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This Article is From Jan 12, 2015

शरद शर्मा की खरी खरी : बदले-बदले से केजरीवाल

Sharad Sharma, Saad Bin Omer
  • Blogs,
  • Updated:
    जनवरी 13, 2015 18:42 pm IST
    • Published On जनवरी 12, 2015 23:43 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 13, 2015 18:42 pm IST

इस बार के दिल्ली चुनाव में केवल एक ही नाम है जो सीएम उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया है और वह है दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जो आम आदमी पार्टी के सीएम उम्मीदवार हैं। बीजेपी अपना सीएम उम्मीदवार नहीं घोषित करेगी, क्योंकि पार्टी अब इस रणनीति के तहत तीन राज्यों में अपना मुख्यमंत्री बना चुकी है और कांग्रेस वैसे तो रेस से ही बाहर है। साथ ही कांग्रेस में सीएम उम्मीदवार घोषित करने की परंपरा ही नहीं है, इसलिए कायदे से तो दिल्ली चुनाव का एक ही चेहरा हैं और वह हैं अरविंद केजरीवाल।

इससे पहले कि मैं बताऊं कि कैसे इस बार मुझे अरविंद केजरीवाल बदले-बदले से नज़र आते हैं थोड़ा अपने बारे में बता देता हूं।

अरविंद केजरीवाल को मैं मंगलवार, 5 अप्रैल 2011 से लगातार कवर कर रहा हूं जब वे लोकपाल का आंदोलन करने के लिए जंतर मंतर पर अन्ना हज़ारे के साथ आए थे। मैंने रामलीला मैदान का वह लम्हा भी देखा जब केंद्र सरकार घुटने पर आ गई थी। मैंने मुंबई का अन्ना हज़ारे का नाकाम हुआ अनशन भी देखा, जिसके बाद पूरे लोकपाल आंदोलन पर सवाल खड़े हो गए थे। मैंने देखा कि कैसे राजनीति में आने से पहले केजरीवाल हिसार में जाकर कांग्रेस को वोट ना देने की अपील करके आए। कैसे केजरीवाल अनशन पर बैठे तो एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर..... और एक नेता बनकर और एक राजनैतिक पार्टी बनाकर जंतर मंतर से निकले।

मेरी ही आंखों के सामने ये पार्टी बनी... सारा संघर्ष भी मैंने देखा... 8 दिसंबर को पार्टी ने सबको चौंकाया था तब भी... केजरीवाल देखते ही देखते मुख्यमंत्री बन गए तब भी... केजरीवाल ने इस्तीफ़ा दिया तब भी... पीएम मोदी से भिड़ने गए तब भी... लोकसभा में बुरा प्रदर्शन किया तब भी... सब मैंने अपनी आंखों से देखा और दुनिया को दिखाया... इन सबके दौरान केजरीवाल से लगातार मेरा संवाद भी चलता रहा है।

केजरीवाल की सैकड़ों जनसभाएं मैंने अब तक कवर की हैं और अब  मुझे केजरीवाल बदले-बदले से नज़र आ रहे हैं।

साल 2014 में केजरीवाल अपनी जनसभा में नकारात्मक प्रचार करते नज़र आते थे, लेकिन अब उनका स्टाइल बदल चुका है। साल 2014 में उनका सीधा हमला पीएम नरेंद्र मोदी पर होता था, वह लोगों को बताते थे कि किसी सूरत में मोदी जी को वोट मत देना वरना जाने क्या-क्या हो जाएगा... गैस महंगी हो जाएगी, महंगाई बढ़ जाएगी, वगैरह-वगैरह... लेकिन अब उनकी जनसभा में वह पीएम मोदी पर हमला तो दूर की बात है वह उनका नाम तक नहीं लेते... हां हमले ज़रूर करते हैं लेकिन बीजेपी की केंद्र सरकार पर नरेंद मोदी पर नहीं।

बल्कि मैं तो यह कहूंगा कि लोकसभा चुनाव में जैसे मोदी या बीजेपी प्रचार कर रही थी, इस बार केजरीवाल और आप वैसा प्रचार कर रही है... केवल अपनी 49 दिन की सरकार की वाहवाही और अगर सरकार बनी तो क्या करेंगे ये सब बताया जा रहा है, जबकि पीएम मोदी की रैली में बीजेपी के सभी नेता और खुद पीएम नरेंद्र मोदी ने उस तरह हमले किए जैसे पिछली बार केजरीवाल और आप करती थी।

लोकसभा चुनाव में प्रचार करते वक्त केजरीवाल के निशाने पर मीडिया खूब रहा करता था... एक कार्यक्रम में तो उन्होंने यह तक कह दिया था कि इन मीडियावालों को जेल में डालेंगे, जिस पर बहुत विवाद हुआ लेकिन पार्टी ने चार न्यूज चैनलों का नाम लेकर कह दिया कि ये बिके हुए हैं और पेड न्यूज़ दिखा रहे हैं...

लेकिन अब केजरीवाल मीडिया पर हमला अपने अलग अंदाज़ में करते हैं जैसे कि वह कहते, 'जब मैंने कहा कि मैं बिजली के रेट आधे कर दूंगा तो इन मीडियावालों ने मेरा बड़ा मज़ाक उड़ाया था' यह सुनकर पब्लिक हंसती है और ताली बजाती है... केजरीवाल कहते हैं, 'अगर मैं गुजरात की सीएम आनंदीबेन पटेल की तरह 100 करोड़ रुपये का हेलीकॉप्टर ले लेता सीएम बनकर तो मीडिया वाले कहते कि वेरी गुड चीफ़ मीनिस्टर वेरी प्रोग्रेसिव चीफ़ मिनिस्टर'... यह सुनकर पब्लिक फिर हंसती है और ताली बजाती है और भीड़ में कवर कर रहे मीडियावालों की तरफ देखती हैं।

यह केजरीवाल का नया अंदाज़ है, जिसमें वह मीडिया के प्रति जो उनके दिल का दर्द है वह बाहर निकालते हैं... पब्लिक की सहानुभूति लेते हैं और असल में मीडिया को कुछ कहते भी नहीं।

लोकसभा चुनाव के वक्त भाषण देते वक्त वह खासे आक्रामक रहते थे, लेकिन आज एक दम आराम से अपनी बात कहते हैं। केजरीवाल पिछले विधानसभा चुनाव में लोगों को अपनी बाते गंभीरता से समझाने में लगे रहते थे, जैसे कि कांग्रेस सरकार ने कैसे भ्रष्टाचार करके जनता को लूटा या वह कैसे अपनी नौकरी छोड़कर राजनीति में आए लेकिन इस बार वह गंभीरता के साथ बीच-बीच लोगों को हंसाते भी हैं। जैसे कि वह महंगाई के मुद्दे पर कहते हैं कि मेरे सीएम रहते आलू इतने रुपये किलो थे और आज इतने गुना महंगा हो गया और फिर वह अपने अंदाज़ में कहते हैं कि बताओ इन बीजेपी वालों से आलू तक नहीं संभला... जनता खूब हंसती है।

केजरीवाल सीधी सी भाषा में जनता को वह बोलते हैं जो उसकी रोज़मर्रा की समस्या है और जनता आसानी से समझ सकती है।
केजरीवाल भ्रष्टाचार की बात करते हैं, लेकिन लोकपाल की नहीं जबकि केजरीवाल ने तो इस्तीफा ही इसी मुद्दे पर दिया था। शायद वह मानते हैं कि पब्लिक लोकपाल से उतना अच्छा कनेक्ट नहीं करती, जितना छोटे छोटे भ्रष्टाचार के मामलों से और पुलिस की हफ्ता वसूली से। हालांकि लोकपाल का मुद्दा अभी केजरीवाल और आप की बातों में दिख नहीं रहा लेकिन पार्टी कह रही है कि उस पर चर्चा आगे होगी।

पहले केजरीवाल जनता को डंके की चोट पर सीना ठोक कर कहते थे कि हां मैंने इस्तीफा दिया अपने उसूलों और आदर्शों पर दिया, लेकिन अब वह साफ़ साफ़ कहते हैं, 'मैने इस्तीफ़ा दिया मेरी गलती थी और एक बात तो मैंने राजनीति में सीख ली है....कुछ भी हो जाए इस्तीफ़ा मत दो'

केजरीवाल के बोलने का अंदाज़ ऐसा होता है कि जनता इस पर खुश होकर ताली बजाती है। केजरीवाल फिर कहते हैं कि पहले बहुमत नहीं था कुछ कमी रह गई थी, लेकिन अबकी बार बहुमत दो पांच साल तक काम करके दिखाएंगे।

केजरीवाल अब इमोशनल भी करते हैं और लोगों से कहते हैं, 'कांग्रेस का समर्थन लेकर सरकार मैं कैसे चला रहा था ये मेरा दिल ही जानता है' केजरीवाल फिर एक पंच मारकर कहते हैं कि 'इस्तीफा ही दिया ना कोई चोरी तो नहीं की'। जनता इस बात पर भी खूब ताली बजाती दिखती है।

केजरीवाल का अंदाज़ बदला है, लेकिन तेवर नहीं। केजरीवाल के मफलर पहनने पर विरोधियों उनका खूब मज़ाक उड़ाया, सोशल मीडिया पर चुटकुले भी चले, लेकिन आप इसका जवाब ट्विटर पर लंबे समय तक मफ़लरमैन शब्द को ट्रैंड कराकर विरोधियों को जवाब दिया। साथ ही केजरीवाल पहले जहां एक ही मफलर पहनते थे वहीं वह दो मफलर पहनते हैं और अब तो बिना मफ़लर वह पब्लिक के सामने आते ही नहीं।

खुद मैंने उनको हाल ही में कहा कि अगर वे इस तरह मफ़लर ना पहने, इससे वह सीरियस से नहीं लगते। इस पर वह बोले जनता ऐसा नहीं समझती... और यह कहकर हंसते हुए चले गए।

यह एक तरह का आत्मविश्वास दिखाता है वर्ना मेरे जैसा पुराना पार्टी कवर करने वाला रिपोर्टर इस तरह कहे तो कोई भी नेता एक बार सोचेगा ज़रूर... वैसे केजरीवाल को यह पहले से समस्या है कि डायबटीज़ होने की वजह से सर्दियों में एक बार खांसी और गला बैठना शुरू होता है तो वह पूरी सर्दी चलता है।

इस घटना का जिक्र मैंने इसलिए किया, क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद जब मैं अरविंद केजरीवाल से एक दिन मिला तो मैं उनको उनकी गलतियां बताने लगा कि आपको ये चीज़ नहीं करनी चाहिए थी या वह करनी चाहिए थी। (हम पत्रकारों के पास हर किसी के लिए सलाह होती है और मार्गदर्शन रहता है)

तो जब मैं अरविंद को बता रहा था, अरविंद सब सुनकर मान रहे थे। मैं यह देखकर हैरान था कि इस शख्स ने एक समय में बड़े धुरंदरों को हवा में उड़ा दिया था और वह आज ऐसे मेरी हर बात सुन रहा है। आत्मविश्वास नाम की कोई चीज़ ना थी, लेकिन देखिए अरविंद उस दिन से भी आजतक कुछ नहीं जीते मतलब कोई चुनाव नहीं जीते लेकिन आत्मविश्वास देखकर बॉडी लैंग्वेज देखकर अंतर नज़र आता है।

एक और उदाहरण देकर अपनी बात खत्म करता हूं। जब अरविंद केजरीवाल दिल्ली के सीएम नॉमिनेट होकर उपराज्यपाल से मिलकर आ रहे थे तो मैं उनका एक इंटरव्यू करने के लिए उनसे मिला... अरविंद पर पहली नज़र पड़ी को देखा अरविंद के चेहरे पर किसी तरह खुशी नहीं दिखी, बल्कि ऐसा लग रहा था जाने उन्हें कोई जबरन सीएम बना रहा हो। यानी कि कोई खुशी जो कि इतनी आश्चर्यजनक जीत के बाद मिली हो और सीएम की कुर्सी का कोई खास इंटरेस्ट या मोह उनके मन में नहीं दिखा।

मैंने सोचा लोग जाने कब से सीएम बनने के लिए क्या क्या तिकड़म करके भी जिंदगी भर सीएम नहीं बन पाते और ये हैं कि... मैं बधाई दे रहा था और वह धन्यवाद भी करने के मूड में नहीं दिख रहे थे।

लेकिन अब देखिए मुख्यमंत्री बनने के लिए वह अपनी जान दांव पर लगाए हुए हैं... चुनाव का एलान तो 12 जनवरी को हुआ है लेकिन दो महीने पहले से चुनाव प्रचार तक रहे हैं। दिल्ली की सारी सड़कें, बस स्टैंड, वगैरह पर आप के पोस्टर, रेडियो पर आप का विज्ञापन, रोजाना दो जनसभा, रोजाना चंदा जुटाने के लिए चाय कॉफी लंच डिनर दो शब्दों में कहें तो जान ही दांव पर है।

असल में केजरीवाल की राजनीतिक उम्र दो साल ही हुई है, लेकिन उन्होंने इन दो सालों में बहुत कुछ देखा और सीखा है... और इस बात को समझा कि राजनीति में बने रहने के लिए क्या ज़रूरी है। क्या छोड़ना है और क्या पकड़ना है...

एक समय था जब ऐसा लगता था कि केजरीवाल बोलकर सोचते हैं, लेकिन आज वह सोच समझकर ही बोलते हैं और इसलिए बदले-बदले से केजरीवाल नज़र आते हैं- देखें, राजनीति की धूल-आंधी में ये बदलाव कब तक कायम रहता है।

लेकिन सवाल यहां पर बस यही है कि क्या दिल्ली की जनता अरविंद केजरीवाल को इस्तीफे के लिए माफ़ कर पाएगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि केजरीवाल ने बदलने में देर कर दी? यह सवाल है जिसका जवाब आप और हम 10 फरवरी को देखेंगे।

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