पत्रकारिता के गिरते स्तर पर टिप्पणी करना भी अब एक MSME का रूप ले चुका है. अनगिनत वेबसाइट अपनी रोज़ी-रोटी इसी मुद्दे से कमाती हैं.
देखिए, TV के गिरते स्तर का देश की अर्थव्यवस्था पर कितना सकारात्मक असर है. रोज़गार के नए अवसर प्रदान कर रहा है. लोगों को काम दे रहा है.
मैं भी एक लेख लिखने बैठ गया, देखिए.
किसने सोचा था, फूहड़ता अपने आप में स्वरोज़गार प्रदान करेगी. इसका तो एक अच्छा-सा नाम रख देना चाहिए. राष्ट्रीय फूहड़ पत्रकारिता रोज़गार गारंटी मिशन.
रोज़ कितनी मेहनत से एडिटरान स्तर गिरा रहे हैं. किसके लिए...? ताकि वेबसाइट चल सके, ताकि बेरोज़गार बैठा युवा TV पर 'सीधे' और 'कड़े' सवाल होते देखे. ताकि हर बेख़बर JCB ड्राइवर और पोस्टमैन से वे तीखे सवाल पूछे जाएं, जो जनता सुनना चाहती है.
ताकि हर गार्ड के मुंह में माइक छुआ-छुआकर काले जादू का रहस्य आप तक लाया जाए. ताकि हर रेड लाइट पर रुकी NCB की गाड़ी के इर्द-गिर्द घूम-घूमकर और नाच-नाचकर रिपोर्टर आपको बताए कि रिया इसी गाड़ी में है.
इस कोरोना काल में 'बिग बॉस' की कमी न महसूस होने पाए, इसलिए 24 घंटे के 'बिग बॉस' देश के नाम समर्पित कर देने का यह साहसी कदम - कैसे आप यह सब पॉज़िटिविटी नहीं देख पाते हैं. लगता है, आप हैं ही नकारात्मक.
आप कभी समझ ही नहीं पाए, वह साहस, जिससे एक रिपोर्टर कैमरा रोल करते हुए एक तथाकथित ड्रग पैडलर के घर जाता है और उसके अर्धनग्न पिता से पिटकर आता है. कैमरे में यह गाली से सना वीडियो कैद कर जनता तक वॉटर मार्क लगाकर सुनाना कोई मज़ाक़ है क्या...?
कितने गौरव का काम है, कंगना के ऑफिस की ढहाई हुई दीवार को पार कर आप तक ताज़ा हाल लाना. यह छज्जा फांद पत्रकारिता आप समझ ही नहीं रहे हैं.
'ड्रग दो, ड्रग दो' का नारा ही अब इंसाफ लाएगा, बिखरे बाल और फीका पानी का ग्लास ही अब कयामत ढाएगा. जो नहीं कर पाएंगे, वे खिसियाये-से ट्विटर पर आएंगे, और इस्तीफा देकर 'बर्दाश्त के बाहर था' सी कोई घिसी-पिटी दास्तान सुनाएंगे.
अब ज़माना बदल गया है.
अब सीधे और तल्ख सवाल पूछे जाएंगे. हर छज्जा फांदा जाएगा, हर पोस्टमैन रोका जाएगा, हर माली, गार्ड, पड़ोसी से सीधा सवाल पूछा जाएगा.
जब पत्रकारिता का कोर्स कर रहे थे, सिखाया गया था कि पत्रकार की भूमिका पोस्टमैन की है. ख़बर एक जगह से दूसरी जगह पहुंचानी है. काम केवल डाकिये का है. संदेशों के दूत.
प्रोफेसर लोगों को अपना सॉफ्टवेयर अपडेट करना चाहिए. पत्रकारिता कभी भी डाकिया-नुमा नहीं थी. ऐसा होता तो बैलेंस के नाम पर हम 'जंग-ए-आज़ादी' में अंग्रेजों का वर्ज़न चला भी रहे होते और मान भी रहे होते. फिर तो मिल चुकी थी आज़ादी.
अब तो प्रोफेसर यह सिखाएं कि जब GDP गिरे, तो गार्ड से कैसे सवाल पूछे जाएं. या बेरोज़गारी में ताले वाले को कैसे घेरा जाए. कोरोना के बढ़ते मामलों के लिए JCB के ड्राइवर को कैसे आड़े हाथ लिया जाए. और बढ़ते क्राइम के लिए पोस्टमैन को कैसे ज़िम्मेदार ठहराया जाए. छज्जा तो महज़ फलक है. पार कर जाइए, प्रोफेसर, आपकी पढ़ाई काम नहीं आ रही.
लेकिन अगर आप उस फंसे हुए पोस्टमैन जैसा महसूस कर रहे हैं. महज़ डाक देने आए आदमी पर सैकड़ों सवालों की बारिश से मेल खाते जज़्बात हैं आपके, इस कालचक्र में आप एक ऐसे पत्रकार हैं, जो रोज़ 'इज़्ज़त बनाम EMI' की जंग अपने मन में लड़ते रहते हैं - तो दोनों हाथ ऊपर उठाकर मेरे साथ बोलिए - मैं भी पोस्टमैन...
संकेत उपाध्याय NDTV ग्रुप में सीनियर एडिटर (राजनीति) हैं...
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