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This Article is From Aug 02, 2016

इस्तीफा - अंदरूनी राजनीति में आनंदी बेन का मास्टर स्ट्रोक?

Rajiv Pathak
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 02, 2016 19:37 pm IST
    • Published On अगस्त 02, 2016 18:38 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 02, 2016 19:37 pm IST
गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल के इस्तीफे को आम तौर पर दबाव के चलते लिए गए कदम के तौर पर देखा जा रहा है. लेकिन सरकार में उनके समर्थक पार्टी की अंदरूनी राजनीति में इसे उनका मास्टर स्ट्रोक मान रहे हैं, अब समझिए आखिर क्यों?

नरेन्द्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तब मुख्यमंत्री की कुर्सी के दो सबसे बड़े दावेदार थे. पहला दावा अमित शाह का माना जाता था और दूसरा आनंदी बेन पटेल का. मोदी ने आनंदी बेन को चुना तभी से यह तय माना जाता था कि शाह को भी बड़ी जिम्मेदारी दी जाएगी. आखिर शाह को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया. लगा कि दोनों को मोदी ने संतुष्ट कर लिया है. लेकिन जमीनी तौर पर ऐसा कभी नहीं रहा. दिखने में भले अमित शाह का पद ज्यादा ऊंचा लगे लेकिन आनंदी बेन पटेल का पद ज्यादा असरदार था. आनंदी बेन को अपने कोई भी फैसले लेने का खुद अधिकार था, शाह का हर फैसला मोदी की मुहर का मोहताज. शाह के खेमे को गुजरात में यह बात हमेशा कचोटती रही.

मोदी ने भी दोनों में सामंजस्य बनाने के लिए थोड़े अधिकार अमित शाह को भी दिए. जैसे कि गृह विभाग में कोई भी तब्दीली अमित शाह से बिना पूछे आनंदीबेन नहीं कर सकती थीं. इसकी एक मिसाल देखें तो गुजरात में जब पीसी ठाकुर को डीजीपी के पद से हटाया गया तो राज्य का नया पुलिस मुखिया आनंदीबेन गीता जौहरी को बनाना चाहती थीं ताकि राज्य की प्रथम महिला मुख्यमंत्री के तौर पर वे यह दावा कर सकें कि उन्होंने राज्य को प्रथम महिला डीजीपी भी दी है. लेकिन इस फैसले में शाह की सहमति नहीं थी, लिहाजा शाह के चहेते अफसर पीपी पांडे को इंचार्ज डीजीपी बना दिया गया. हालांकि वे भी दोनों में आपसी अनबन के चलते और पुराने केसों की वजह से पूर्णकालीन डीजीपी नहीं हैं. लेकिन सिर्फ गृह विभाग से ही शाह खेमा संतुष्ट नहीं था. वह तो हमेशा से अमित शाह को ही काबिल वारिस मानता रहा नरेन्द्र मोदी का. शाह खेमे की पार्टी में संगठन में अच्छी पकड़ रही. इसीलिए कभी भी भाजपा ने पार्टी के तौर पर आनंदीबेन को स्वीकारा ही नहीं. जब भी बात निकली, तो शाह समर्थक यह कहते रहे कि आनंदीबेन से न हो पाएगा - वे गुजरात में दोबारा भाजपा को जीत नहीं दिला पाएंगी.

पहली बार जब पिछले साल अगस्त में राज्य में पाटीदार आरक्षण आंदोलन हिंसक हुआ तब से यह बातें पार्टी के सर्किल में होती रहीं कि आनंदीबेन को कभी भी मुख्यमंत्री पद से हटाया जा सकता है. इतना ही नहीं अमित शाह अब पार्टी में दिल्ली में काजी बन गए थे तो दिल्ली में भी यह खबरें फिज़ा को गर्म करती रहीं. लेकिन आनंदीबेन मोदी के समर्थन पर मुश्ताक थीं. वे बेखौफ अपनी सरकार चलाती रहीं. दबी जुबान में आनंदीबेन पटेल खेमा यह आरोप भी लगाता रहा कि पाटीदार आरक्षण आंदोलन को शाह की शह है.

इसी बीच पिछले साल नवम्बर में स्थानीय निकाय के चुनाव आए. अमित शाह खेमे को आशा थी कि भाजपा बुरी तरह हार जाएगी. लेकिन यह हार सिर्फ ग्रामीण इलाकों में दिखी, शहरों में भाजपा का कब्ज़ा बरकरार रहा. आनंदीबेन पटेल को मोहलत मिल गई. इस दौरान पार्टी के भीतर आनंदीबेन और संगठन के बीच एक कोल्ड वॉर चलता रहा. एक जगह तो आनंदीबेन ने कथित तौर पर यहां तक कह दिया था कि संगठन अगर कामों के लिए कार्यकर्ता नहीं जुटा सकता तो वह सरकारी योजनाओं से बनी महिला मंडल की बहनों से ही पार्टी का काम ले सकती हैं.

आनंदीबेन लगातार इस बात को लेकर झल्लाई रहीं कि अमित शाह खेमे ने उन्हें कभी भी खुलकर मुख्यमंत्री के तौर पर काम नहीं करने दिया. वे इस बात से भी अनजान नहीं थीं कि शाह खेमा लगातार एक ही बात कर रहा है कि अगर गुजरात को बचाना है तो अमित शाह को ही बतौर मुख्यमंत्री लाना पड़ेगा.

इस बीच 18 जुलाई को ऊना में दलितों पर कुछ कथित गौरक्षकों ने बर्बर अत्याचार किया. मामले ने तूल पकड़ लिया. दलित पूरे राज्य में ही नहीं पूरे देश में आहत दिखाई दिए. विरोध में दलितों ने सड़कों पर से मृत पशु उठाना बंद कर दिया. कई युवाओं ने विरोध में जहर तक पिया. परिस्थिति साफ तौर पर आनंदीबेन के हाथों से सरकती चली गई.

पाटीदार आंदोलन का खामियाजा भाजपा को सिर्फ गुजरात में ही भुगतना था लेकिन दलित आंदोलन का खामियाजा गुजरात से बाहर पूरे देश में भुगतना पड़ सकता था. पहली बार लगा कि मोदी भी अब आनंदीबेन की कुर्सी बचा नहीं पाएंगे. सभी को यह विश्वास था कि 21 नवम्बर को उनके जन्मदिन के दिन वे इस्तीफा दे देंगी या फिर जनवरी में होने वाले वाईब्रेन्ट गुजरात बिजनेस इन्वेस्टर समिट के बाद देंगी. क्योंकि अब उनके 75 साल पूरे हो रहे थे और पिछले दिनों में भाजपा ने 75 साल पूरे कर चुके कई नेताओं से इस्तीफे लिए हैं.

जनवरी तक अमित शाह उत्तर प्रदेश चुनावों का अपना अधिकांश अभियान पूर्ण कर चुके होते और दो-तीन महिनों में वहां चुनाव भी सम्पन्न हो गए होते. शाह खेमे को यह लगता था कि यह बेहतरीन मौका होगा शाह की तख्तनशीनी का. अमित शाह भले ही मना करें लेकिन जिस तरह से उन्होंने समय न होने के बावजूद गुजरात में अपने विधायक पद से इस्तीफा नहीं दिया था, इससे इशारा साफ जाहिर था कि उन्हें भी इच्छा तो है ही.

आनंदीबेन के करीबी कहते हैं कि उन्हें लगा कि तीन चार महिने बाद इस्तीफा तो देना ही है, क्यों न अभी दे दिया जाए. इससे वे अपना सियासी बदला ले पाएंगी. अमित शाह का फिलहाल यूपी की जिम्मेदारी से मुक्त होना संभव नहीं, ऐसे में किसी और को मुख्यमंत्री बनाना पड़ेगा. वे सीधे-सीधे अमित शाह का पत्ता काट सकती हैं. आखिर जो भी मुख्यमंत्री बनेगा उसे अब 6 महिने में हटाया जाना संभव नहीं वरना पार्टी की बुरी तरह किरकिरी हो सकती है. यानि दिसम्बर 2017 तक तो कम से कम वे अमित शाह को गुजरात आने से रोक ही सकती हैं. सामने से इस्तीफा देने में कम से कम यह भी होगा कि नया मुख्यमंत्री कौन होगा यह तय करने में उनकी भी हिस्सेदारी रहेगी. अगर दबाव में होता तो उन्हें यह मौका नहीं मिलता.

इंसानी फितरत है कि जिद ऐसी चीज़ है कि अगर बिस्किट मैं नहीं खाऊंगा तो तुझे भी नहीं खाने दूंगा। अपना गिरने से ज्यादा दूसरे को न मिलने में ज्यादा संतुष्टि मिलती है कभी-कभी...

(राजीव पाठक एनडीटीवी के चीफ करस्पांडेंट हैं)

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