कोयला खा गया कॉलेज. झारखंड के गोड्डा का यह कॉलेज कभी भी कोयले की खदान में समा सकता है. जिस कॉलेज की बात हो रही है उसके बारे में सोच कर दिल छोटा मत कीजिए. यूनिवर्सिटी सीरीज़ का यह 18वां अंक पहले अंक की तरह लग रहा है. इस कॉलेज का हाल देखकर लगा कि अभी तो हमने कुछ भी नहीं देखा, कुछ भी नहीं दिखाया और न बताया. आप सोच रहे होंगे कि कोयला कैसे किसी कॉलेज को खा सकता है, सोचिए, जब कॉलेज के कॉलेज भारत के लाखों नौजवानों को खा सकते हैं, निगल सकते हैं, बर्बाद कर सकते हैं तो कोयला कॉलेज क्यों नहीं खा सकता है. इसी तरह देरी होती रही तो एक दिन गोड्डा का यह कॉलेज कोयले की खदान की आंत में समा जाएगा. गोड्डा झारखंड की राजधानी से 338 किमी दूर है. हम जिस कॉलेज की बात कर रहे हैं वो गोड्डा शहर से 50 किमी दूर है. बीजेपी के सांसद निशिकांत दूबे गोड्डा से ही सांसद हैं. वैसे किसी भी पार्टी के सांसद होते तो इस कॉलेज की हकीकत नहीं बदल सकते थे. एशिया का सबसे बड़ा ओपन कोल माइन है. यह कहानी बता रही है कि क्यों आदिवासी समाज के नौजवान दिल्ली तक नहीं आ सके, क्यों वे न्यूज़ चैनलों की दुनिया में नहीं दिखते हैं, क्यों वे सिनेमा के पर्दे पर नहीं दिखते हैं, क्यों वे खेल के मैदानों में नहीं दिखते हैं, आदिवासी फिर कहां दिखते हैं.
आदिवासी नौजवानों के साथ अन्याय का दस्तावेज़ है ये गोड्डा कॉलेज. हमारे सहयोगी संतोष भगत आपको आदिवासी इंटर महाविद्यालय, ललमटिया ले जाना चाहते हैं. इस कॉलेज को खाई की तरफ से देखिए, आदिवासी महाविद्लाय की इमारत को देखिए. आपको पहले खाई की गहराई नज़र आएगी. कोयला खोदते खोदते कॉलेज के पीछे खाई बन गई है. कॉलेज के ठीक नीचे की ज़मीन के नीचे भी अवैध रूप से कोयला निकाला जाता रहा, सुरंग बनती रही और अब यह कॉलेज भी ढह सकता. कॉलेज आधारहीन हो चुका है, आदमी का आधार नंबर बन रहा है, कॉलेज आधारहीन हो चुका है. सुरंग इतनी गहरी है कि कॉलेज के नीचे पानी का स्तर और गहराई में चला गया, लिहाज़ा शौचालय में पानी तक नहीं है. ऊपर से यह कॉलेज ऐसा दिखता है जिसे देखकर आप अपने बेबी और बेबा को लेकर गाड़ी में बिठाकर लंदन भाग जाएंगे कि आई विल नॉट पुट माय किड्स इन दिस कॉलेज, मॉय गॉड इट्स सो हॉरिबल, लेट्स गो टू डेल्ही, एंड वॉच सम इंग्शिल न्यूज़ चैनल टू फील दैट इंडिया इज़ डूइंग समथिंग ग्रेट. इज दिस अ कॉलेज, लुक एट कैंब्रिज़, लुक एट हावर्ड. इसका हिन्दी अनुवाद यही हुआ कि आप इस कॉलेज को देखते ही, अपने जिगर के टुकड़े को यहां टुकड़े टुकड़े होने से बचाने के लिए कार में बिठाकर दिल्ली भाग जाएंगे. भारत में समस्या को सीरीयस करना है तो प्लीज़ प्रॉब्लम को इंग्लिश में बोलिए, उससे उसका कैरेक्टर नेशनल हो जाता है. इसलिए मैंने थोड़ी अंग्रेज़ी मिला दी.
शौचालय की तरफ आते ही लगा कि हड़पप्पा के ठीक बाद के कालखंड में आ गए हैं. कार्यालय के बाहर बैठी महिला टीचर को बैठे देखा तो सोचने लगा कि वो न जाने कितने वर्षों से इसी तरह दिन के ढलने या बीत जाने का इंतज़ार कर रही हैं. इस तरह के कॉलेज में इनके कितने अरमान ध्वस्त हुए होंगे. सिस्टम ने इन्हें कितना तोड़ दिया होगा.
1985 में बने इस कॉलेज के बारे में प्रिंसिपल ने बताया कि तीन साल पहले ईसीएल यहां कोयला निकालने आई. वादा था कि कॉलेज को दूसरी जगह शिफ्ट कर दिया जाएगा. अभी तक कॉलेज शिफ्ट नहीं हुआ है. कॉलेज के लिए ईसीएल ने जगह दे दी है. टेंडर निकला है मगर काम नहीं शुरू हुआ. तब तक क्या इन बच्चों को किराये की इमारत में किसी सुरक्षित जगह पर नहीं भेजा सकता है.
ईएसीएल तो चली गई मगर उसके जाने के बाद यहां चोर माफिया कोयला निकालते रहे और कॉलेज के ठीक नीचे सुरंग बना गए. सुरंग के कारण पानी तक सूख गया है. शौचालय में पानी नहीं है. कोयला निकालने के लिए यहां ब्लास्ट किए गए जिसके कारण इमारत में दरार आ गई. ज़िलाधिकारी से लेकर कुलपति तक सबको शिकायत की गई है, की जाती रहती है मगर कुछ नहीं हुआ है. 21 टीचर हैं यहां पर, 500 छात्र हैं, उस लिहाज़ से शिक्षक का अनुपात तो काफी अच्छा है मगर यहां छात्र कैसे बठेंगे. उन्हें डर लगता है कि इमारत कभी भी धंस सकती है.
आपने यूनिवर्सिटी सीरीज में देखा कि समस्याएं तो महानगरों के कॉलेजों में भी हैं. मगर वहां के छात्रों के बोलने में एक खास तरह की आक्रामकता आ गई है. उदासीनता है मगर थोड़े समय के लिए ही सही अधिकार बोध भी जाग जाता है. हम चाहते हैं कि आप सविता को बोलते सुने. सविता में यकीनन पचासों कौशल होंगे, काबिलियत होगी मगर देखिए हमारी शिक्षा व्यवस्था ने उसे बोलने के मामले में कितना कमज़ोर बना दिया है. सिदो कान्हू मुर्मू यूनिवर्सिटी के तहत यह कॉलेज आता है. सिदो कान्हू अपने आप में क्रांतिकारी और बहादुर भाई थे. मगर क्या उन्होंने इस दिन के लिए ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी कि उनके नाम पर बनी यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज के आदिवासी छात्रों की ये हालत कर दी जाएगी. उनसे उनका नागरिक बोध ही छीन लिया जाएगा.
हम यह तस्वीर महानगर से लेकर कस्बों तक में देख रहे हैं. लंदन से एक दर्शक ने लिखा है कि यूनिवर्सिटी सीरीज़ अच्छी है मगर कुछ नहीं होगा. आप छोड़ दीजिए. छूट तो जाएगा ही और छोड़ना भी पड़ेगा लेकिन आप दर्शकों में से सैकड़ों ऐसी जानकारियां आ चुकी हैं जिन पर काम करने के लिए लंबा समय चाहिए. आज कल एंकर ही कब तक है किसी को पता नहीं, आपके बच्चों का भविष्य कहां कहां बर्बाद हो रहा है, ये हम कब तक बताते रहेंगे. पर सोचिए, थोड़ा अपनी प्राथमिकताओं को बदलिए आप नेताओं के झूठे और लंबे भाषण भी सुनिये, उन पर यकीन भी कीजिए लेकिन थोड़ा सोचिए कि हायर एजुकेशन के नाम पर क्या हो रहा है. हालत ये है कि इस सीरीज़ पर बात करने से अब शिक्षकों की बिरादरी जिसकी संख्या लाखों में है वह भी चुप है. छात्र भी चुप हैं. इसीलिए यह सीरीज़ महत्वपूर्ण हैं कि हम चुप क्यों हैं.
बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह ने 1957 में गोड्डा कॉलेज गोड्डा की बुनियाद रखी थी और इंदिरा गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर 24 अक्तूबर 1959 को इसका उदघाटन किया था. स्थापना के समय 56 एकड़ ज़मीन थी इसके पास, अब 36 एकड़ ही बची है यानी कॉलेज की 20 एकड़ ज़मीन भाई लोगों ने हजम कर ली. जब कोयला कॉलेज खा सकता है तो माफिया कॉलेज की ज़मीन क्यों नहीं खा सकते हैं. 1987 से यहां कोई स्थाई प्रिंसिपल नहीं है फिर भी नैक की पीआर टीम के स्वागत का बोर्ड लगा है. छोटे शहरों के कॉलेज बी ग्रेड को ही ए ग्रेड समझ कर खुश रहने लगे हैं. फेसबुक पर शेयर करते हैं कि बी ग्रेड मिल गया है. 4000 छात्रों के लिए जब पूरे शिक्षक नहीं हैं तो इस कॉलेज को बी ग्रेड मिलने का क्या मतलब है. नैक एक नया नाटक है जिसके बारे में मुझे ज़्यादा जानकारी नहीं है. कॉलेज ही नैक को फीस देकर बुलाती है कि आइये हमें ग्रेड दीजिए. जब हमारे सहयोगी संतोष यहां गए तो इम्तहान के कारण कई विभाग बंद थे. हम भीतर से हाल नहीं देख सके. प्रिंसिपल ने बताया कि अंग्रेज़ी, बॉटनी, भूगोल और संथाली में टीचर नील हैं यानी ज़ीरो हैं. सोचिए आदिवासी छात्रों के लिए कॉलेज है और वहां उन्हीं की भाषा के टीचर नहीं हैं. ऐसा घोटाला सिर्फ हमारे ही देश में हो सकता है. यहां के छात्रों ने भी कई बार वोट दिया होगा, मुझे यकीन नहीं होता कि वोट देते वक्त इन लोगों ने कभी अपने कॉलेज का ख़्याल किया होगा.
अशोक ठाकुर जी के हाथ में तो नीति निर्माण नहीं है. इससे ज़्यादा वे क्या कर सकते हैं और कह सकते हैं मगर जो कह दिया काफी है. एडमिशन लेना चाहते हैं तो रोक नहीं सकते हैं. क्या छात्रों की यही एकमात्र और अंतिम महत्वकांक्षा है कि एडमिशन हो जाए, क्या यही वो एसपिरेशन है जिसके बारे में हम दिल्ली में चर्चा करते हैं कि यूथ को एसपिरेशन पसंद है पर वो तो एडमिशन से ही खुश है, पढ़ाई लिखाई साढ़े बाईस से दुखी नहीं है. ऐसा नहीं कि छात्र नहीं बोलते हैं मगर उनके बोलने में अधिकार बोध नहीं है. दावा नहीं है. और बोलते भी हैं तो प्रशासन को पता है कि ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है. नतीजा कुछ नहीं होता है.
विनोबा भावे के नाम पर वोट होता तो नेता उनकी जयंती पर भी बीस तीस करोड़ फूंक देते. विनोबा जी थे ही इतने सादे कि कोई हिम्मत नहीं कर पाता है कि उनकी मूर्ति के नाम पर जनता के पैसे को मिट्टी में मिलाया जाए. झारखंड में उनके नाम पर एक यूनिवर्सिटी है. विनोबा भावे यूनिवर्सिटी, हज़ारीबाग. मगर इसके संबंद्ध, प्रतिबद्ध, आबद्ध, लद्द फद्ध एक कॉलेज है. कतरास कॉलेज कतरासगढ़. कतरास कॉलेज धनबाद में है. 26 जून 1964 से यह कॉलेज राष्ट्र की सेवा कर रहा है. धनबाद के सांसद हैं पशुपति नाथ सिंह. इस कॉलेज की सबसे बड़ी ख़ूबी है कि यहां एक शिक्षक पर 982 छात्र हैं. कितने. एक शिक्षक पर 982 छात्र हैं. इस कॉलेज में साढ़े बाहर हज़ार छात्र पढ़ते हैं.
इस कॉलेज का गेट तो ठीक है, बाहर से लगेगा कि काफी ठीक ठाक है लेकिन जैसे जैसे आप भीतर प्रवेश करेंगे भारत की शिक्षा व्यवस्था प्रेत रूप धारण कर आपका इंतज़ार कर रही होगी. इस मैदान को देखकर निराश होने की ज़रूरत नहीं है, भारत के नौजवान ताजमहल को लेकर होने वाली बहसों में मस्त हैं, वे सुंदर सपने देख रहे हैं, जो बना है उसे तोड़ दो की राजनीति सीख रहे हैं, जैसे उन्होंने अपने इस कॉलेज के साथ किया है. इस पुरानी इमारत में कैंटीन चलती है, नई इमारत बन गई है, वहां सुविधाएं हैं कम से कम सूची के अनुसार. यह भी तो सोचिए कि अगर मंदिर मस्जिद यानी हिन्दू मुस्लिम डिबेट नहीं होता तो भारत के छात्र क्या करते. कोर्स पूरा होता नहीं कि इम्तहान में बैठना होता है. सेमेस्टर आ जाता है वो भी छह महीने की देरी से चल रहा है. रेल और कॉलेज दोनों इंडिया में लेट चलते हैं. एक शिक्षक क्या 982 छात्रों का बोझ सह सकता है. प्राइम टाइम के इस एपिसोड को देखकर आप दो पूड़ी ज़्यादा खा लीजिएगा, खुश होइयेगा कि आपका ही नहीं, आपके पड़ोसी का बच्चा भी बर्बाद हो रहा है. बिहार का ही नहीं झारखंड वाला भी बर्बाद हो रहा है. इस पर तो दो पूड़ी और खा लीजिएगा. टीवी ऑन करके दो-दो घंटे नेता का भाषण सुनियेगा. यहां से भाषण, वहां से भाषण, दिन में भाषण, रात में भाषण. भाषण भाषण, भाषण भाषण, गाते हुए सो जाइयेगा. प्रिंसिपल कहते हैं कि शौचालय की कमी नहीं है मगर एक छात्रा ने बताया कि साढ़े तीन हज़ार लड़कियों पर एक शौचालय है.
नियंत्रण यहां महत्वपूर्ण फैक्टर है. लाखों छात्रों को सड़ी हुई व्यवस्था मिल रही है, वे हर जगह नियंत्रण में हैं. भारत की उच्च शिक्षा ने लाखों छात्रों को कॉलेज नाम के गोदाम में भरकर कंट्रोल किया है. उन्हें किसी लायक नहीं छोड़ा है. प्रिंसिपल साहब ने ठीक कहा कि वे भले अपने बाप के कंट्रोल में न हों मगर उनके यानी सिस्टम के कंट्रोल में हैं. इस कॉलेज में पोलिटिकल साइंस, संस्कृत, इकोनमिक्स, में एक एक प्रोफेसर हैं. जबकि हर क्लास में 300 से 400 बच्चे हैं. 12,500 छात्रों के लिए 12 प्रोफेसर. दो पूड़ी और खा लीजिए. कोई नहीं.
विश्व गुरु बनाने के नाम पर नेता लोग नौजवानों को चूरन बेच रहे हैं. सामने वाले सांसद से सवाल नहीं, विधायक से सवाल नहीं, शिक्षा मंत्री से सवाल नहीं और बहस हो रही है पटेल को लेकर, जैसे पटेल और नेहरू को आकर ही जवाब देना है. इसे कहते हैं सामने गड्ढा है तो हिमालय की चोटी दिखा दो. लोग खुशी खुशी हिमालय देखते हुए गड्ढे में गिर जाएंगे. यहां के छात्र नेता को भी सुनिये. माला, कुर्ता और टीका पर मत जाइयेगा मगर छात्र नेता को सुनिए, इस जोखिम भरे माहौल में किसी ने नेता बनने का फैसला किया है यही बहुत है.
इतनी पोज़िटिव स्टोरी मैं नहीं झेल सकता. कुछ निगेटिव स्टोरी की तरफ चलते हैं. इस सीरीज़ से एक बात का पता चली कि शिक्षा मंत्री सिर्फ शपथ लेने और ज़िला में अपनी कार दिखाने के लिए होते हैं. मंत्रियों के कमरे में जाएंगे तो कुर्सी के पीछे सफेद तौलिया ज़रूर पाएंगे, वो तौलिया उनकी कार की सीट पर भी होती है. सफेद तौलिया न मिले तो मंत्री बनने का सुख नहीं मिलता है. दो प्रकार का सफेद तौलिया होता है. एक बड़ा वाला जो कुर्सी पर पीठ से लेकर सीट तक बिछा होता है और एक छोटा वाला जो ब्रीफकेस के ऊपर या कंधे पर होता है. क्लास में प्रोफेसर नहीं, मगर सफेद तौलिया हर जगह है. देहरादून से हमारे सहयोगी दिनेश मानसेरा ने एक ख़बर भेजी है कि उत्तराखंड तकनीकि यूनिवर्सिटी के वीसी को बर्खास्त कर दिया गया है. मुंबई यूनिवर्सिटी के इतिहास में पहली बार वीसी हटाए गए उसी तरह उत्तराखंड टेक्निकल यूनिवर्सिटी के इतिहास में भी पहली बार वीसी हटा दिए गए हैं.
राज्यपाल ने टेक्निकल यूनिवर्सिटी के वीसी को हटा दिया है. 2005 में इसी इमारत को काफी भव्य बनी है, 20 करोड़ में भव्य तो बननी ही चाहिए, लेकिन इस पूरी यूनिवर्सिटी में मात्र 4 कर्ल्क ही ऐसे स्टाफ हैं जो परमानेंट हैं. आप हंस तो नहीं रहे हैं न. दो पूड़ी और खा लीजिए. छह पूड़ी खा लीजिए. इस यूनिवर्सिटी में चार ही परमानेंट हैं वो भी क्लर्क. पूरी यूनिवर्सिटी ठेके के कर्मचारियों पर चल रही है. टेहरी, टनकपुर, गोपेश्वर, देहरादून के चार टेक्निकल कॉलेज हैं इसके तहत. इस तहत के अंतर्गत 60 कोर्स में 4000 हज़ार छात्र अपना फ्यूचर डार्क करने आते हैं. वैसे अन्य कॉलेजों के छात्रों को मिला दें तो 35000 छात्रों का बेड़ा गर्क करने का जिम्मा यह यूनिवर्सिटी उठाए हुए हैं. आरोप है कि दो करोड़ का हिसाब किताब नहीं मिल रहा है, ठेके पर मनमाने तरीके से कर्मचारी रखे गए, अब ये सब तो सामान्य आरोप हैं तो फिर वीसी प्रदीप कुमार गर्ग को क्यों हटाया गया ये मुझे समझ नहीं आ रहा है. वीसी साहब पर आरोप है कि वे अस्थायी कर्मचारी से राज्यपाल के साथ पत्रचारा करवा रहे थे. अब वहां कोई परमानेंट है ही नहीं तो यह तो स्वाभाविक है. मगर कानूनन वे ऐसा नहीं कर सकते थे. इस यूनिवर्सिटी में 200 असिस्टेंट प्रोफेसर संविदा पर हैं. ठेके पर होने के कारण महिला लेक्चररों के साथ जो हो रहा है वो हम किस किस राज्य से आपको एक ही बात बताएं.
यूनिवर्सिटी सीरीज़ का यह अठारहवां अंक था, आप दो पूड़ी और खा लीजिए और ब्रेक ले लीजिए.
This Article is From Nov 02, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो : गोड्डा के स्कूल को हादसे का इंतज़ार?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:नवंबर 02, 2017 21:53 pm IST
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Published On नवंबर 02, 2017 21:53 pm IST
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Last Updated On नवंबर 02, 2017 21:53 pm IST
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