कश्मीर यात्रा का आज चौथा और आख़िरी दिन था। सुबह-सुबह टीवी पर खबर आ रही थी कि अलगाववादियों ने आज भी कश्मीर बंद का आह्वान किया है। रात में जो शॉल खरीदा था उसे वॉट्सअप पर देखकर एक रिश्तेदार का फ़ोन आ गया था कि उनके लिए भी खरीद लें। इस कमबख़्त वॉट्स अप की भी कम मुसीबत नहीं है। हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। बारिश में डल लेक और भी अद्भुत लग रहा थी। तभी डल में एक हरे रंग की बड़ी सी मशीन नज़र आयी। ये पानी में पनप रहे जंगली घास को साफ़ करने की मशीन थी। लेक एंड वाटरवेज डेवलपेंट ऑथरिटी समय-समय पर डल लेक की सफ़ाई करती है। हालांकि अतिक्रमण और प्लास्टिक के उपयोग के कारण डल लेक की हालत ठीक नहीं है।
पास वाले मार्केट में एक चक्कर मारने की सोची। बंद के कारण दुकानें बंद थी। लेकिन किस्मत से एक दुकान खुली थी। वही टीवी-18 में काम कर चुके बंदे की। हमें देखकर बड़ा खुश हुआ। दो बार उसके दुकान पर पहले जा चुके थे, लेकिन लिया कुछ नहीं था। जो कपड़े रात में हम देखकर गए थे वो भी तहकर उसने वापस नहीं रखे थे। लेकिन अब वो भी समझ गया कि आज तो ये ज़रूर कुछ खरीदेंगे। हाथ की कढ़ायी वाली जॉर्जेट की कश्मीरी साड़ी काफ़ी मशहूर हैं। उसके पास एक से बढ़कर स्टॉक थे। कीमत भी बेहद मुनासिब। हमारी खरीददारी से वे बहुत खुश हुए। खासकर कपड़े दिखा रहे बुजुर्ग से सज्जन जो दुकानदार के रिश्तेदार ही लग रहे थे।
'आपने बंद में भी दुकान कैसे खोल रखी है?', हमने पूछा 'हर दूसरे दिन तो यहां बंद होता है। इन सब के बीच ही हमें अपना काम करना होता है। गड़बड़ी की ख़बर मिलेगी तो शटर गिरा देंगे।'
इस बीच हमारे ड्राइवर कम, गाईड ज़्यादा आबिद का फ़ोन आ गया। हम जल्दी वापस होटल पहुंचे। सामान वगैरह पहले से ही पैक थे। सोचा कि अब आबिद हमें कारपेट के कारखाने और शिकारा मार्केट ले जाएगा। उसके बाद एयरपोर्ट ड्रॉप कर देगा।
गाड़ी में बैठते ही हमने पूछा, 'आज कहां ले जाओगे। कारपेट देखना था।'
'आज डाउन टाउन में कर्फ्यू है। वहां नहीं जा सकते'
बड़ी निराशा हुई। पता नहीं क्यों लगा कि आबिद सच नहीं बोल रहा है। शायद पिछली रात हमारा हिसाब-किताब करना उसे पसंद नहीं आया था। उसके और हमारे हिसाब से जो पैसे बन रहे थे उसमें 500 का अंतर था। पता नहीं आबिद को मैं कभी समझ ही नहीं पाया। बारिश के कारण शिकारा मार्केट जाने का प्रोग्राम भी रद्द करना पड़ा। हमारी शाम साढ़े 4 बजे की फ़्लाइट थी। पहले सोचा था कि आखिरी दिन का भी उपयोग हो जाएगा। लेकिन हुआ नहीं।
रास्ते में जान बेकरी से कुछ कुकीज पैक कराए। आबिद की बेटी के लिए कुछ चॉकलेट लिए। श्रीनगर एयरपोर्ट पर आपको कम से कम 3 घंटे पहले पहुंचना होता है। क्योंकि यहां आपको सुरक्षा जांच के कई चरणों से गुजरना पड़ता है। पहली जांच तो करीब आधा किलोमीटर पहले ही हो जाती है। सामान के साथ उतरना होता है। एक्सरे और जांच के बाद फिर गाड़ी पर बैठकर आगे जाना होता है। इस बीच गाड़ी की भी जांच की जाती है। उसके बाद एयरपोर्ट की अपनी जांच प्रक्रिया होती है। आख़िर में आपको अपने बैगेज़ की भी पहचान करानी पड़ती है।
तमाम सुरक्षा चक्र से गुज़र हम एयरपोर्ट के पोर्टिको में थे। आबिद ने हमें 12 बजे ही एयरपोर्ट पर ला पटका। हमारी फ्लाइट करीब साढ़े चार घंटे बाद थी। गुस्सा तो आया लेकिन किया क्या जा सकता था। खासकर कारपेट कारखाना नहीं जा पाने के कारण। मन में सवाल आया कि किसी ने 'पांच नुक्ते वालों' पर भरोसा नहीं करने की जो बात कही है क्या वो सही है। अलगाववादियों ने माहौल ही ऐसा बना दिया है कि समझ नहीं आता कि किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं।
बोर्डिंग पास के लिए लाइन में लग गए। हमारी बारी आयी तो उसने हमें ऊपर से नीचे तक देखा।
"आपकी फ़्लाइट कितने बजे की है?"
"क्यों..साढ़े चार बजे की।"
"आपका बोर्डिंग पास 2 बजे बनेगा।"
लाइन से निकले तो एयरलाइंस के एक बंदे ने पकड़ लिया।
"क्या आप प्रॉयरिटी बैगेज चाहेंगे।"
"इससे क्या होगा?'
"दिल्ली पहुंचने पर आपका बैगेज पहले आ जाएगा।"
"तो इसके लिए क्या करना होगा?"
"1000 रुपये देना होगा।"
"हमें कोई जल्दी नहीं है। हमें नहीं चाहिए।" बजट एयरलाइंस वालों को किसी तरह बस आपसे पैसा निकलवाना होता है।
एयरपोर्ट पर काफ़ी भीड़ थी। बैठने की जगह नही थी। वहां की दुकानों का जायजा लिया। जो बैट हमने 500 में खरीदे थे, यहां 2000 में मिल रहे थे। पहली मंजिल पर एक रेस्टोरेंट था वहां बैठने की जगह थी। सामने रनवे नज़र आ रहा था। आपको हैरानी होगी कि इस माहौल में भी यहां हर आधे घंटे पर फ़्लाइट उतरती-उड़ती रही। कुछ घंटे के बाद बोर्डिंग पास मिला तो अंदर गए। अब भी हमारे पास करीब ढाई घंटे थे। काफ़ी चहल-पहल थी। हम जहां बैठे वहां जूते और बैग की एक दुकान थी। ब्रैंड का नाम पहली बार सुना था। सामान काफ़ी महंगे थे। लेकिन ऐसे लोग खरीददारी कर रहे थे, जिनको देखकर नहीं लगता था कि वे खरीद भी सकते हैं। धड़ाधड़ बिक्री हो रही थी। वो परिवार भी नज़र आया जो हमारे साथ आते समय फ़्लाइट पर आया था। बोल-चाल से लग रहा था कि वो बिहार से आए हैं। मुस्लिम जान पड़ते थे। माता-पिता, पति-पत्नी और 2 बच्चे। अपने प्रदेश के जान पड़ते थे तो उनसे बात करने का मन तो किया लेकिन की नहीं।
शुक्र था कि फ्लाइट वक्त पर आ गई। आधे घंटे के अंदर हम प्लेन में थे। इतनी जल्दी तो बस की भी सफ़ाई नहीं हो पाती। ज़ेहन में खूबसूरत तस्वीरों और मन में यादगार पल को समेटे दिल्ली लौट रहे थे। कई बातें दिमाग में उन बादलों को तरह उमड़-घुमड़ रही थीं जो प्लेन की खिड़की से नज़र आ रहे थे। धरती के स्वर्ग माने जाने वाले कश्मीर के साथ हमने क्या किया है? 25 साल से चली आ रही हिंसा ने कश्मीर की खूबसूरती पर ग्रहण लगा दिया है। क्या आज फ़िरदौश होते तो भी क्या वे कह पाते-
"गर फ़िरदौस वर-रुए जमी अस्त
हमी अस्तो, हमी अस्तो, हमी अस्तो।"
इसका मतलब है- "अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो वो यहीं है। यहीं है यहीं है।" आज शायद फ़िरदौस को भी कश्मीर की हालत पर रोना आ आता। आतंकवाद के कारण विदेशियों ने तो यहां आना बंद ही कर दिया है। देश के लोग भी आए दिन हिंसा और बंद की ख़बरें सुन-पढ़-देखकर यहां आना नहीं चाहते। हम खुद पांच साल तक सोचते-सोचते अब जाने की हिम्मत जुटा पाए। यहां के नौजवानों के दिमाग में नफ़रत के ज़हर घोले जा रहे हैं। बात यहां तक पहुंच गई है कि कहा जाने लगा है कि कश्मीर में ज़मीन भारत की है लेकिन दिलों पर राज नहीं है। (हालांकि कई लोगों का तो ये भी मानना है कि अलगाववादी भारत से अलग होना चाहते ही नहीं। वे तो अलगाववाद की आड़ में भारत सरकार से ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाने की कोशिश करते रहे हैं। उन्हें पता है कि पाकिस्तान में मिलने या भारत से अलग होने से फ़ायदा कुछ नहीं।)
सवाल है कि कश्मीर में दिलों को जीतने के लिए क्या किया जाए। बात बचकानी लग सकती है लेकिन अगर मेरी बात सुनते तो मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सलाह देता कि कश्मीरियों का दिल जीतने के लिए "खान-पावर" का इस्तेमाल करें। क्योंकि संगीनों से दिल नहीं जीते जा सकते। यहां के नौजवानों के बीच बहुत ही ज़्यादा लोकप्रिय हैं तीनों खान- सलमान, शाहरुख़ और आमिर। सलमान को तो खासतौर पर 'हिट एंड रन' केस की सज़ा कम्यूनिटी सर्विस मुक्क़र्रर की जानी चाहिए। उन्हें कश्मीर आकर यहां के गुमराह हुए नौजवानों को मुख्यधारा में लाने का जिम्मा सौंपा जाना चाहिए। कम से कम 5 साल वे यहां आकर रहें। 28 साल की हॉलीवुड एक्ट्रेस लिंडसे लोहान ने 2012 में अपनी पोर्श से टक्कर मारी थी तो अदालत ने उन्हें 240 घंटे कम्यूनिटी सर्विस तय की थी।
आपको शायद यकीन नहीं हो, लेकिन अलगाववादी बॉलीवुड से बहुत घबराते हैं। 1989 में जब अलगाववादी आंदोलन खड़ा हो रहा था तब सबसे पहले उन्होंने यहां के सिनेमा हॉल को बंद कराना शुरू किया। कहा गया कि सिनेमा देखना इस्लाम के ख़िलाफ़ है। 90 के दशक की शुरुआत में लाल चौक के पास पैलेडियम सिनेमा को जला दिया गया। श्रीनगर में पैलेडियम के अलावा नाज़, शाह, ख़ैयाम, शिराज़ और फ़िरदौस सिनेमाघर बंद होते गए। ब्रॉडवे, नीलम, रीगल ने 1999 तक बहादुरी दिखाई। लेकिन रीगल में ग्रेनेड फेंके जाने के बाद सब एक-एक कर बंद हो गए। नीलम 2010 में बंद हुआ, जब डर से दर्शकों ने आना बिल्कुल बंद कर दिया।
हाल ही में फिल्म 'बजरंगी भाईजान' की शूटिंग करने कश्मीर गए सलमान ख़ान ने बयान दिया कि यहां के सिनेमा हॉल खुलने चाहिए तो अलगाववादियों को अच्छा नहीं लगा। महिला अलगाववादी गुट 'दुखतारन-ए-मिलत' की चीफ़ आसिया अंद्राबी की तो मानो तनबदन में आग लग गई। उन्होंने सलमान को भारत का एजेंट बताते हुए कहा कि वे 'कल्चरल अग्रेसन' की कोशिश कर रहे हैं। कश्मीर में सांस्कृतिक अतिक्रमण से दिलों को जीतने में हर्ज क्या है?
ख्यालों की तन्मयता भंग हुई प्लेन के टच डाउन के झटके से। दिल्ली एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही गर्मी, उमस और धूल भरी आंधी से फिर सामना हुआ। छींक का सिलसिला अगले दिन दवाईयों से ही रुक पाया।
अपनी लंबी और शायद उबाऊ डायरी को खत्म करते हुए यही कहना चाहूंगा कि एक बार आप भी हो आइए कश्मीर। बतौर टूरिस्ट आप सुरक्षित हैं।
This Article is From May 29, 2015
कश्मीर डायरी-13 : कश्मीरियों के दिल जीतने हैं तो 'खान पावर' का इस्तेमाल करें मोदी
Sanjay Kishore
- Blogs,
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Updated:मई 29, 2015 20:17 pm IST
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Published On मई 29, 2015 18:38 pm IST
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Last Updated On मई 29, 2015 20:17 pm IST
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