स्वर्ण सिंह, दीपू, अनिल और बलविंदर ये न तो विधायकों के नाम हैं और न ही सांसदों के. न ही ये लोग दल-बदल कर सरकार बनाने का प्रयास कर रहे थे. बहुतों के लिहाज़ से बड़ा काम नहीं कर रहे थे, मेरे लिहाज़ से अगर ये अपना काम नहीं करते तो सीवेज का गंदा पानी हमारे आपके घरों में भर आता. ये चारों लोग 14 जुलाई के दिन दिल्ली के घिटोरनी में एक सेप्टिक टैंक की सफाई करते वक्त मारे गए. टैंक में बनने वाली ज़हरीले गैस से इनका दम घुट गया. इन चारों की उम्र 23, 28, 32 और 45 साल थी.
ये सभी दक्षिण दिल्ली के छतरपुर की अंबेडकर कालोनी में रहते थे और सुरक्षा के लिए ज़रूरी परिधानों के बग़ैर टैंक में गए थे. ऐसे वक्त में जब केंद्र सरकार का सबसे बड़ा अभियान स्वच्छता का है, यह कैसे हो सकता है कि देशभर में सीवेज की सफाई करते वक्त देशभर से आने वाली सफाईकर्मियों की मौत को लेकर कोई हलचल नहीं है.
1 मई, 2017 को पंजाब के तरणतारण में भी दो सफाईकर्मियों अमन कुमार (35) और प्रेम कुमार काका (29) की मौत दम घुटने से हो गई. 18 मार्च को बठिंडा में सीवर की सफाई करते वक्त दम घुटने से जगदीश सिंह (40) और रवि (25) की मौत हो गई. 3 मई, 2017 को पटना के दो सफाई कर्मचारी सीवर की सफाई करते वक्त दमघुटने से मर गए. इनका नाम जित्ते (35) और दीपू (25) था. मार्च, 2017 में बेंगलुरु में तीन सफाईकर्मियों टी. नायडू (40), अंजेया (34), येरैया (35) की मौत हो गई.
इन सभी मौतों में एक समानता है. सभी की उम्र 40 साल से कम है. सभी के पास सुरक्षा के लिए ज़रूरी परिधान नहीं थे और सभी के सभी ठेके पर काम करते थे. दिल्ली के घिटोरनी में हुई चार लोगों की मौत को मीडिया ने प्रमुखता से जगह तो दी लेकिन, इंटरनेट सर्च के दौरान ऐसा लगा कि ऐसी ख़बरें रुटीन के तौर पर कहीं किसी कोने में छपकर हमेशा के लिए मर जाती हैं. आम लोग रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ही इतना उलझे हैं कि उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता है कि कोई फर्क नहीं पड़ता. मगर जिस सिस्टम का काम है इन समस्याओं को देखना, क्या उसे फर्क पड़ रहा है? आखिर अभी तक हम सीवेज में खुले बदन, बिना किसी सुरक्षा के उतरने का काम बंद क्यों नहीं कर पाए?
हैदराबाद में एक अनाथालय है. यहां एचआईवी पीड़ित 200 अनाथ बच्चियां रहती हैं. इनसे मैनहोल साफ करवाया जा रहा था. अप्रैल महीने में जब यह रिपोर्ट आई तो अनाथालय के सुपरवाइज़र और वार्डन को गिरफ्तार कर लिया गया. लेकिन, सोचिए हम सफाई के काम को इतना हल्का समझते हैं कि किसी को भी उतार दिया. यह जानते हुए कि भी इसमें प्रदूषित तत्व हैं. इन लड़कियों को संक्रमण हो सकता है. मगर, दूसरों की जान की लेकर किसी को परवाह ही नहीं है.
सीवेज सफाईकर्मियों को मार रहा है, बीमार कर रहा है. यही नहीं पूरे शहर को बीमार कर रहा है. क्योंकि, इसके कारण शहर के भीतर और आसपास पानी का जो प्राकृतिक सिस्टम है, वह लगातार प्रदूषित हो रहा है. शहरों की गंदगी लेकर गिरते इन नालों ने हमारी नदियों का क्या हाल किया है, आप चाहें तो किसी भी शहर से गुज़रने वाली किसी भी नदी को देख सकते हैं.
सीवेज का ट्रीटमेंट खर्चीला माध्यम है. इसे लगाना और इसका रखरखाव दोनों. भारत के कई शहरों में आबादी के बड़े हिस्सा का सीवेज किसी नाले में भी नहीं गिरता है. जगह-जगह नाले बजबजाते मिल जाएंगे. 14 जुलाई को दिल्ली के घिटोरनी में 4 लोगों की सीवर साफ करते हुए मौत हो गई, इसी दिन मद्रास हाईकोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को आदेश दिया कि सिर पर मैला ढोने वाले के तौर पर रोज़गार पर प्रतिबंध और उनका पुनर्वास कानून 2013 की धारा 7 के तहत नालों और सेप्टिक टैंकों की जानलेवा सफाई के लिए रोज़गार या ऐसे कामों के लिए लोगों की सेवाएं लेने पर प्रतिबंध है.
1 जनवरी, 2014 से 20 मार्च, 2017 के बीच तमिलनाडु में सिर पर मैला ढोने के कारण 30 सफाईकमियों की मौत हो चुकी है. इन मौतों को तभी रोका जा सकता है जब लोग सीवर और सेप्टिक टैंकों में जाना बंद कर दें. आख़िर गटर, सीवर या मैनहोल साफ करने के लिए अस्थाई कर्मचारियों को ही क्यों रखा जाता है. क्या सिस्टम को यह पता है कि इस काम में कभी न कभी मौत तय है. इसलिए अगर पक्की नौकरी होगी तो उसकी जगह पर परिवार के किसी सदस्य को रखना पड़ेगा.
रिसर्च के दौरान ये बात सामने आई कि किसी भी नगरपालिका में सीवर या गटर साफ करते वक्त दम घुटने से होने वाली मौत का सही-सही आंकड़ा नहीं रखा जाता है. जनवरी, 2015 में बृहनमुंबई नगरपालिका ने बताया था कि पिछले छह साल में यानी 2009 से 2015 के बीच 1386 सफाईकर्मियों की मौत हो गई है और यह संख्या बढ़ती ही जा रही है. मुंबई में 35,000 सफाईकर्मचारी हैं जिनमें से ज़्यादातर ठेके पर रखे जाते हैं.
2014 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि नालियों की सफाई के दौरान मारे गए कर्मचारियों के परिवार वालों को दस लाख रुपये दिए जाएंगे. मगर कई रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र मिला कि मरने वाले सफाईकर्मियों के परिजनों को मुआवज़ा नहीं मिलता है.
12 जुलाई, 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक आदेश दिया जिसमें सिर पर मैला ढोने वाले मज़दूरों और सीवेज कामगारों की दुर्दशा को रेखांकित किया गया. कोर्ट ने उनके कल्याण और सुरक्षा को लेकर सरकार की संवेदनहीनता की भी कड़ी आलोचना की. सुप्रीम कोर्ट ने मारे गए लोगों के परिवारों को ज़्यादा मुआवज़ा देने का आदेश तो दिया ही साथ ही शहरी निकायों को तुरंत दिल्ली हाइकोर्ट के उस आदेश का पालन करने का निर्देश दिया जिसमें सीवेज में काम करने वालों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात कही गई थी.
2007 में एक एनजीओ Human Rights Law Network ने दिल्ली हाइकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की. ये संस्था दिल्ली के हज़ारों मैला ढोने वाले मज़दूरों की प्रतिनिधि है जो दिल्ली जल बोर्ड, एमसीडी, एनडीएमसी, डीएसआईडीसी, सीपीडब्ल्यूडी में काम करते हैं. एनजीओ की याचिका को सुनते हुए हाईकोर्ट ने भी माना था कि स्थिति गंभीर है.
याचिका में इन मामलों का ज़िक्र किया गया और दिल्ली हाइकोर्ट ने माना कि हालात काफ़ी गंभीर हैं. कोर्ट ने तुरंत सभी स्थानीय निकायों को सीवेज मज़दूरों को मुफ़्त मेडिकल की सुविधा और उन्हें मुआवज़ा देने का आदेश दिया. इसके अलावा अपने काम से जुड़ी बीमारियों से जूझ रहे सीवेज मजदूरों को मुआवज़ा, उनकी मौत के बाद उनके आश्रितों को पीएफ़ और दूसरी सुविधाएं देने की बात कही.
indiaspend.com ने इसी साल जनवरी में एक शोधपरक रिपोर्ट फाइल की है. कई अखबारों और वेबसाइट में इंडियास्पेंड की रिपोर्ट छपती है. इसके अनुसार भारत में मात्र 30 प्रतिशत नालों का मैला पानी, जिसे हम सीवेज कहते हैं, ट्रीट होता है. मतलब उसकी सफाई होती है. 70 फीसदी सीवेज का ट्रीटमेंट नहीं होता है. 2015 में सरकार के जारी आंकड़ों से पता चलता है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 62,000 मिलियन लीटर सीवेज पैदा होता है. मात्र 23, 277 मिलियन लीटर प्रतिदिन ही ट्रीट होता है. भारत में 816 म्यूनिसिपल सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैं, जिनमें से 522 ही काम करते हैं. इसकी वजह से नदियां, तालाब और प्राकृतिक जल स्त्रोत प्रदूषित हो रहे हैं.
आजकल हम सैनिटेशन का मतलब सिर्फ शौचालय ही समझते हैं. मगर, इसका बड़ा हिस्सा है शहरों की सफाई और सीवेज का ट्रीटमेंट. स्वच्छता के ज़्यादातर विज्ञापन शौचालय को लेकर ही बने हैं. कचरा फेंकने को लेकर बने हैं. मगर, सफाईकर्मियों की सुरक्षा, उनके लिए ज़रुरी उपकरणों का ज़िक्र कहीं नज़र नहीं आता. मुंबई की नगरपालिका का बजट तो कई हज़ार करोड़ है वहां भी मैनहोल साफ करते हुए सफाईकर्मचारी मर जाते हैं. इसका मतलब है कि इनके पास पर्याप्त आधुनिक मशीनें नहीं हैं और हमारे शहरों की बनावट भी ऐसी है कि हर जगह ये विशालकाय ट्रक पहुंच भी नहीं सकते हैं.
This Article is From Jul 17, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो : ये सीवर हैं या मौत के कुएं?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
-
Updated:जुलाई 17, 2017 22:49 pm IST
-
Published On जुलाई 17, 2017 22:18 pm IST
-
Last Updated On जुलाई 17, 2017 22:49 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं