गेहूं-धान पर केंद्रित रहा ज्यादा ध्यान
1960 के दशक के मध्य से जब खाद्य असुरक्षा से जूझ रहे भारत में खाद्यान्न की पर्याप्त उपलब्धता के लिए कोशिशें शुरू हुईं तब से ध्यान गेहूं और धान पर केंद्रित रहा. वर्ष 1965-66 से अपनाई गयी नीतियों के कारण कुछ सालों में गेहूं-चावल और गन्ने के उत्पादन में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हुई, खेत भी भरे और सरकार के गोदाम भी; किन्तु तब दाल पर ध्यान ही नहीं दिया गया. भारतीय सामाजिक-आर्थिक और खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था में अलग-अलग क्षेत्रों में लोग अपने घरेलू उपयोग के लिए दाल पैदा करते रहे थे. इसके साथ ही छोटे और मझौले किसान भी दाल पैदा करने में रुचि रखते थे किन्तु उन्हें कोई प्रोत्साहन ही नहीं मिला. आम आदमी की थाली से दाल के दूर होने का यह कारण रहा.
दाल का 17 फीसदी रकबा ही सिंचाई सुविधा से जुड़ा
अध्ययन बताते हैं कि 40 सालों तक कृषि क्षेत्र में दी गयी रियायत का लगभग 69 प्रतिशत हिस्सा इन तीन उत्पादों (गेहूं, चावल और गन्ना) के खाते में ही गया. आप देखिये कि गेहूं और धान का लगभग 84 प्रतिशत और गन्ने का 100 प्रतिशत रकबा सिंचाई की सुविधाओं से जुड़ा है, किन्तु दाल का 17 प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचाई से जुड़ा है. देश की राजनीति पर गेहूं और धान वालों का ज्यादा प्रभाव रहा, तिलहन और दलहन वालों का नहीं रहा तो भेदभाव की नीतियां बनती रहीं. लगभग 35 सालों तक दाल पर छा रहे संकट का असर दिखाई नहीं दिया या महसूस नहीं हुआ, क्योंकि देश के छोटे और मझौले किसान अपनी जरूरत के लायक दलहन उगा रहे थे. उनकी बाज़ार पर पूरी निर्भरता नहीं थी. जब बीजों, पानी का संकट आया और नकद फसलों का असर बढ़ने लगा, तब दाल के संकट की धार पता चलना शुरू हुई.
अमेरिका से मिली मदद के साथ कुछ शर्तें भी थोपी गई थीं
अब जरा दाल और रोटी को मिलाकर देखते और जांचते हैं कि क्या वास्तव में हम खाद्य सुरक्षा, किसान और मिट्टी के प्रति ईमानदार और प्रतिबद्ध रहे हैं? सब जानते हैं कि 1960 के दशक में भारत एक ऐसी स्थिति में पंहुच गया था, जबकि उसके पास खाद्यान्न के भंडार लगभग नहीं के बराबर बचे थे. तब अमेरिका से पशु-भोजन का हिस्सा बनने वाला गेहूं भारत को मानवीय सहायता के रूप में दिया गया. अमेरिका कभी कोई सहायता मानवीयता के साथ नहीं देता है, वह अपने राजनीतिक-आर्थिक और सामरिक हितों को ध्यान में रखकर समझौते करता है. उस राहत के साथ भी शर्त साथ आई थी कि हम खेती में नई तकनीक, नयी मशीनें और नए बीज इस्तेमाल करेंगे. ये तकनीकें अमेरिका से ली जाएंगी क्योंकि यही उसका व्यापार भी रहा है. मजबूरी में ही सही, भारत ने उन शर्तों को माना. आज भी हम उन समझौतों को सही ठहराते हैं और कहते हैं कि भारत अब खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर देश है. जरा इसकी भी पड़ताल करते हैं.
आबादी बढ़ने से खाद्यान्न उत्पादन में हम जस के तस
भारत के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक पिछले 45 सालों में भारत में कुल खाद्यान्न का उत्पादन 10.8 करोड़ टन से बढ़कर 25.27 करोड़ टन हो गया; किन्तु इसी दौरान जनसंख्या भी 55.13 करोड़ से बढ़कर 128 करोड़ हो गई यानी खाने की थाली के मामले में हम वहीं के वहीं हैं. वर्ष 1970-71 में भारत में प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता 468.8 ग्राम थी, जो कि वर्ष 2014-15 की स्थिति में 491.2 ग्राम है; यानी 45 सालों में प्रति व्यक्ति उपलब्धता के मामले में हम कुछ भी आगे नहीं बढ़ पाए हैं. इसमें केवल 4.8 प्रतिशत की वृद्धि दिखाई देती है.कुल खाद्यानों में जब हम दाल पर नज़र डालते हैं, तब चित्र और गंभीर हो जाता है. वर्ष 1970-71 में दाल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 51.2 ग्राम प्रतिदिन थी, जिसमें लगभग 8 प्रतिशत की कमी आई है और अब यह 47.2 ग्राम के स्तर पर है, जबकि औसत जरूरत लगभग 80 ग्राम की है.
खाद्यान उत्पादन के रकबा बढ़ने के बजाय कम हुआ
हमें दो पहलुओं को खंगालने की जरूरत है. सबसे पहली कि अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए हमने खाद्यान उत्पादन के रकबे को कितना बढ़ाया? जवाब है बिलकुल नहीं! वर्ष 1970-71 में 12.43 करोड़ हैक्टेयर जमीन पर अनाज उत्पादन होता था, उसमें 22 लाख हैक्टेयर की कमी हुई है; यह जमीन विकास के नाम पर अन्य प्रयोजनों के लिए ले ली गयी, अधिग्रहीत कर ले गयी या छीन ली गयी. वर्ष 2014-15 में कुल 12.21 करोड़ हैक्टेयर जमीन खाद्य सुरक्षा के लिए उपलब्ध थी. अनाजों के उत्पादन की जमीन का रकबा 10.18 करोड़ हैक्टेयर से घट कर 9.9 करोड़ हैक्टेयर रह गया.
दालों का रकबा जरूर थोड़ा सा बढ़ा
दालों की जरूरत हमेशा महसूस होती रही किन्तु इसका रकबा 2.26 करोड़ हैक्टेयर से थोडा सा बढ़कर 2.31 करोड़ हैक्टेयर तक पंहुचा. यह याद रखियेगा कि वर्ष 2000 में यह 2 करोड़ हैक्टेयर तक के स्तर तक कम हो गया था. सबसे बड़ा संकट तो मोटे और पौष्टिक अनाजों पर आया है. हरित क्रांति में एकरूप उत्पादन को बढ़ावा दिया गया जिससे स्थानीय अनाजों की खूब उपेक्षा हुई. जरा देखिये कि मोटे और पौष्टिक अनाजों के उत्पादन का रकबा 47 प्रतिशत कम हुआ है और यह 4.6 करोड़ हैक्टेयर से घटकर 2.41 करोड़ हैक्टेयर पर आ गया. योजना यह रही है कि रकबा बढ़ाने के बजाये उत्पादकता को बढ़ाया जाए, इसके लिए रसायनों के उपयोग को बढ़ाया गया. हरित क्रांति के बाद भारत में खाद्यानों की उत्पादकता (किलोग्राम उत्पादन/हैक्टेयर) में 2.37 गुने की वृद्धि हुई, अनाज की उत्पादकता में 2.71 गुने प्रतिशत की वृद्धि हुई, दलहन की उत्पादकता में 1.42 गुने की, मोटे अनाजों की उत्पादकता में 2.60 गुने और तिलहन की उत्पादकता में 1.79 गुने की वृद्धि हुई. जरा सोचिये कि जब रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में 11.74 गुने वृद्धि हुई हो, तब क्या इसे बेहतर स्थिति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है?
जरूरत इस बात की थी लेकिन हमने यह किया
भारत को खाद्य संप्रभुता और आजीविका की सुरक्षा के मद्देनज़र देशज कृषि तकनीकों को केंद्र में रखकर खाद्य और पोषण सुरक्षा नीतियां बनाने की जरूरत थी, पर हमने बाज़ार और मुनाफे के मकसद से नीतियां बनायी, जिसमें किसान के मुनाफे या आय को कभी तवज्जो नहीं दी गयी. इन नीतियों में यह माना गया कि खेती में, खासतौर पर खाद्यान्न सुरक्षा की फसलों का रकबा नहीं बढ़ाना चाहिए और रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करके उत्पादकता बढ़ाना चाहिए. उन तकनीकों को पूरी तरह से खारिज कर दिया गया, जिनमें देशाजता होते हुए भी उत्पादकता बढाने की क्षमता थी. यही कारण है कि पशुधन और अन्य कृषि गतिविधियों की उपेक्षा की गयी और उन्हें बहुत नुकसान पंहुचाया गया.
रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में करीब 12 फीसदी वृद्धि
वर्ष 1970-71 में भारत 21.77 लाख टन रासायनिक उर्वरकों (एन.पी.के) का उपयोग करता था; वर्ष उपयोग 2014-15 में यह बढ़ कर 2.56 करोड़ टन (20 किलो रसायन उर्वरक प्रतिव्यक्ति) पर पंहुच गया. देश में खाद्यान्न उत्पादन का रकबा तो नहीं बढ़ा, पर कुल उत्पादन में 134 प्रतिशत की वृद्धि हुई; लेकिन इस वृद्धि को हासिल करने की जद्दोजहद में रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में 11.77 गुने की वृद्धि हो गयी. जिस 2.56 करोड़ टन उर्वरक का हम उपयोग करते हैं, उसमें से लगभग 36 प्रतिशत (91.4 लाख टन) उर्वरक का कम आयात करते हैं, यानी उस मामले में भी हमें आत्मनिर्भर नहीं रहने दिया गया.
विभिन्न संगठनों की इस मांग को सरकार ने नहीं माना
जब पिछली सरकार (कांग्रेस नीत यूपीए) ने जब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून बनाने की कवायद शुरू की, तभी जन संगठनों, किसान समूहों, बाल अधिकार संगठनों और विशेषज्ञों ने यह मांग की थी कि इस क़ानून में अनाज और मिलेट्स के साथ दालों और खाने के तेल को भी शामिल किया जाए. इसके लिए भारत सरकार दाल और खाने के तेल की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी की ठोस नीति बना पाएगी. जब किसानों से इनकी खरीदी होगी तो इनके उत्पादन को भी प्रोत्साहन मिलेगा और दलहन-तिलहन का उत्पादन बढ़ेगा; लेकिन ऐसा हो नहीं किया गया क्योंकि दालों का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फलक पर व्यापार करने वाली कंपनियों को यह विचार कभी नहीं सुहाया, इस कदम से दालों के उत्पादन और आयात पर से उनका एकाधिकार टूटता. यदि भारत सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून में दालों और खाद्य तेल को शामिल करती, तो भारत में प्रोटीन और वसा की कमी के कारण बने हुए कुपोषण को खत्म करने की सकारात्मक पहल शुरू हो पाती.
सरकार ने इसके पीछे दिया था यह तर्क
सरकार ने तब यह तर्क दिया था कि देश में दालों और तेल का उत्पादन इतना है ही नहीं कि सरकार उसकी खरीद कर सके और राशन की दुकान से इनके वितरण की व्यवस्था की जा सके. तब सरकार को यह चिंता सता रही थी कि इससे खाद्य सुरक्षा सब्सिडी का खर्चा बढ़ जाएगा; लेकिन यदि व्यापक संदर्भों में देखा जाए तो वह सब्सिडी कई मायनों में रचनात्मक निवेश साबित होती और हमारे विदेशी आयात पर खर्च होने वाली 450 करोड़ डालर की विदेशी मुद्रा की सालाना बचत भी होती.
दाल के बहाने देश के हाल को समझना होगा
दाल का आयात वास्तव में भारत की अंदरूनी कमजोरी का प्रमाण है. इस आयात के चलते हम कभी भी खाद्य सुरक्षा की स्थिति हासिल नहीं कर सकते हैं. इतना ही नहीं हमें यह भी सोचना चाहिए कि हमने शोषण के खिलाफ संघर्ष करके स्वतंत्रता हासिल की हैं, कहीं हम खुद अफ्रीकी देशों के प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल अपने लिए करके उन्हें उपनिवेश बनाने की दिशा में तो नहीं बढ़ रहे हैं! सच तो यह है कि हमें दाल की बढती हुई कीमतों पर आंसू नहीं बहाना चाहिए; हमें दाल के बहाने देश के हाल को समझना चाहिए और अपनी पक्षधरता तय करना चाहिए कि किस ओर हैं हम? खेती, किसानी और मजदूर के पक्ष में या मुनाफाखोर नीतियों और व्यवस्था के !
सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
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