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This Article is From Aug 30, 2015

लैंड बिल पर मोदी सरकार जीती या हारी

Akhilesh Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 31, 2015 13:43 pm IST
    • Published On अगस्त 30, 2015 17:57 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 31, 2015 13:43 pm IST
ये अपने बूते बहुमत पाई सरकार कि पहली बड़ी राजनीतिक लड़ाई थी। मगर उसे अपने पैर पीछे खींचने पड़े हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तो पटना की स्वाभिमान रैली में कह भी दिया कि संसद में विपक्ष की लड़ाई रंग लाई है और इसीलिए सरकार को भूमि अध्यादेश पर झुकना पड़ा है। जाहिर है विपक्ष अपनी जीत का दावा करेगा और बीजेपी कहेगी कि उसने किसानों के हितों में ही सारे फैसले किए हैं। आखिर हकीकत क्या है।

दरअसल, भूमि अधिग्रहण पर अध्यादेश लाना सरकार के लिए इसलिए जरूरी था कि यूपीए के 2013 के कानून में 13 क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण से जुड़े कानूनों को बाहर रखा गया था। ये कहा गया था कि उन्हें एक साल के भीतर दायरे में लाना होगा, ताकि किसानों के हितों को ठेस न पहुंचे। इसी बीच, मोदी सरकार बनने के बाद ये सोच बनी कि यूपीए का कानून बेहद पेचीदा है और अगर अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ानी है, तो नए प्रोजेक्ट तब तक आगे नहीं बढ़ पाएंगे। जब तक कि उनके लिए जमीन लेने की प्रक्रिया को सरल न बनाया जाए।

तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने जब जून 2014 में इस मुद्दे पर मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई तो पता चला कि कांग्रेस शासित राज्यों समेत कई राज्यों के मुख्यमंत्री मानते हैं कि यूपीए का कानून पेचीदा है और इसमें सुधार होने चाहिए। पेचीदा होने के साथ ही यूपीए के कानून के प्रारूप में कई गलतियां भी थीं, जिन्हें दुरुस्त करना जरूरी माना गया।

मोदी सरकार औद्योगिक जगत को संदेश देना चाहती थी कि वो अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाने के प्रति गंभीर है और इस रास्ते में आई रुकावटों को दूर करना चाहती है। यही वजह है कि सरकार ने यूपीए के कानून में बड़े संशोधन करने का फैसला किया।

एनडीए के अध्यादेश में मुआवज़े, सहमति, औद्योगिक गलियारे जैसे प्रावधानों में ये सोच कर बदलाव किया गया कि इससे भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को सरल तथा औद्योगिक जगत के प्रति नरम बनाया जा सकेगा।

लेकिन एनडीए ने एक बड़ी चूक कर दी।
उसने ये बड़े संशोधन करने से पहले विपक्षी दलों से सलाह-मशविरा नहीं किया। वैसे तो कई क्षेत्रीय दलों को इन संशोधनों पर अधिक ऐतराज नहीं था, मगर प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने ये तय कर लिया कि वो किसी भी सूरत में इनका समर्थन नहीं करेगी। कांग्रेस को इसमें एक बड़ी संभावना नजर आई कि इस बिल के जरिए मोदी सरकार पर किसान विरोधी होने के आरोप लगाए जा सकते हैं। उसने ऐसा ही किया।

गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खुद के नाम लिखे सूट ने कांग्रेस को एक बड़ा मौका दे दिया। राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि ये किसान विरोधी और सूट-बूट की सरकार है। बीजेपी बचाव की मुद्रा में आ गई और समूचा विपक्ष आक्रामक हो गया।

बीजेपी को दिक्कतें घऱ के अंदर से भी थीं। यूपी-बिहार के कई सांसदों ने पार्टी आलाकमान तक बात पहुंचाई कि भूमि-अधिग्रहण बिल को लेकर सरकार पर किसान विरोधी होने का ठप्पा लग रहा है। उनका कहना था कि इससे विधानसभा चुनावों में पार्टी को दिक्कत आ सकती है। वहीं संघ परिवार के भीतर भी आवाज़ें उठने लगीं। भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों ने भी एनडीए के बिल का विरोध करना शुरू कर दिया। अकाली दल और शिवसेना जैसी सहयोगी पार्टियां भी खिलाफ हो गईं।

शुरुआत में तो बीजेपी अड़ी रही। तमाम सांसदों को लैंड बिल के फायदे गिनाए गए। बैंगलुरु में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में बाकायदा प्रजेंटेशन दिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने मासिक रेडियो प्रसारण 'मन की बात' में बिल का भरपूर बचाव किया। मगर धीरे-धीरे सरकार ने कदम पीछे खींचने शुरू कर दिए।

सरकार सबसे पहले संयुक्त समिति के गठन के लिए तैयार हुई। ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी वीरेंद्र सिंह बार-बार किसानों के हितों में संशोधन लाने की बात कहने लगे और ऐसा किया भी गया। इसके बावजूद कांग्रेस टस से मस नहीं हुई। वो अड़ गई कि यूपीए के कानून को बहाल किया जाए। उसे ये समझ में आ गया कि सरकार दबाव में आ रही है।

राज्य सभा में अपनी भारी संख्या का इस्तेमाल करते हुए कांग्रेस कई अन्य पार्टियों को भी साथ लेने में कामयाब रही। सबसे नाटकीय घटनाक्रम तीन अगस्त को हुआ जब संयुक्त समिति की बैठक में सरकार ने खुद ही विवादास्पद संशोधनों को वापस लेने का फैसला किया।

ये ऊपरी तौर पर चाहे सरकार की हार नजर आए मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत चतुराई से एक बड़ा राजनीतिक फैसला कर लिया है। उन्होंने अध्यादेश दोबारा जारी न करने का फैसला कर बेहद महत्वपूर्ण बिहार विधानसभा चुनावों से ठीक पहले पार्टी को भूमि अधिग्रहण के खुद के बनाए जाल से बाहर निकालने की कोशिश की है। इस कदम से विपक्ष के हाथ से एक बड़ा मुद्दा तो छिन ही गया है बीजेपी भी अब ये कह रही है कि सरकार किसानों के हितों में फैसले करती है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि सरकार ने अधिग्रहण के लिए राज्य सरकारों को कानून बनाने का अधिकार देने का फैसला किया है। चूंकि भूमि-अधिग्रहण समवर्ती सूची में है इसलिए राज्यों के कानूनों पर केंद्र का कानून हावी होता। मगर सरकार का फैसला है कि जो भी राज्य कानून बना कर भेजेंगे, केंद्र उन्हें राष्ट्रपति से मंजूरी दिलवाएगी। इसके पीछे सोच ये है कि बीजेपी शासित राज्य एनडीए के प्रस्तावित कानून के आधार पर ही आगे बढें और अगले तीन साल में जमीन पर कुछ करके दिखाया जाए, ताकि वो कांग्रेस शासित राज्य जो यूपीए के पेचीदा भूमि अधिग्रहण कानून के रास्ते पर चलना चाहते हैं उनसे उनकी तुलना की जा सके।

तीसरी बात ये भी है कि सरकार ने तेरह कानूनों को शामिल करने के लिए कार्यकारी आदेश जारी करने का रास्ता अपनाया है। इससे एक नई बहस छिड़ जाएगी कि क्या सरकार संसद को दरकिनार करना चाहती है। मगर ये औद्योगिक जगत को एक संदेश भी है कि संसद में गतिरोध के चलते बिल पास न होने पर सरकार के पास आर्थिक सुधारों और विकास को रफ्तार देने के लिए और भी संवैधानिक रास्ते मौजूद हैं।

आखिर में यही कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूमि अधिग्रहण बिल को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाते हुए एक लचीले रुख का परिचय दिया है। ये उनके आलोचकों को भी संदेश है जो कहते हैं कि मोदी किसी की नहीं सुनते। भूमि अधिग्रहण बिल पर उन्होंने सबकी सुन कर ही ऐसा फैसला किया जो चाहे फौरी तौर पर सरकार की छवि को ठेस पहुंचाता हो मगर राजनीतिक रूप से बीजेपी के लिए फायदेमंद ही रहेगा।

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