सिर्फ कार्ल मार्क्स की किताबें पढ़ोगे तो डर से घिरे रहोगे। कुछ और किताबें पढ़ो। ऐसा ही कुछ व्योमकेश बख्शी ने उस लड़के से कहा, जो निकला तो था क्रांति करने मगर पार्टी की आलोचना करने के कारण पार्टी से घिर गया। अब पार्टी के लिए किए अपने गुनाहों और मारने के लिए पीछा कर रहे पार्टी के लोगों से बचना चाहता था। इसलिए झोले में उस्तरा लेकर चलता था।
फ़िल्म ख़त्म होती है तो वामवादी लड़का नायक और जासूस व्योमकेश बख्शी से नई किताबें मांगता है। बख्शी उसे सोवियत साम्यवाद के आलोचक जॉर्ज ओरवेल की किताब एनिमल फ़ार्म पढ़ने के लिए देता है, लेकिन व्योमकेश का सहायक उसके हाथ से एनिमल फ़ार्म ले लेता है और कहता है कि बांग्ला किताब पढ़ो।
याद नहीं कब इतनी भीड़ के साथ कोई फ़िल्म देखी थी। शायद राजा बाबू या दबंग देखी होगी, लेकिन कोलकाता का बंगाली दर्शक टॉलीवुड की फ़िल्मों को जिस जुनून से देखता है उसकी तुलना में तमाम मार्केटिंग प्रपंचों के बाद भी हिन्दी सिनेमा का दर्शक नहीं देखता होगा। नवीना सिंगल सिनेमा थियेटर है। यहीं आज हमने बांग्ला फ़िल्म 'व्योमकेश फिरे ऐलो' (व्योमकेश फिर आ गया) देखी। थियेटर हर उम्र के दर्शक खचाखच भरा था। पर्दे पर व्योमकेश का टाइटल आते ही लोग ख़ुश हो गए।
शुरू में मैंने कम्युनिस्ट क्रांति के नाम पर पार्टीबाजी और लुम्पनगिरी के प्रसंग का ज़िक्र इसलिए किया ताकि यह झलक मिल सके कि बंगाल वाम-स्मृति से कितना दूर निकल आया है और उसके पास लेफ्ट की कैसी बचीखुची छवि है। दर्शक भी इस प्रसंग का प्रतिकार नहीं करते, बल्कि स्वाभाविक रूप से स्वीकार करते हैं।
'व्योमकेश फिरे ऐलो' एक बेहतरीन फ़िल्म है। कहानी कहने और पकड़कर रखने में बांग्ला फ़िल्मों का क्राफ्ट मुंबइया फ़िल्मों से कहीं ज़्यादा चुस्त है। शायद इसी का असर होगा कि कोलकाता की पृष्ठभूमि पर बनी सुजॉय घोष की फ़िल्म 'कहानी' जासूसी का रोमांच पैदा करती है। मुंबइया फ़िल्मकारों ने भी जासूसी फ़िल्म बनाई है, लेकिन कोलकातावासियों के मुक़ाबले काफी कमज़ोर हैं। फ़िल्म साउंड और डिजिटल इफ़ेक्ट के सहारे नहीं बढ़ती, बल्कि कसा हुआ संवाद और प्लॉट उसे आगे बढ़ाता है।
जासूसी का रोमांच बंगाल के साहित्य में अब भी बचा है। शरदेंदु बंधोपाध्याय ने व्योमकेश बख्शी पर क़रीब तीस उपन्यास लिखे हैं। सत्यजीत रे से लेकर रितुपर्णो तक कई बड़े निर्देशकों ने व्योमकेश बख्शी के किरदार को लेकर फ़िल्में बनाई हैं। 'व्योमकेश फिरे ऐलो' अंजन दत्ता प्रोडक्शन की तीसरी फ़िल्म है।
जासूसी और हत्या के प्रसंग को इतने कसे हुए तरीके से फ़िल्माया है कि दर्शक मंत्रमुग्ध होकर देखते रहते हैं। अभिनय भी शानदार है। लौटने वाले दर्शकों के चेहरे पर अच्छी फ़िल्म देखने का इत्मिनान है। बस व्योमकेश बाबू का हर बात पर सिगरेट जला लेना अच्छा नहीं लगा। संवैधानिक चेतावनी के बाद भी फ़िल्म के कई सारे किरदार सिगरेट ही पीते रहते हैं। कोई नैतिक टिप्पणी नहीं कर रहा, लेकिन ये तो वही बात हो गई कि बिना सिगरेट के जासूसी हो ही नहीं सकती। फिर इसे बंगाल के संदर्भ में देखना होगा। सड़क पर हर दूसरा आदमी सिगरेट पीता दिखता है। आप बस फ़िल्म देखिये अगर बांग्ला समझ लेते हैं तो।