीजन प्लांट के लिए इंदौर के लोगों ने करीब सवा दो करोड़ रुपए का दान भी दिया था लेकिन जिस प्लांट को सात दिन में बनना था, उसका काम शुरू तक नहीं हुआ है. 1 महीने से ज्यादा समय बीत चुका है. यही स्थिति एमआरटीवी अस्पताल के प्लांट की है जहां सिर्फ एक छोटा सा चबूतरा बना है. धीमे स्तर पर काम होने से ही संकट के समय युद्ध स्तर पर काम करना पड़ता है.
मेरठ में प्लांट बन रहा है और इंदौर में कुछ नहीं हुआ है. युद्ध स्तर की तैयारी का यह हाल है. महाराष्ट्र के उस्मानाबाद ज़िले की एक कहानी बताता हूं. यहां सितंबर-अक्तूबर में भी ऑक्सीजन की कमी नहीं थी. 10 मेट्रिक टन की सप्लाई काफ़ी थी. इसके बाद भी ज़िला प्रशासन ने संकट का अंदाज़ा लगा लिया कि अगर दूसरी लहर आई तो ऑक्सीजन की मांग बढ़ सकती है. ज़िलाधिकारी कौस्तुव दिवेगांवकर ने नंबवर दिसंबर से ही इसकी तैयारी शुरू कर दी थी. ज़िला योजना फंड से 10 मिट्रिक टन ऑक्सीजन पैदा करने के प्लांट का आदेश दे दिया गया ताकि ऑक्सिजन सप्लाई दुगनी हो जाए. चार पांच महीने लगे थे इस प्लांट को बनने में. जब तक दूसरी लहर आती यह प्लांट बनकर तैयार हो चुका था. प्रशासन का डर सही निकला. अप्रैल में हर दिन 19 मिट्रिक टन ऑक्सीजन की मांग हो गई थी लेकिन इस प्लांट के कारण सप्लाई में संकट नहीं आया. ज़िला प्रशासन ने जान लिया कि 20 मिट्रिक टन भी काफी नहीं है. इसलिए अतिरिकित 20 मिट्रिक टन ऑक्सीजन पैदा करने की क्षमता के लिए टेंडर जारी हो गया है. इन तैयारियों के कारण उस्मानाबाद में जहां पहली लहर में मृत्यु दर 3.4 प्रतिशत थी, दूसरी लहर में क़रीब आधी हो गई. 1.9 प्रतिशत. फर्क यही था कि कोई भाषण लिख रहा था, तो कोई काम कर रहा था.
ऐसा नहीं था कि भारत में किसी को एहसास नहीं था कि दूसरी लहर आई तो क्या होने वाला है. इसके बाद भी सरकार चूक गई. पिछले साल दुनिया भर से भी ऐसी खबरें आ रही थी कि कोरोना के मरीज़ बढ़ने से आक्सीजन की सप्लाई कम हो जाती है. सरकार उन खबरों को देखकर भी हरकत में आ सकती थी.
इतने सारे टास्क फोर्स बने हैं इन्हीं में से किसी को ग्लोबल पेपर पढ़ने का टास्क दे दिया जाता पता चलता कि लंदन, पेरु, दक्षिण अफ्रीका, इटली और स्पेन जैसे कई देशों में पिछले साल अप्रैल, मई, जून, जुलाई में ही भयंकर संकट आया था. अप्रैल 2020 में ही लंदन के अस्पताल में कोविड के अधिक मरीज़ों के कारण ऑक्सीजन की कमी हो गई थी. इस घटना के बाद नेशनल हेल्थ सर्विस के अधिकारियों ने अपने सभी अस्पतालों को सतर्क करना शुरू कर दिया था. पेरु में ऑक्सीजन की कमी से लोग गलियों में मरने लगे थे. ब्लैक में ऑक्सीजन खरीदने लगे थे. दक्षिण इटली की स्थिति बहुत खराब हो गई थी. अस्पताल के बाहर एम्बुलेंस की भीड़ लग गई. ऑक्सीजन के लिए मरीज तड़प रहे हैं. मरीज खुद कार में ऑक्सीजन के लिए पहुंच रहे थे. ऐसा ही तो भारत में हुआ. जुलाई 2020 में दक्षिण अफ्रीका में ऑक्सीजन की कमी हो गई थी. दिसंबर में भी South African Medical Association ने फिर से ऑक्सीजन संकट की बात कही थी. Dr Andrea Mendelsohn, ने केप टाउन के नागरिकों को एक पत्र लिख कर बताया था कि हम तेज़ी से ऑक्सीजन संकट की तरफ बढ़ रहे हैं. मेरा अस्पताल और दूसरों का अस्पताल आपकी कोई मदद नहीं कर पाएगा. अस्पताल केवल लाशों की सफाई के स्टेशन बन कर रह जाएंगे. हमारे और आपके लिए यह एक डरावने सपने जैसा होगा.
कोरोना के मरीज़ बढ़ेंगे तो वेंटिलेटर से लेकर ऑक्सीजन की मांग बढ़ेगी. इसका पता दुनिया को पिछले साल ही चल गया था. 25 जून 2020 को WHO ने चेतावनी दी थी कि दुनिया भर में ऑक्सीजन उपकरणों की कमी हो सकती है. हमारा बस इतना ही कहना है कि प्रधानमंत्री जी भारत में जो ऑक्सीजन का संकट हुआ है वह न तो ऐतिहासिक था और न अकल्पनीय था. वह संकट सरकार की ऐतिहासिक और अकल्पनीय लापरवाही के कारण था.