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This Article is From Aug 30, 2016

भारत में गैर-बराबरी खत्म करना कभी नहीं होता विकास का आशय

Sachin Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 30, 2016 14:32 pm IST
    • Published On अगस्त 30, 2016 14:32 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 30, 2016 14:32 pm IST
इस आलेख में आंकड़ों पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर है. निवेदन करता हूं, इनसे भागिएगा मत...! जिस तरह हम कई अन्य मोर्चों पर लड़ रहे हैं, एक बार इन आंकड़ों से भी लड़ लीजिए... मानता हूं, इससे विकास का एक कड़वा सच आपके सामने ज़रूर आएगा. हम जिन विचारों की बात करते हैं, उन विचारों और सिद्धांतों को और पुख्ता ढंग से बहस में रखने की हिम्मत मिलेगी इससे.

विकास, आर्थिक विकास और वृद्धि दर की जब बात हो, यह मान लेना चाहिए कि समाज के मूल सवालों से जिम्मेदारी को भटकाने की कोशिश की जा रही है. आज सब्जी का बाजार भाव क्या है; पूरी बहस और राजनीति इसी सवाल के इर्द-गिर्द घूमती है. शायद यह कहना वाजिब होगा कि इस तरह से घुमाई जाती है कि इसके अलावा कोई बड़ा सवाल खड़ा न हो सके. हालांकि हर साल हम कम से कम एक दिन अखबारों में यह खबर ज़रूर पढ़ते हैं कि दुनिया के चंद लोगों के हाथ में तीन-चौथाई संपत्ति और दौलत है. यह जानने की कोशिश कम ही की जाती है कि कुछ लोगों के हाथ में संपत्ति और संपत्ति के केंद्रित होने का मतलब क्या है...? 21वीं सदी को ऐसे आर्थिक विकास की सदी माना जा सकता है, जिसमें गैर-बराबरी एक अनिवार्य शर्त के रूप में लागू है. हवा और पानी का प्रदूषित होना विकास का सूचक है. जंगलों और पहाड़ों के नष्ट होने से आर्थिक विकास की दर, यानी वृद्धि दर बढ़ती है. इसमें बीमारियों का बढ़ना अच्छा शगुन माना माना जाता है, क्योंकि इससे ही दवाओं और अस्पतालों का कारोबार खूब लाभदायक बनता है.

क्रेडिट सुइस (Credit Suisse) रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा जारी रिपोर्ट – ग्लोबल वेल्थ डाटाबुक 2014 और 2015 से हमें पता चलता है कि वास्तव में आर्थिक विकास बहुत तेज़ी से विश्व को गैर-बराबरी की तरफ उड़ा ले जा रहा है. कुछ बिन्दुओं में इसे समझने की कोशिश करते हैं.

बहुत दर्दनाक होता है आंकड़ों से दर्द को मापना. जब आंकड़े समझ में आने लगते हैं तो दर्द कम नहीं होता, बढ़ने लगता है. हाल ही में क्रेडिट सुइस शोध संस्था की ताज़ा रिपोर्ट आई है, जो हमें बताती है कि दुनिया में कितनी संपत्ति है और वह किनके पास है. आज की तारीख में आय और संसाधनों के वितरण में गैर-बराबरी पर बात करने का काम सरकार और व्यवस्था-विरोधी कामों की श्रेणी में रखा जाता है. पर क्या गैर-बराबरी पर चुप रहना देश-मानव समाज और सभ्यता के प्रति गंभीरतम अपराध नहीं है...? जिन्हें लगता है कि इसके बारे में बात नहीं करनी चाहिए, वे अपनी पक्षधरता तय कर सकते हैं. उन्हें आर्थिक विकास का ढोल बजाना चाहिए, किन्तु उन्हें यह मान लेना चाहिए कि समाज, सभ्यता और आध्यात्म के बारे में कुछ कहने का उन्हें कोई नैतिक हक न होगा...!

जिस रिपोर्ट की मैं बात कर रहा हूं, वह हमें एक और आईना दिखाती है. इस रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2015 में भारत की कुल संपत्ति (जिसमें वित्तीय और गैर-वित्तीय संपत्ति दोनों शामिल हैं) का मौद्रिक मूल्य 46,980 खरब डॉलर या 30 लाख खरब रुपये है (इसे समझने के लिए 30 लाख के बाद 12 शून्य और लगा लीजिए) है. भारत में कुल 25 करोड़ परिवार हैं. यदि इस संपत्ति का समान वितरण हो तो हर परिवार के पास जितनी संपत्ति आएगी, उसका मौद्रिक मूल्य होगा 1.20 अरब रुपये. अब जरा आर्थिक सन्दर्भ में सोचिए, क्या भारत एक गरीब देश है...? क्या वास्तव में हमारे समाज में इस किस्म का वंचितपन होना चाहिए, जैसा हम देख और भोग रहे हैं...? लगभग छह करोड़ बच्चों में कुपोषण होना. पांच करोड़ लोगों के पास रोज़गार के स्थायी साधन न होना. फसल कटने के समय खलिहान में अनाज का उत्सव होने के बजाय, किसान के घर में आत्महत्या या सदमे से मौत का मातम होना. वास्तव में बुनियादी रूप से कुछ गड़बड़ है, जिसे छिपाया जा रहा है. समाज को बदलने की चाहत और आर्थिक विकास की नीतियों का मकसद सच को दबाकर रखना हो गया है, और हम हैं कि सच का सामना करना नहीं चाहते हैं.

वास्तव में गरीबी और वंचितपन तो है; आखिर क्यों...?
भारत की कुल संपत्ति (30 लाख खरब रुपये) में किसका कितना हिस्सा है...? यह ध्यान रखिएगा कि वर्ष 2015 की स्थिति में भारत में कुल परिवारों की संख्या 25 करोड़ के आसपास है. आप शायद जान भी लेंगे तो यकीन नहीं कर पाएंगे. यकीन करें या न करें, लेकिन सच तो यही है. भारत की कुल संपत्ति का 53 प्रतिशत हिस्सा, यानी लगभग 16 लाख खरब रुपये भारत के सबसे ऊपर के एक प्रतिशत सबसे संपन्न 25.4 लाख परिवारों के नियंत्रण में हैं. बात को थोड़ा और आगे बढ़ाते हैं. यदि हम संपन्न परिवारों की श्रेणी का और विस्तार करें, तो पता चलता है कि भारत के सबसे संपन्न 10 प्रतिशत परिवारों, यानी 2.5 करोड़ परिवारों के पास भारत की कुल संपत्ति का 76.3 प्रतिशत हिस्सा है. बाकी 90 फीसदी के हिस्से में आती है बची और साढ़े 23 प्रतिशत संपत्ति.

थोड़ा और आगे बढ़ते हैं. हमारे यहां राष्ट्र की कुल संपत्ति में से 60 प्रतिशत परिवारों (जो आर्थिक रूप से सबसे कमज़ोर माने जा सकते हैं) के पास केवल 6.6 प्रतिशत संपत्ति है. सबसे संपन्न 10 प्रतिशत लोगों के कब्ज़े में 76.3 प्रतिशत और सबसे गरीब 10 प्रतिशत लोगों के पास 0.1 प्रतिशत संपत्ति. क्या आप गैर-बराबरी का यथार्थ महसूस कर पा रहे हैं...? यह अंतर है - 763 गुना का. यदि स्वतंत्रता आई होती तो वर्ष 2015 का सच ऐसा न होता.

सब कुछ बाजार से तय होता है. यह भी कह सकते हैं कि हमने सब कुछ बाजार के हवाले कर दिया है, क्योंकि विकास के विद्वान कहते हैं कि पूंजी से ही विकास होता है, विकास से ही पूंजी आती है, पूंजी यदि आम लोगों के हाथ में ठहर जाएगी तो विकास नहीं हो पाएगा और हाहाकार मच जाएगा. हाहाकार तो मचता है, लेकिन विकास नहीं होना उसका कारण नहीं है. जब हाहाकार मचता है तो सुरक्षा के लिए सैनिक उतार दिए जाते हैं समाज में. हम यह क्यों महसूस नहीं कर पाते हैं कि आर्थिक-साम्पत्तिक गैर-बराबरी और संसाधनों के क्रूर दुरुपयोग ने समाज में वंचितपन को इतना बढ़ा दिया है कि किसान भूख और अपमान से मर रहा है. ज़रा सोचिए, कर्जे से चलने वाली खेती क्या किसान को गरिमा दे सकती है...? उसे गरिमा देने की जिम्मेदारी समाज की रही है, जिसे हमने निभाया नहीं और किसान को लाभ के लिए लालायित बाजार के हवाले कर दिया.

विकास के नाम पर पिछले ढाई दशक में हमने जो किया, उसके केंद्र में समाज का एक खास वर्ग था, जिसे मध्यम वर्ग कहा जाता है. उससे हम जल्दी-जल्दी कपड़े बदलवाते हैं, उसे नया टेलीविज़न और मोबाइल खरीदने के लिए बरगलाते हैं, उसे समझाते हैं कि काला रंग पिछड़ेपन का प्रतीक है, गोरे बनने के लिए 100 रुपये प्रति 10 ग्राम की कीमत वाली क्रीम लगाओ और एक हफ्ते में गोरापन पाओ. एक 'बाज़ारू महान' अभिनेता विज्ञापन करते हुए पाए जाते हैं कि लड़कियों वाली क्रीम लगाओगे तो मर्द नहीं कहलाओगे और आत्मविश्वास हासिल नहीं कर पाओगे. यह बाजार संपत्ति पर कब्ज़ा ज़माने के लिए बुरे, अनैतिक और भेदभाव बनाए रखने वाले संदेशों को आदर्श के रूप में स्थापित करता है. जानते हैं, जिसके दम पर विकास की यह गाडी दौड़ाई जा रही है, उस मध्यम वर्ग, यानी मिडिल क्लास का आकार भारत में क्या है...? देश की कुल जनसंख्या में केवल तीन प्रतिशत, यानी 2.36 करोड़ लोग इस श्रेणी में आते हैं. इन तीन प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 22.6 प्रतिशत हिस्सा है.

इसके बाद हमें जानकारी दी जाती है कि मौजूदा स्थिति में मध्य प्रदेश में 51.5, बिहार में 40.3 और उत्तर प्रदेश में 62 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के कारण ठिगने रह गए हैं. मध्य प्रदेश में 10 से 17 साल की उम्र के 82.4 प्रतिशत, बिहार में 85.3 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 90.9 प्रतिशत किशोरवय लड़के-लड़कियां खून की कमी के शिकार हैं. क्या इस स्थिति को बदलने की कोई भी पहल इस गैर-बराबरी के संकट से निपटे बिना करना संभव है...?

क्या हालात थे सहस्राब्दि की शुरुआत में...?
वर्ष 2000 में देश की कुल संपत्ति (1,163 बिलियन डॉलर) में से 36.8 प्रतिशत हिस्सा (428 बिलियन डॉलर) हिस्सा देश के एक प्रतिशत वयस्कों (57.11 लाख व्यक्तियों) के नियंत्रण में था. इस आधार पर इन सबसे धनी वयस्कों की प्रति व्यक्ति संपत्ति 74,935 डॉलर थी. इसके दूसरी तरफ बची हुई 63 प्रतिशत संपत्ति 99 प्रतिशत लोगों के पास थी. उनके पास प्रति व्यक्ति संपत्ति थी 1,300 डॉलर.

अब जरा 10 प्रतिशत लोगों की बात करते हैं. सबसे धनी 10 प्रतिशत वयस्क 5.7 करोड़ लोग भारत की 66 प्रतिशत संपत्ति पर नियंत्रण रखते थे. इनके पास 13,419 डॉलर प्रति व्यक्ति के मान से संपत्ति मौजूद थी, जबकि शेष 90 प्रतिशत आबादी की औसत संपत्ति थी 772 डॉलर.

वर्ष 2000 में सबसे ऊंचे एक प्रतिशत लोगों और 99 प्रतिशत के बीच की संपत्ति में 58 गुना का अंतर था, वर्ष 2014 में 95 गुना का. वर्ष 2000 में सबसे ऊंचे 10 प्रतिशत और शेष बचे 90 प्रतिशत लोगों के बीच 17 गुना का फासला दिखाई दिया, जो वर्ष 2014 में बढ़कर 26 गुना हो गया.

अदृश्य आबादी का सच...
एक प्रतिशत संपन्न बनाम 10 प्रतिशत सबसे गरीब - अदृश्य आबादी वह है, जो नए विकास की इमारत की नींव बनाने में इस्तेमाल की जाती है. नींव में डाल दिए जाने के बाद वह नज़र नहीं आती. भारत के आर्थिक रूप से सबसे गरीब 10 प्रतिशत लोगों के पास कुल संपत्ति का केवल 0.2 प्रतिशत हिस्सा है. इनकी प्रति वयस्क संपत्ति वर्ष 2000 में 41 डॉलर थी, जो वर्ष 2014 तक बढ़कर 93 डॉलर हो पाई. सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों और सबसे गरीब 10 प्रतिशत लोगों की कुल संपत्ति में वर्ष 2000 में 1,840 गुना का अंतर था, जो वर्ष 2005 में बढ़कर 2,150 गुना, 2010 में 2,430 गुना और वर्ष 2014 में 2,450 गुना हो गया. यही विकास का सबसे साफ़ दिखाई देने वाला परिणाम है.

देश के 70 प्रतिशत बनाम एक प्रतिशत...
गैर-बराबरी का अंदाज़ा किसी एक आंकड़े से कतई नहीं लगाया जा सकता. वर्ष 2014 में भारत की 70 प्रतिशत आबादी (वयस्क) के नियंत्रण में देश की केवल 9.1 प्रतिशत संपत्ति है. वर्ष 2000 में लगभग 42 करोड़ लोगों के पास प्रति व्यक्ति संपत्ति 265 डॉलर थी. यहां एक प्रतिशत और 70 प्रतिशत की आबादी के बीच 283 गुना का अंतर था, जो विकास करते-करते वर्ष 2014 में 328 गुना तक पहुंच गया.

इन परिस्थितियों में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब भी भारत में विकास की योजनाएं बनाई जाती हैं, तब उनका मकसद यह कभी नहीं होता है कि विकास का आशय गैर-बराबरी को खत्म करना है...! बहरहाल बात भारत की है, तो भारत का संविधान कहता है कि "राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों के बीच, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करेगा..."

सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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