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This Article is From Apr 02, 2015

सर्वप्रिया की कलम से : मेरा नाम मोनिका लेविंस्की है...

Sarvapriya Sangwan, Rajeev Mishra
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  • Updated:
    अप्रैल 03, 2015 10:30 am IST
    • Published On अप्रैल 02, 2015 21:46 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 03, 2015 10:30 am IST

"मेरा नाम मोनिका लेविंस्की है। हालांकि मुझे कई बार कहा गया कि मैं अपना नाम बदल लूं। कई बार पूछा गया कि अब तक क्यों नहीं बदला, लेकिन मैंने नहीं बदला। मैं ही वो पहली इंसान हूं, जिसने अपनी इज़्ज़त ऑनलाइन शेयरिंग के ज़रिये खोयी, जबकि उस वक़्त फेसबुक, ट्विटर नहीं थे, लेकिन ई-मेल और न्यूज़ वेबसाइट तब भी थीं। मैं जब भी टीवी देखती, जब भी ऑनलाइन जाती, मुझे गन्दी गालियों से नवाज़ने वाले लोगों की भरमार थी। भद्दे गानों में मेरा नाम आता था। बस एक ही बात कानों में गूंजती थी - मैं मरना चाहती हूं (I want to die)।"

16 साल बाद 'फोर्ब्स' के एक कार्यक्रम के दौरान मोनिका लेविंस्की मीडिया से जब मुखातिब हुईं, तब आपबीती सुनाते हुए अपने आंसू नहीं रोक पायीं। जी हां, ये वही मोनिका लेविंस्की है जो 1998 में अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से अपने प्रेम संबंधों के कारण सुर्ख़ियों में आ गई थीं। मोनिका महज़ 22 साल की थीं, जब व्हाइट हाउस में इंटर्न के तौर पर काम करने लगी थीं।  

मुझे हमेशा ये बात सताती रही है कि जब इस पूरे प्रकरण में दो लोग बराबर शरीक़ थे, अपनी मर्ज़ी से, फिर सज़ा अकेली मोनिका ही क्यों भुगतती रही। एक आदमी ने अपनी शादी में धोखा किया, लेकिन उनकी पत्नी हिलेरी क्लिंटन ने उनका साथ दिया। उस आदमी के हाथ से सत्ता नहीं गई। अपनी पत्नी के सहयोग से वो राजनीतिक और घरेलू दोनों तरह के संकट से बाहर निकल आए। ताक़त यही होती है। लेकिन एक युवा लड़की इतनी छोटी उम्र में ज़िन्दगी भर के लिए अमेरिका की गुनहगार बन गई। ये एक बहुत बड़ा उदाहरण है कि लोग लड़कियों के प्रति कितने जजमेंटल होते हैं। सिर्फ भारत में ही नहीं, दूसरे देशों में भी।

हमारे देश में अनुष्का शर्मा पनौती है। किसी खिलाड़ी का भाई, बेटा, पिता नहीं। जैसे आलिया भट्ट सबसे मूर्ख हैं। वरुण धवन या बाकी कोई हीरो नहीं। इतने दिनों से दीपिका पादुकोण की vogue वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है। इसकी आलोचना करने में महिलाएं भी पीछे नहीं हैं। हालांकि बहुत ही ख़राब स्क्रिप्ट और कमज़ोर स्क्रीनप्ले की वजह से ये बेहद ख़राब वीडियो थी, लेकिन जहां तक मुझे लगता है, इसका संदेश इतना ही था कि महिलाओं के प्रति जजमेंटल कम हुआ जाए। काश, इसे थोड़ा बेहतर लिखा गया होता।

मैं ये समझने में नाकाम हू कि "माय चॉइस" से महिला सशक्तिकरण किस तरह जुड़ा है। आप शादी करना चाहें या ना करना चाहें, ये आपकी इच्छा हो सकती है। लेकिन आप शादी निभाएं या ना निभाएं, ये फैसला आप इस शादी से जुड़े बाकी लोगों पर कैसे थोप सकती हैं। बेशक आपका ओढ़ना-पहनना, चलना फिरना, काम करना आपकी अपनी इच्छा है। लेकिन इसी तर्क से फिर आप बुर्का पहनने वाली, सिन्दूर लगाने वाली, घर में खपने वाली महिला को अबला करार नहीं दे सकते, क्योंकि फिर वो भी कहेगी - "माय चॉइस"। आप अपनी इस घटिया स्क्रिप्ट से महिलाओं की लड़ाई कमज़ोर कर रही हैं।

महिला सशक्तिकरण का मतलब मेरे लिए सिर्फ एक ही है - आत्म सम्मान। अगर आप अपने आत्म-सम्मान के लिए अपने पति, अपने मां-बाप और अपनी कमज़ोरियों से लड़ सकती हैं, तो आप बिल्कुल एक सशक्त महिला हैं। लेकिन आप अपने आत्म-सम्मान को ताक पर रखकर अपनी भावुकता की वजह से किसी से मार खाती हैं, धोखा बर्दाश्त करती हैं, किसी दूसरी लड़की के सम्मान को ठेस पहुंचाती हैं, तो फिर मनमर्ज़ी कपड़े पहनने और खूब पैसा कमाने के बावजूद दीपिका पादुकोण या हिलेरी क्लिंटन भी सामान्य महिलाएं ही हैं।

अगर आप "माय चॉइस" के नाम पर दोगली बातें करती हैं, तो आप बहुत ही आसान रास्ता अख्तियार किये हुए हैं और माफ़ कीजियेगा इस हिसाब से इस देश में आपसे बेहतर महिलाएं मौजूद हैं। आप किसी विज्ञापन के ज़रिये इस तरह का संदेश देने के क़ाबिल नहीं हैं। अगर आप सही में एक सशक्त महिला हैं, तो फिर अपनी शर्तों पर फिल्म इंडस्ट्री में काम करके दिखाइए। बाज़ार का उत्पाद बनने से इंकार कीजिये। हर गलत बात पर अपनी आवाज़ उठाइये। बीच का रास्ता कहीं नहीं ले जाता।   

इस कमज़ोर वीडियो की वजह से कुछ पुरुषों को मौका मिल गया और वो अपनी किस्म की वीडियो के ज़रिये महिलाओं को बराबरी की सबक सिखाने लगे। सबक आप तब सिखाइये, जब आप समझ लें कि आखिर ये बराबरी होती क्या है। आज ही अपनी एक मित्र का पोस्ट पढ़ा। अगर एक लड़के को कोई लड़की घूरती है, तो ज़रूरी नहीं कि उसे इससे कोई ऐतराज़ हो, लेकिन एक लड़के का घूरना, किसी लड़की को असहज कर सकता है। किस तरह से समाज बलात्कार के लिए लड़कियों को दोषी ठहराता है और लड़कों को नहीं, ये बात भी अपने संज्ञान में रखिये। जिस दिन आप ये स्वीकार करने लगें कि आप जिस काम को अपनी मौज-मस्ती का नाम देते हैं और महिलाएं भी उसे शर्म की बजाय मौज-मस्ती का नाम दे सकती हैं, तो आप ज़रूर बराबरी के झंडे उठाइये।

महिला सशक्तिकरण का सारा मुद्दा फ़िलहाल पुरुषों की बराबरी पर फोकस हो गया है। इस चक्कर में आप भूल जाती हैं कि आप पुरुषों के जिस चरित्र से नफरत करती हैं, आप धीरे-धीरे वही बनने लगती हैं। फिर ये लड़ाई किससे है। मुझे नहीं लगता कि फेमिनिज्म किसी किताब में पढ़कर सीखा जा सकता है। हर महिला पहले अपनी ज़िन्दगी पढ़े और फिर उसे किसी से फेमिनिज्म सीखने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। क्योंकि आपकी यात्रा सामान्य नहीं थी। जिस लड़की ने अपनी जान देने की बजाय कई सालों तक उस बेइज़्ज़ती को झेला और अपना नाम नहीं बदला, शायद वो अमेरिका की सबसे शक्तिशाली महिला को फेमिनिज्म सीखा सकती है।

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