दिल्ली के कोच केपी भास्कर पिछले एक-दो इंटरव्यू में दिल्ली क्रिकेट की व्यथा बताते रहे हैं. उनका कहना है कि पिछले सीजन में अंडर-23 दिल्ली के 42 खिलाड़ी सीजन में खेले थे. इतने ज्यादा खिलाड़ियों को एक सीजन में कैसे मौके मिल सकते हैं? अगर आप कोर ग्रुप नहीं बना सकते तो बेहतर प्रदर्शन कैसे कर सकते हैं? केपी भास्कर के दिल्ली से जुड़े इस सवाल को भारतीय टीम पर लागू करते हैं. कुछ ऐसा ही भारतीय टीम के साथ हो रहा है.
दिलचस्प है कि उसके बावजूद मुद्दे पर बात नहीं हो रही है. पिछले डेढ़ साल में करीब 40 खिलाड़ी वनडे में आजमाए गए हैं. महेंद्र सिंह धोनी के टेस्ट क्रिकेट से रिटायरमेंट के बाद. उसके बाद भारत ने ट्रायंगुलर सीरीज खेली, फिर वर्ल्ड कप खेला, बांग्लादेश में सीरीज खेली, जिम्बाब्वे से दो सीरीज हुईं. ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका से एक-एक सीरीज खेली है. इसमें ज़ाहिर तौर पर वर्ल्ड कप तक प्रयोग नहीं हुए. बल्कि वर्ल्ड कप के ठीक बाद बांग्लादेश के खिलाफ सीरीज के लिए भी प्रयोग नहीं हुए. लेकिन उसके बाद हर सीरीज में प्रयोग किए गए, जो न्यूजीलैंड के खिलाफ सीरीज तक जारी हैं.
बगैर ओपनर की टीम
नई सेलेक्शन कमेटी ने पहली बार भारत की टीम चुनी है. मज़ेदार यह है कि वो ओपनर लेना भूल गए या उन्हें जरूरत ही महसूस नहीं हुई. अजिंक्य रहाणे मेकशिफ्ट ओपनर रहे हैं. उन्हें शायद ‘राहुल द्रविड़’ बनाने की कोशिश है. हर जगह बल्लेबाजी कराकर. दूसरे ओपनर के तौर पर भी मिडिल ऑर्डर बल्लेबाज को ही मौका दिया जाएगा. क्या इस देश में एक स्पेशलिस्ट ओपनर नहीं मिल रहा था? अगर जीत का इतना भरोसा है कि न्यूजीलैंड को किसी लायक नहीं मानते, तो भी अपनी टीम को एक तरह का स्थायित्व देने के लिए तो ओपनर चुन ही सकते थे.
क्या होता है इंडियन कैप का मतलब
एक घटना याद आती है. दिल्ली में पाकिस्तान के खिलाफ टेस्ट की बात है, जब अनिल कुंबले ने दस विकेट लिए थे. मैच में सुनील गावस्कर कमेंटरी कर रहे थे. खाली समय में वे मीडिया बॉक्स में बैठे थे. यह वह दौर था, जब गावस्कर को आज़ाद आवाज़ माना जाता था. बीसीसीआई की आवाज़ कहकर आलोचना नहीं होती थी. उन्होंने मस्ती मजाक के बीच पीछे मुड़कर देखा. खड़े हो गए. इशारे से एक शख्स को बुलाया, जिसने इंडियन कैप लगाई थी. उससे पूछा – तुमको यह कैप कहां से मिली. सवाल सुनकर वह शख्स थोड़ा सकपकाया – सर, वो मैं स्पॉन्सर की तरफ से आया हूं. टीम की जर्सी लेकर. इस पर गावस्कर ने गुस्से में पूछा – तुमने ये कैप कैसे लगाई? यह कहते हुए उन्होंने एक पत्रकार से कागज मांगा, ‘मैं बीसीसीआई से कंप्लेंट करूंगा’. वहां किसी ने कहा – छोड़िए सनी भाई.
इस पर गावस्कर का जवाब था – अरे, इसको पता होना चाहिए कि इंडियन कैप का क्या मतलब होता है. हर कोई कैसे इसे पहन सकता है. इसे ‘अर्न’ करना पड़ता है. सवाल यही है कि क्या वाकई इतने सारे खिलाड़ी इंडियन कैप ‘अर्न’ कर रहे हैं, जैसा गावस्कर ने कहा था?
क्या वाकई योग्य खिलाड़ी चुने जा रहे हैं
अगर डेढ़ साल या आठवीं वनडे सीरीज (टूर्नामेंट सहित) में 40 खिलाड़ी चुने गए हैं, तो कहीं कुछ गड़बड़ तो है. आप कह सकते हैं कि जिम्बाब्वे के खिलाफ तो प्रयोग करना ही चाहिए. बिल्कुल करना चाहिए. लेकिन जिम्बाब्वे के खिलाफ किसी को मौका देने के बाद उसे दोबारा मौका देंगे या नहीं? कम से कम फैज फजल इस सवाल का जवाब जानना चाहते होंगे, जिन्हें पिछले जिम्बाब्वे दौरे में जगह मिली थी. एक मैच खिलाया गया. फिर वो न जाने कहां हैं. यजुवेंद्र चहल, ऋषि धवन, परवेज रसूल, बरिंदर सरां, गुरकीरत सिंह मान... ये सभी हैं, जिन्हें पिछले कुछ समय में मौका मिला है.
आंकड़ों के शौकीन एक दोस्त के अनुसार संदीप पाटिल वाली चयन समिति ने चार साल में 90 लोगों को वनडे खेलने का मौका दिया. इसमें वो शामिल नहीं हैं, जो टीम में लिए गए, लेकिन खेले नहीं... जैसे ईश्वर पांडे, शर्दुल ठाकुर, कुलदीप यादव वगैरह. न्यूजीलैंड के खिलाफ वनडे सीरीज के लिए वर्तमान टीम में भी करुण नायर या मनदीप सिंह को अगर ऑस्ट्रेलिया 'ए' के खिलाफ प्रदर्शन की वजह से चुना गया है, तो यकीन मानिए.. ऐसा कोई कमाल उन्होंने नहीं किया.
कैसा रहा है टीम का प्रदर्शन
प्रयोग आमतौर पर तब किए जाते हैं, जब आप भविष्य की टीम बना रहे हों. प्रयोग के दौरान ठीक से मौके भी दिए जाते हैं, जैसे टेस्ट में रोहित शर्मा को दिए गए. लेकिन जिम्बाब्वे दौरा छोड़ दिया जाए, तो कोर ग्रुप में तो कुछ खास बदलाव हुआ नहीं है. यानी आखिर के तीन-चार नामों में फेरबदल होता है. उन्हें मौका मिले या न मिले, जल्दी ही हटाकर किसी और को ले लिया जाता है. यह तब है, जब ट्रायंगुलर सीरीज में भारत चार में सिर्फ एक मैच जीता. फिर वर्ल्ड कप आया. प्रदर्शन पता ही है. उसके बाद सीरीज में बांग्लादेश से हारे, ऑस्ट्रेलिया से हारे और दक्षिण अफ्रीका से भी. सिर्फ एक टीम को हमने हराया है वो है जिम्बाब्वे.
न्यूजीलैंड के खिलाफ भी टीम महज तीन मैचों के लिए है यानी आखिरी दो मैचों के लिए फिर प्रयोग हो सकते हैं. सवाल यही है कि क्या सिर्फ प्रयोग के लिए प्रयोग हो रहे हैं या भारतीय क्रिकेट को इसका फायदा भी है? सवाल यह भी उठता है कि वाकई ‘क्रिकेटिंग रीजन’ से ही ऐसा हो रहा है या कुछ और बात है? अगले तीन मैचों में अगर टीम इंडिया जीत गई तो शायद आप भी मानने लग जाएं कि प्रयोग सफल रहा. आजकल क्रिकेट इतनी ज्यादा है कि बैठकर सोचने का समय नहीं मिलता. और जिन्हें समय मिलता है या जिनको समझ में आता है, वो चुप रहना ज्यादा पसंद करते हैं.
शैलेश चतुर्वेदी वरिष्ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार हैं...
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This Article is From Oct 14, 2016
क्यों हो रहे हैं वनडे के लिए ‘थोक’ में बदलाव
Shailesh Chaturvedi
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 14, 2016 12:08 pm IST
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Published On अक्टूबर 14, 2016 12:08 pm IST
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Last Updated On अक्टूबर 14, 2016 12:08 pm IST
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