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This Article is From Aug 15, 2019

भारत के विभाजन और स्वतंत्रता में महाशक्तियों की भूमिका

Amit
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 15, 2019 17:31 pm IST
    • Published On अगस्त 15, 2019 17:31 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 15, 2019 17:31 pm IST

आज़ादी की लड़ाई की कहानी हमने कई तरह से सुनी है. 15 अगस्त भारतीय राष्ट्र राज्य की पूर्णता प्राप्त करने का दिन है. लेकिन आज़ादी कोई एक दिन में नहीं आई. उसके पीछे पूरी एक सदी का संघर्ष रहा. और उसके भी पीछे एक सदी की गुलामी. कम लोगों को पता होगा कि 18वीं, 19वीं सदी तक भारत दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में एक था. इस वजह से दुनिया के कारोबारियों और हुक्मरानों की नज़र भारत पर होती थी. यूरोप ही नहीं, रूस और अमेरिका तक भारतीय जगमगाहट का जलवा था. बेशक, भारत की गुलामी और आज़ादी के सारे अभिशाप और वरदान भारत की ही कोख से निकले थे, लेकिन दुनिया भर का पर्यावरण अपनी-अपनी तरह से इन प्रक्रियाओं को पोषण दे रहा था. आज 200 साल बाद यह देखकर कुछ हैरानी होती है कि रूस और अमेरिका जैसी महाशक्तियां किस तरह इस उपमहाद्वीप में दिलचस्पी लेती रहीं, किस तरह यहां की क़िस्मत को प्रभावित करने की कोशिश करती रहीं.

विभाजन में रूस
18वीं सदी तक पुर्तगाली, डच, अंग्रेज और फ्रंसीसियों के अलावा रूस के महान शासक पीटर को पता था कि भारत के व्यापार का दुनिया (यूरोप) के लिए क्या मतलब था. पीटर का निष्कर्ष था कि ‘भारत का व्यापार विश्व का व्यापार है और जो भी उस पर अधिकार करेगा वह यूरोप का अधिनायक होगा.' लेकिन न तो पीटर ने स्वयं और न ही रूस के किसी अन्य ‘महत्वपूर्ण' शासक ने भारत को जीतने की कोशिश की. सिर्फ एक को छोड़कर.

फ्रांसीसी क्रांति के बाद नेपोलियन से पूरा यूरोप डरा हुआ था, नेपोलियन के दूरगामी लक्ष्यों में रूस को भी जीतना था. लेकिन उससे पहले, बहुत कम समय के लिए रूस के एक शासक रहे पॉल (प्रथम) ने नेपोलियन के साथ मिलकर भारत को जीतने की योजना बनाई. लेकिन जब यह योजना ज़मीन पर उतारी गई तो बीच में पॉल की हत्या कर दी गई. रूस के नए शासक एलेक्ज़ेंडर ने इस अभियान को बीच में ही रोक दिया. फिर किसी रूसी शासक ने भारत को जीतने की योजना बनाई हो, इसका उदाहरण नहीं मिला. इच्छा रही होगी, तो वह इतिहास में दर्ज नहीं हुई है. रूसी साम्राज्य बाल्टिक को पार नहीं कर पाया लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य बढ़कर ईस्ट में समांतर रूप से रूस को पार कर गया था. भारतीय उपमहाद्वीप में उसकी उत्तरी सीमा रूसी साम्राज्य से टकरा रही थी.

18वीं सदी की अंत में जब नेपोलियन और पॉल भारत को जीतने की योजना बना रहे थे, उसी समय भारत के पंजाब में राजा रणजीत सिंह अपना साम्राज्य बढ़ा रहे थे. 1818 में उन्होंने कश्मीर पर अधिकार कर लिया था. 1838 में पंजाब के रणजीत सिंह, क़ाबुल के शाहशुजा और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच एक त्रिपक्षीय संधि हुई. यह संधि रूसी शासकों द्वारा अफगान और उससे लगते हुए इलाक़ों में हस्तक्षेप को रोकना था. यानी रूस भले आगे ना बढ़ा हो लेकिन ब्रिटिशर्स एक सुरक्षा दीवार सुनिश्चित करना चाहते थे.

यह क्रम रणजीत सिंह के बाद कश्मीर के डोगरा राजा गुलाब सिंह के समय भी जारी रहा. गुलाब सिंह और बाद के राजाओं के समय कलकत्ता और फिर दिल्ली में बैठी अंग्रेजी हुकूमत कश्मीर के उत्तरी इलाके का प्रशासन सीधे अपने अधिकारियों के नियंत्रण में रखती थी. इसकी विधिवत शुरुआत साल 1876 में उस समय हुई जब भारत के गर्वनर जनरल के कहने पर गिलगित के इलाके पर नज़र रखने के लिए ब्रिटिश पॉटिलिकल ऑफिसर की नियुक्ति की गई. एक बार जब नियुक्ति हो गई तो कोई भी बहाना बनाकर महाराजा को चेतावनी देने, उन पर अपना नियंत्रण बढ़ाने के रास्ते खुल गए. ऐसा ही एक आरोप साल 1888 में लगाया गया कि महाराजा रूस के ज़ार से पत्र-व्यावहार करते हैं, जिसकी प्रकृति राजद्रोहात्मक है. ऐसे आरोप षड्यंत्र का हिस्सा होते थे और हर बार महाराजा अपनी शक्तियां अंग्रेजी हूकूमत को देते जाते.

एशिया में दो साम्राज्यों की इसी प्रतिद्वंद्विता को रुडयार्ड किपलिंग ने ‘द ग्रेट गेम' कहा और एक रूसी विदेश मंत्री काउंट के.वी. नेसलरॉड ने इसे 'टूर्नामेंट ऑफ़ शेडोज़' कहा. यानी एक ऐसा युद्ध अथवा संघर्ष जो कभी वास्तव में हुआ ही नहीं, बस प्रतिस्पर्धा ही चलती रही.

1917 में रूसी क्रांति की सफलता के बाद रूस की कोशिश दक्षिण में स्थित तुर्की, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान से संबंधों को मजबूत करना था. अफगानिस्तान में वहां के शासक अमानुल्लाह और रूस के बीच संबंध घनिष्ठ हुए. यह 1930 का दशक था. दोनों साम्राज्यों की यह प्रतिद्वंद्विता रूसी क्रांति से और बढ़ गई थी. दोनों अलग-अलग विचारधाराओं के प्रतिनिधि थे और दोनों की कोशिश ज़्यादा से ज़्यादा क्षेत्रों को अपने पाले में लेने की थी. यही वो वजह थी, जिसने ब्रिटिशर्स को उपमहाद्वीप में एक ऐसे देश के निर्माण के लिए उकसाया जो रूसी साम्राज्य के ख़िलाफ़ ब्रिटेन का मददगार हो सके. उत्तर-पश्चिम में बनने वाला पाकिस्तान अंग्रेजों की 'सुरक्षा दीवार के लिए सबसे उपयुक्त था.

ब्रिटिश हुक्मरानों को लगता था कि स्वतंत्रता के बाद भारत के नेता रूस के विरुद्ध शायद ही उनकी कोई मदद करें लेकिन लीग के मोहम्मद अली जिन्ना इस तरह की हर तरह की मदद के लिए हमेशा तैयार थे. और हों भी क्यों न, अफगान शासक अमानुल्लाह की मौत के बाद ब्रिटेन ने अफ़ग़ानिस्तान में उन्हीं कट्टरपंथी शक्तियों का साथ दिया, जो रूस का विरोध करने वाली और लीग की तरह मज़हब को सबसे ऊपर रखती थीं.

तेल की उपलब्धता के कारण स्वतंत्रता के बाद ब्रिटेन को मुस्लिम राष्ट्रों से सहयोग भी चाहिए था, ईरान में तेल को लेकर ब्रिटेन और रूस की प्रतिद्वंद्विता चली आ रही थी. ऐसे में पाकिस्तान की मांग ना मानकर ब्रिटेन पूरे मुस्लिम जगत से अपने रिश्तों में खटास नहीं लाना चाहता था. मुस्लिम लीग और जिन्ना ने ब्रिटेन से जो वादे किए थे, विभाजन के बाद उन्होंने पूरी शिद्दत से उन्हें निभाया. सीटो (SEATO) और सेंटो (CenTO) में पाकिस्तान की सदस्यता इसे पुख़्ता करती है.

कश्मीर का मामला
ब्रिटिशर्स सिर्फ पाकिस्तान के निर्माण से ही संतोष करने वाले नहीं थे. किसी एक देश में मिल जाने को लेकर कश्मीर के राजा का ढुलमुलपन देखकर उन्होंने यहां उन्हीं संभावनाओं को जीवित कर दिया, जो गुलाब सिंह के समय मौज़ूद थीं, कि क्यों न इसके उत्तर में एक इलाक़ा ऐसा हो, जो रूस के ख़िलाफ़ उनके हितों को सुरक्षित रखे. 1935 में कश्मीर के महाराजा ने उत्तरी हिस्से की जिम्मेदारी अंग्रेजों को 60 सालों की लीज पर दे दी थी. अब यहां का प्रशासन दिल्ली में पॉलिटिकल डिपार्टमेंट द्वारा चलाया जा रहा था. इसके बाद जब से लॉर्ड वेवेल ने भारत के विभाजन की योजना रखी थी, उनकी इच्छा थी कि उत्तरी कश्मीर का इलाका सीधे उनके प्रभाव में रहे. ऐसा चाहे स्वतंत्र कश्मीर के साथ हो या पाकिस्तान के साथ कश्मीर के विलय की स्थिति में. भारत के साथ अगर कश्मीर जाता तो अंग्रेजों की यह मनोकामना पूरी न हो पाती.

कश्मीर के महाराजा भी उत्तर कश्मीर में स्थित गिलगित को सीधे अपने प्रशासनिक नियंत्रण में रखने में कठिनाई महसूस करते थे. एक तो यहां सर्दियों में मौसम बहुत ठंडा होता, दूसरा महाराजा के पास इतने संशाधन नहीं थे. इसीलिए पाकिस्तान ने कबायलियों के भेष में जब आक्रमण किया तो उस समय इस इलाके का प्रशासन अंग्रेजों के हाथ में था. उसके बाद जो हुआ, हम उस इतिहास से परिचित हैं. भारत में कश्मीर के विलय के बाद गिलगित-बाल्टिस्तान कश्मीर से कट गया.

स्वतंत्रता में अमेरिका
1942 में क्रिप्स प्रस्ताव के असफ़ल होंने से अमेरिका 'अब क्या होगा?' के मोड में आ गया था. जापान की आक्रामकता मित्र देशों की चिंता का प्रमुख कारण बन चुकी थी. चीन, सोवियत रूस के साथ-साथ अमेरिका को भी लगता था कि एशिया में जापानी ख़तरे से निपटने के लिए भारतीय मोर्चे पर पूरी तरह से चाक-चौबंद रहना होगा. इसलिए अगर भारतीय जनमानस को अपने पक्ष में नहीं किया गया तो यहां जापान के प्रति सहयोगी रवैया जन्म ले सकता है.

इसके अलावा साल 1941 में घोषित हुए अटलांटिक चार्टर के अनुसार अमेरिका एशिया और अफ्रीकी देशों की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्धता जता चुका था. यह चार्टर विश्व युद्ध के बाद दुनिया कैसी होनी चाहिए, इसकी घोषणा करता है.

दूसरी दृष्टि, जिसके कारण अमेरिका भारत में शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण चाहता था, वह थी युद्धोत्तर समय में सोवियत रूस का भारत में प्रभाव. पहले बिना भारतीयों के पूछे उन्हें विश्व युद्ध में शामिल करना और फिर तीन साल बाद भारत छोड़ो आंदोलन को जिस क्रूरता से दबाया गया था, उससे अमेरिका की यह शंका बेवजह भी नहीं थी. अगर भारत की जनता ख़ून-ख़राबे से स्वतंत्रता हासिल करेगी तो निश्चित ही वह पूंजीवादी पश्चिमी देशों के गुट में क्यों रहना चाहेगी.

12 अगस्त 1942 को अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने चीन के च्यांग काई शेक को एक संदेश भेजा कि अटलांटिक चार्टर के तहत अमेरिका उन सभी देशों की स्वतंत्रता का समर्थन करता है जो स्वतंत्र होना चाहते हैं. लेकिन चर्चिल अपनी जिद पर अड़े थे. अगले दिन यानी 13 अगस्त को चर्चिल ने च्यांग काई शेक को लिखा कि कांग्रेस हमसे भारत भारत छोड़ने को कह रही है. ऐसा कहते हुए वे हमसे सहयोग की बात कर रहे हैं. यह सब आंखों में धूल झोंकना है. चर्चिल के अनुसार अगर हमने उनकी बात मानी तो वे कल जापान का स्वागत करने में देर नहीं लगाएंगे.

इससे लगता है कि चर्चिल अपनी बात ने नहीं डिगना चाहते थे. अमरीका ने थोड़ी और सख़्ती दिखाई और 24 अगस्त 1942 को अमेरिका ने अपने यहां ब्रिटिश राजदूत को बुलाकर साफ़ शब्दों में कहा कि अटलांटिक चार्टर को पूरी दुनिया में एक समान लागू कराना चाहता है. अगर उसे अपने-अपने हितों को ध्यान में रखकर लागू किया गया तो दिक्कतें आएंगी. अमेरिकी गुस्से को भांपते हुए ब्रिटिश राजदूत ने उत्तर में बस इतना कहा, 'आपने तो बहुत बड़ी बात कह दी है.'

अटलांटिक चार्टर के अलावा अमेरिका ब्रिटेन को यह भी समझा रहा था कि युद्ध में स्वतंत्रता-समानता की बड़ी-बड़ी बातें करते हुए हमें अपने जनमानस को भी साथ लेना है और इसके लिए भारत के साथ भी वही व्यवहार किया जाना चाहिए जिसके लिए अमेरिकी जनता युद्ध को समर्थन दे रही है. उसी साल सितंबर-अक्टूबर के बाद हिंसक हो चुके भारत छोड़ो आंदोलन को निर्दयता से कुचल दिया गया और जापानी आक्रमण का भय भी ओझल हुआ तो चर्चिल को कुछ राहत मिली. अब उन्हें अमेरिका को बार-बार सफ़ाई नहीं देनी थी.

इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर तो ब्रिटेन अमरीका को शांत कर पाया लेकिन आगे जब भी किसी मुद्दे पर ब्रिटेन और अमेरिका में अनबन होती, अमेरिका तुरंत भारत का मुद्दा उछाल देता.

भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के एडीसी रहे नरेंद्र सिंह सरीला ने इसे कुछ यूं लिखा है, 'जैसा एक शिकारी अपनी दुनाली बंदूक में एक कारतूस कैसा भी रखता लेकिन वह दूसरे कारतूस के रूप में हमेशा भारत को ही रखता था.' भारत की स्वतंत्रता में अमेरिकी भूमिका पर नरेंद्र सिंह ने लिखा है कि 'हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम चरण में अमेरिका ने ब्रिटेन को राजी करने में जो भूमिका निभाई, उसे हमने कभी नहीं पहचाना.'

आज का ग्रेट गेम
अब अगर हम 21वीं सदी में दुनिया और एशिया में भारत की स्थिति और भूमिका देखें तो कश्मीर की स्थिति, उसके ऊपर रूस, पूर्व में चीन, पश्चिम में इस्लामी दुनिया, दक्षिण में स्वयं भारत और हर जगह मौजूद रहने वाला अमेरिका आज भी इस ग्रेट गेम को खेल रहे हैं. अंतर बस इतना है कि उस समय भारत एक प्यादा था, आज इस ग्रेट गेम का बड़ा और प्रमुख खिलाड़ी है.

संदर्भ-
1-The Shadow of the Great Game: The Untold Story of India's Partition (Narendra Singh Sarila)
2-Kashmir: Constitutional History and Documents (MK Teng)
3-Russia Beyond

(अमित एनडीटीवी इंडिया में असिस्टेंट आउटपुट एडिटर हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
 

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