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This Article is From Sep 19, 2019

झारखंड में पेड न्यूज का नया चेहरा

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 19, 2019 01:25 am IST
    • Published On सितंबर 19, 2019 01:24 am IST
    • Last Updated On सितंबर 19, 2019 01:25 am IST

पेड न्यूज़ का नया रूप आया है. आया है, तो क्या कमाल आया है. क्या आपने या किसी नॉन रेज़िडेंट इंडियन ने यह सुना है कि सरकार अपनी योजनाओं की तारीफ छपवाने के लिए टेंडर निकाले और पत्रकारों से कहे कि वे अर्जी दें कि कैसे तारीफ करेंगे? विदेशों में ऐसा होता है या नहीं, ये तो नान रेज़िडेंट इंडियन ही बता सकते हैं कि क्या वाशिंगटन पोस्ट, गार्डियन, न्यूयार्क टाइम्स अपने पत्रकारों से कहे कि वे सरकार का टेंडर लें, उसकी योजना की जमकर तारीफ करते हुए लेख लिखें और फिर उसे दफ्तर ले आएं ताकि फ्रंट पेज पर छाप सकें? इसलिए कहा कि ऐसा कमाल बहुत कम होता है. युगों-युगों में एक बार होता है जब चाटुकारिता आफिशियल हो जाती है. वैसे भी होती है लेकिन जब विज्ञापन निकले, तारीफ के पैसे मिलें, यह बताया जाए तो चाटुकारिता पारदर्शी हो जाती है. चाटुकारिता में पारदर्शिता का यह अदभुत उदाहरण है. इसलिए मैंने नान रेज़िडेंट इंडियन से मदद मांगी है कि वे बताएं कि यूरोप, अमेरिका या आस्ट्रेलिया में ऐसा होता है या नहीं. मैं झारखंड सरकार के जनसंपर्क निदेशालय के एक विज्ञापन की बात कर रहा हूं. इस विज्ञापन के अनुसार योग्य पत्रकारों को 16 सितंबर के दोपरह 3 बजे तक आवेदन जमा कर देना है.

झारखंड के जनसंपर्क निदेशालय के निदेशक की ओर से जारी किए गए इस विज्ञापन में लिखा है- वर्तमान सरकार की योजनाओं से संबंधित पत्रकारों हेतु आलेख प्रकाशन. प्राप्त आवेदनों से कुल 30 पत्रकारों का चयन विभाग द्वारा गठित समिति करेगी. चयनित 30 पत्रकारों को समिति की अनुशंसा पर अधिकतम 15000 रुपये आलेख प्रकाशन के उपरांत प्रदान किए जाएंगे. चयन होने के बाद सभी चयनित पत्रकार को 30 दिनों के भीतर चयनित विषयों पर आलेख तैयार कर अपने या अन्य किसी मीडिया संस्थान में प्रकाशित कर प्रकाशन सामग्री की कतरन को विभाग में 18.10.2019 तक समर्पित करना होगा. इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रतिनिधि को अपने आलेख के प्रसारण का वीडियो क्लिप बनाकर डीवीडी विभाग में दिनांक 18.10.2019 तक समर्पित करना होगा. विभाग द्वारा विमोचित पुस्तिका में प्रकाशन हेतु 25 आलेखों का समिति द्वारा चयन किया जाएगा एवं संबंधित 25 चयनित आलेखों के पत्रकारों को 5.5 हज़ार रुपये विभाग द्वारा सम्मान राशि के रूप में प्रदान की जाएगी.

इस विज्ञापन की भाषा और शर्तों को ठीक से समझना होगा. पहले पत्रकार आवेदन करेंगे, तो उनका चयन किस आधार पर होगा? क्या वे किसी लेख का सैंपल देंगे या बायोडेटा के आधार पर चयन होगा? बहरहाल, पत्रकार का चयन होगा, उनसे लेख लिखवाया जाएगा. जब वह लेख उनके अखबार में छप जाएगा, या दूसरे अखबार में छप जाएगा तो पैसा मिलेगा. फिर सरकार 30 लेख में से 25 का चयन कर एक पुस्तिका बनाएगी और उसके लिए अलग से पांच हजार प्रति लेख दिया जाएगा. आखिर कैसे कोई अखबार अपने पत्रकार को इसकी इजाजत दे सकता है? यह सब कुछ विज्ञापन के ज़रिए सबकी आंखों के सामने हो रहा है. चुनाव के वक्त पत्रकारों का काम होता है कि वे जमीन पर जाकर योजनाओं की असलीयत छापें, लेकिन यहां तो उन्हें आफर दिया जा रहा है कि आप तारीफ में लेख लिखें और हर लेख के 20000 रुपये ले जाएं.

क्या यह पेड न्यूज़ का कोई नया संस्करण है, क्या ऐसा होना चाहिए? यह सब आपको सोचना है, जिसके लिए काफी देर हो चुकी है. वैसे ही सरकार अपनी योजनाओं के प्रचार पर लाखों रुपये खर्च करती है. होर्डिंग लगाती है, अखबारों में विज्ञापन देती है, मगर पत्रकारों को लेख लिखने के पैसे देगी? ज़ाहिर है उस लेख में सिर्फ तारीफ ही तारीफ होगी. बाद में अखबार में छपे लेख को उठाकर किताब बना देगी कि देखिए मीडिया और पत्रकार उसकी योजनाओं की कितनी तारीफ कर रहे हैं. क्या यह अच्छा है? क्या ऐसा होना चाहिए? तो फिर आप अखबार किसलिए खरीदेंगे, टीवी क्यों देखेंगे? अगर तरह-तरह से पत्रकार और मीडिया को प्रभावित करने के तरीके निकाले जाएंगे तो आम जनता तक मीडिया की सच्चाई कैसे पहुंचेगी? नॉन रेज़िडेंट इंडियन को कैसे पता चलेगा कि भारत के अखबारों में जो लेख छपा है उसकी तारीफ के लिए सरकार ने टेंडर निकाला है?

झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन ने इसे सरकारी भ्रष्टाचार बताया है. हेमंत सोरेने ने झारखंड सरकार, प्रेस काउंसिल, केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय को टैग करते हुए ट्वीट किया है कि अब यह आफिशियल हो चुका है कि हमारे माननीय मुख्यमंत्री रघुबर दास ने नैतिकता और सिद्धांतों के सभी नियम ताक पर रख दिए हैं. सरकार का प्रचार विभाग खुला विज्ञापन दे रहा है कि पत्रकार विकास पर लिखें और फीस के तौर पर पैसे कमाएं.

हिन्दू अखबार में राज्य के जनसंपर्क विभाग के उपनिदेशक अजय नाथ झा का बयान छापा है. जिसमें वे कहते हैं कि यह पेड न्यूज़ नही है. पत्रकारों से आवेदन मांगा गया है कि वे सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के बारे में लिखें. उनके लेख कामयाब कहानी हो सकती है और आलोचनात्मक हो सकती है. हम अपनी योजनाओं का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन कराना चाहते हैं.

विज्ञापन में ऐसा कुछ नहीं लिखा है कि जो लेख होंगे उनमें सरकार की योजनाओं की आलोचना भी हो सकती है. अगर सरकार को अपनी योजनाओं पर आलोचनात्मक लेख छपवाने हैं तो वह पत्रकार खुद कर सकते हैं, यह काम तो अखबार का है. क्या वाकई आप दर्शक इतने भोले हैं कि सरकार पैसे देकर स्वतंत्र पत्रकारों से आलोचनात्मक मूल्यांकन कराएगी? क्या आप सारी बातें समझ पा रहे हैं कि खबर क्या है, विज्ञापन क्या है? हमने प्रेस काउंसिल आफ इंडिया की एक ऐसी कमेटी के सदस्य रहे प्रांजय गुहा ठाकुरता से बात की है. प्रांजय ने कई साल पहले एक उपसमिति में काम किया था, 'पेड न्यूज़, हाउ करप्शन इन द इंडियन मीडिया अंडरमाइन्स डेमोक्रेसी' मतलब बिकी हुई खबर कैसे भारत के लोकतंत्र को कमज़ोर कर रही है. 36000 शब्दों की वह रिपोर्ट है जो प्रेस कांउंसिल आफ इंडिया की वेबसाइट पर उपलब्ध है.

तो आप सोचें कि हम कहां आ चुके हैं. सरकार विज्ञापन निकाल रही है, पत्रकारों से कह रही है कि उसकी योजनाओं की तारीफ करें, अपने अखबारों में छपवाएं और पैसे ले जाएं. फिर भी उप निदेशक कहते हैं कि स्वतंत्र पत्रकारों से समीझा कराना चाहती है. साफ-साफ लिखा है कि अपने या दूसरे अखबार में... मतलब यही हुआ कि किसी अखबार में काम करने वाले पत्रकार भी आवेदन कर सकते हैं. अगर सरकार को अपनी योजनाओं की समीक्षा ही करवानी है तो क्यों नहीं वह सीएजी रिपोर्ट को विज्ञापन के तौर पर छपवा देती है जिसे तैयार करने में जनता का करोड़ों रुपया खर्च होता है. टेलिग्राफ अखबार के अचिंत्य गांगुली ने 29 दिसंबर 2018 को एक रिपोर्ट छापी थी. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि झारखंड विधानसभा पटल पर सिल्क, टेक्सटाइल, हैंडिक्राफ्ट डेवलपमेंट कारपोरेशन की रिपोर्ट पेश की गई. सीएजी ने इस विभाग में बड़े पैमाने पर वित्तीय घोटाला पकड़ा है. फर्ज़ी रिकार्ड बनाकर 18.41 करोड़ रुपये कंबल बांटने पर खर्च किए गए. क्या झारखंड सरकार पत्रकारों को अपने लेख में ऐसी सूचना डालने के लिए 15000 रुपये देगी? बिल्कुल नहीं देगी. अब आप सोचिए, यूपी के मिर्ज़ापुर के पत्रकार पवन कुमार जयसवाल ने कौन सा गुनाह किया था जिनके खिलाफ एफआईआर हो गई. उन्होंने भी तो सरकार की एक योजना की समीक्षा पेश की थी कि सरकार करोड़ों खर्च करती है फिर भी मिड डे मील में रोटी और नमक खाने को दिया जा रहा है. यूपी में एफआईआर और झारखंड में आलोचनात्मक समीक्षा के लिए 20,000 हज़ार.

एक ट्रेंड चल रहा है. हर हफ्ते एक नई थीम लांच होती है जिस पर मीडिया बहस करने लगता है और बाकी मुद्दों को भूल जाता है. इस हफ्ते का टापिक है हिन्दी. हिन्दी को लेकर बहस योग्य बयान दिए जा रहे हैं. इसी तरह संस्कृत को लेकर बहस योग्य बयान दिए जाते थे लेकिन संस्कृत का क्या हुआ? तब संस्कृत को लेकर भावुकता पैदा की जा रही थी. बनारस की सड़कों पर कैंडल मार्च संस्कृत को लेकर क्यों हो रहा है फिर. आप संस्कृत को लेकर कुछ कह दीजिए, हो सकता है सारे चैनल झांव-झांव करने लगें, शहर का शहर उमड़ पड़े. लेकिन संस्कृत को लेकर हो रहे इस कैंडल मार्च का हाल देखिए जैसे लगता है कि सारा बनारस आजकल फ्रेंच बोलने लगा है. किसी को संस्कृत से मतलब ही नहीं है. 18 दिनों से संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में धरना प्रदर्शन क्यों चल रहा है. यह भारत की बड़ी संस्कृत यूनिवर्सिटी है. लेकिन क्या आपने पांच साल में इसके बारे में कोई बड़ी खबर सुनी. क्या संस्कृत में शपथ लेकर या दो-चार श्लोक ट्वीट कर धाक जमाने वाले नेताओं में से कोई संपूर्णानद संस्कृत यूनिवर्सिटी गया? हम अक्सर भाषा की बहस को दाएं-बाएं टहलाकर छोड़ देते हैं, लेकिन कभी भाषा से संबंधित संस्थानों का हाल नहीं जानते हैं. इस यूनिवर्सिटी की इमारत कितनी खूबसूरत है. देखने से लगता है कि आक्सफोर्ड या कैंब्रिज यूनिवर्सिटी की इमारत है. सन 1852 की यह इमारत है. कभी इस यूनिवर्सिटी को बनारस का चेहरा नहीं बनाया जाता है. आज इस ऐतिहासिक यूनिवर्सिटी में 112 शिक्षक होने चाहिए थे मगर हैं मात्र 32. यहां पर 79 शिक्षकों की कमी है. 500 नान टीचिंग स्टाफ की जगह 250 ही काम कर रहे हैं. उनमें से भी ज़्यादातर कांट्रेक्ट पर काम कर रहे हैं.  हाल ही में 15 साल से काम कर रहे 58 लोगों को इसलिए हटा दिया गया क्योंकि यूनिवर्सिटी के पास पैसे नहीं थे. 30 जून के बाद से कांट्रेक्ट पर रखे गए 18 चौकीदार निकाल दिए गए हैं. चौकीदार...चौकीदार.. पर चुनाव हुआ, चुनाव होते ही संस्कृत यूनिवर्सिटी से 18 चौकीदार निकाल दिए गए हैं. इस यूनिवर्सिटी पर 3 करोड़ बिजली बिल बाकी है.

जब भी भाषा को लेकर बहस होगी, भुजाएं तनी होंगी, हम कितनी जल्दी संस्कृत को लेकर होने वाले राजनैतिक प्रदर्शन और बहस को भूल गए. वही चीज़ हम हिन्दी के साथ कर रहे हैं. इस साल जून में लोकसभा में मानव संसाधन मंत्री ने संस्कृत को लेकर एक बयान दिया था जिसमें कहा था कि देश में 15 संस्कृत यूनिवर्सिटी हैं. इनमें से तीन डीम्ड यूनिवर्सिटी हैं. राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के नाम से जाने जाते हैं, जिनके 12 कैंपस है. यहां भी पचास फीसदी शिक्षक कांट्रेक्ट पर पढ़ा रहे थे. ये सूचना कुछ समय पहले की है. बहरहाल जून महीने में मानव संसाधन मंत्री ने बयान में बताया कि 12 यूनिवर्सिटी को राज्य सरकारें फंड देती हैं. इनके साथ 1000 पारंपरिक कॉलेज जुड़े हैं. जहां शिक्षकों के 1748 पद हैं, मगर 949 पदों पर ही शिक्षक हैं. 46 प्रतिशत पद खाली हैं. दिल्ली में 490 पदों में से 163 खाली हैं. यूपी में 172 मंज़ूर पद हैं शिक्षकों के, लेकिन 113 खाली है. अब यूपी में संस्कृत को लेकर बहस होगी तो इन सब बातों पर नहीं होगी. क्योंकि इन सब सवालों से जवाबदेही आती है, सवाल का जवाब देना मुश्किल हो जाता है और ये सब बताने के लिए एंकरों को मेहनत करनी पड़ जाती है.

असम से एक खबर है. एक महिला के पांव और हाथ पर ज़ख्मों के निशान गहरे हैं. कितना ज़ोर से मारा गया है उन्हें. असम के दारंग ज़िले की यह घटना है. इंडियन एक्सप्रेस के अभिषेक साहा की रिपोर्ट पढ़िए, सिहर उठेंगे. तीन बहनों में एक गर्भवती थी, उसे भी मारा गया. एक बहन ने कहा कि यह गर्भवती है तो पुलिस अधिकारी ने कहा कि एक्टिंग मत करो और मारने लगा. इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है कि गर्भवती महिला को इतनी चोट आई है कि उसका बच्चा मर गया, गर्भपात हो गया. एक बहन के पांव में दर्द था फिर भी लाठियों से मारा गया. उनके निजी अंगों को छुआ गया, जिस्म पर चारों तरफ ज़ख़्म के गहरे निशान हैं. कपड़े उतारकर पुलिस चौकी के भीतर मारा गया. रिपोर्ट के अनुसार इनके भाई रोफ़ूल अली के खिलाफ मामला दर्ज हुआ कि उसने कथित रूप से एक हिन्दू महिला को अगवा कर लिया है. पुलिस इन तीनों बहनों को उठाकर ले गई, उन्हें मारा गया. एक बहन ने जब असम के न्यूज चैनल को बताया तब जाकर बात बाहर सामने आई. पुलिस चौकी के इंचार्ज सब इंस्पेक्टर महेंद शर्मा और एक महिला सिपाही बिनिता बोरो को सस्पेंड कर दिया गया है. उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज हुआ है. बहनों का कहना है कि भाई और हिन्दू महिला का आपस में प्रेम था. उसके भाई की पहले शादी भी थी लेकिन पहली पत्नी को छोड़ दिया था. क्या आप समझ पा रहे हैं कि इन तीन बहनों को किस बात की सज़ा मिली है? हमारे सहयोगी रतनदीप चौधरी ने बताया है कि मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस मामले में संज्ञान लिया है और कार्रवाई के लिए असम के पुलिस प्रमुख को लिखा है.

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