डेंगू से दिल्ली में 7 साल के बच्चे अविनाश उर्फ बिट्टू की मौत और इससे टूटे उसके मां-बाप की आत्महत्या ने झकझोर कर रख दिया। झकझोर दिया निजी अस्पतालों की संवेदनहीनता ने। एक अस्पताल से दूसरे, दूसरे से तीसरे और फिर चौथे अस्पताल में बच्चे को लेकर चक्कर काटते रहे बेबस मां-बाप। .....एक अस्पताल में जगह मिली तो बच्चे की सांसों ने जवाब दे दिया। एकलौती औलाद के चले जाने का गम इस दंपति से बर्दाश्त नहीं हुआ। बिल्डिंग से छलांग लगाकर जिंदगी भर के सदमे से पीछा छुड़ा लिया।
उस दंपति की मनोदशा की कल्पना कर ही मन सिहर जाता है। अपनी आंखों के सामने अपने बच्चे का साथ छोड़ती सांसें, इसके लिए जिम्मेदार अस्पतालों की संवेदनहीनता और सिस्टम की बेरुखी यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि एक आम इंसान की जान की क्या कोई कीमत नहीं है। डेंगू हर साल आता है, हर साल लोग इसके जहरीले डंक से मारे जाते हैं। क्यों हम हर साल होने वाली मौतों से सबक नहीं लेते? यह जिम्मेदारी हमारे नगर निगम की है कि ढंग से छिड़काव हो। पानी को जमा होने से बचाया जाए, लेकिन सिविक संस्थाओं के साथ-साथ यह जिम्मेदारी हम सबकी भी है।
इस साल डेंगू के मरीजों में 38 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है। बीते 5 सालों में इस साल डेंगू ने सबसे ज्यादा लोगों को प्रभावित किया है। सरकारी अस्पतालों में एक बेड पर 3 -3 मरीज लेटे पाए गए हैं। दिल्ली सरकार जागी है। एक हजार बेडों की खरीददारी होने जा रही है। किसी भी मरीज को लौटाने की इजाजत नहीं है। लेकिन जब कोई अस्पताल किसी मरीज को लौटाता है तो वह यह नहीं सोचना चाहता कि मरीज को गर कहीं और भी जगह न मिली तो उसकी मौत की जिम्मेदारी किसकी होगी ?
इस केस में पहले मूलचंद मेडसिटी, साकेत मैक्स और फिर आईरीन अस्पताल ने बच्चे के मां-बाप को दूसरे अस्पताल में ले जाने की सलाह देकर पल्ला झाड़ लिया। आखिरकार काफी दौड़ धूप के बाद बच्चे के पिता ने किसी तरह बत्रा अस्तपाल में एक बेड का इंतजाम किया। भरती होने के चंद घंटों में बच्चे ने दम तोड़ दिया। अगर उसे समय रहते मूलचंद, मैक्स या फिर आईरीन अस्पताल में जगह मिल जाती तो शायद अविनाश इस तरह जिंदगी की जंग न हारता। उसके मां-बाप का यह हश्र न होता। डेंगू ने एक परिवार को खत्म कर दिया। वैसे यह कहना ज्यादा सही होगा कि अस्पतालों की संवेदनहीनता ने एक परिवार की जान ले ली। दिल्ली सरकार ने अच्छा किया कि इनका लाइसेंस रद्द करने की चेतावनी के साथ जवाब मांगा। लाइसेंस रद्द हो तो सख्त संदेश जाएगा, गर न हो तो भारी भरकम जुर्माना तो लगना ही चाहिए।
डेंगू बेशक गंभीर बीमारी है, लेकिन लाइलाज नहीं है। कितने ही लोग हर साल इसकी चपेट में आकर इलाज से भले-चंगे हो जाते हैं। एक नागरिक के तौर पर डेंगू के प्रकोप के सीजन में हम सबकी यह जिम्मेदारी बनती है कि हम सजग रहें। किसी भी बुखार को हल्के में न लें। जान कीमती है और इसके लिए हम ऐन मौकों पर बस अपने अस्पतालों के भरोसे नहीं रह सकते। हम जानते हैं मरीजों के मुकाबले सरकारी अस्पतालों का अनुपात क्या है। निजी अस्पताल अपनी मनमर्जी के मालिक हैं। इनकी जवाबदेही बढ़नी चाहिए।
भावनाओं के आवेश में जान देने वाले मां-बाप की मनोदशा समझना किसी भी अभिभावक के लिए मुश्किल नहीं, लेकिन इस हताशा और सदमे में हमें यह याद रखना चाहिए कि हम जो कर सकते हैं वह जरूर करें और डेंगू की रोकथाम में साथ दें।
This Article is From Sep 14, 2015
ऋचा जैन कालरा की कलम से : डेंगू और दिल्ली का दर्द
Richa Jain Kalra
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 14, 2015 17:45 pm IST
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Published On सितंबर 14, 2015 17:36 pm IST
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Last Updated On सितंबर 14, 2015 17:45 pm IST
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