यह ख़बर 24 दिसंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

रवीश कुमार की कलम से : सरकार में घाटी और जम्मू साथ आएं

नई दिल्ली:

जम्मू-कश्मीर के नतीजों ने बीजेपी को एक बार फिर महाराष्ट्र जैसी स्थिति में पहुंचा दिया है, जिनके खिलाफ लड़ी, उन्हीं में से किसी एक से दोस्ती के विकल्पों की बात कर रही है। राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि सभी विकल्प खुले हैं। इसका मतलब बीजेपी भी विपक्ष में बैठने के विकल्प का ऐलान जल्दी नहीं करना चाहती। अगर वो किसी के साथ भी साझेदारी कर सत्ता में आती है तो पहली बार जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने का रिकॉर्ड भी बनाएगी, भले ही उसका कोई हिन्दू मुख्यमंत्री बनाने का सपना पूरा न हो।

महाराष्ट्र में भी बीजेपी सरकार को ध्वनि मत के सहारे बहुमत हासिल करना पड़ा था। जिस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को महाभ्रष्ट कहा उसी के एकतरफ़ा समर्थन पर चुप्पी साध गई, जिसके कारण काफी आलोचना भी हुई। सरकार को बहुमत भी एनसीपी के कारण ही मिला। न्यूज़ चैनलों पर प्रधानमंत्री मोदी के चुनावी बयान चलने लगे, जिनमें वे एनसीपी को दिन-रात भ्रष्टाचार करने वाली पार्टी बता रहे थे। हो सकता है कि जम्मू-कश्मीर के मामले में भी पुराने बयानों के चलने की नौबत आ जाए।

महाराष्ट्र के बाद जम्मू-कश्मीर में बीजेपी का मिशन फेल रहा है। यह भी कह सकते हैं कि पूरा नहीं हुआ। श्रीनगर में हुई प्रधानमंत्री की रैली को बीजेपी ऐतिहासिक बता रही थी, लेकिन भीड़ हमेशा जीत नहीं बताती। घाटी में बीजेपी का खाता भी नहीं खुला। जम्मू के दम पर सरकार बनाना चाहती थी, वहां भी सीटों की संख्या डबल हो जाने के बाद भी लोकसभा की जीत के अनुपात में हासिल नहीं हुआ।
बीजेपी कामयाबी के रथ पर सवार है इसलिए उसकी मामूली नाकामी भी बड़ी दिखेगी पर ये नाकामी सियासी कम अकादमिक ज़्यादा है। महाराष्ट्र में मिशन पूरा नहीं हुआ, सरकार तो बन गई। क्या पता जम्मू-कश्मीर में भी ऐसा कुछ हो जाए।

बीजेपी गठबंधन की राजनीति पर तरह-तरह से हमले करती है। चुनाव से पहले नंबर को ही मिशन के रूप में लॉन्च कर देती है, जिसका सीधा मतलब होता है, एक पार्टी की सरकार, पर ऐसा नहीं कि बीजेपी चुनाव पूर्व या बाद में गठबंधन नहीं करती है। केंद्र में भी उसकी सरकार गठबंधन की ही है। झारखंड में भी वह आजसू के साथ सरकार में आई है। महाराष्ट्र में शिवसेना को अपनी शर्तों पर गठबंधन में शामिल कर एनसीपी के कलंक से मुक्ति पा ली है। जम्मू-कश्मीर में भी गठबंधन की नौबत आ गई।

ये गठबंधन बीजेपी को नए सिरे से बदलेंगे। भले ही दबदबा उसका रहेगा। हरियाणा में चौटाला और हजका से नाता टूटा, पंजाब में अकाली दल से पुराना संबंध टूटने की कगार पर है, शिवसेना से चुनाव से पहले टूट गया था। यह संदेश गया कि बीजेपी किसी को तभी साथ लेकर चलेगी जब तक उससे सत्ता प्राप्ति में मदद मिलेगी, लेकिन महाराष्ट्र के बाद जम्मू-कश्मीर में अगर वह गठबंधन करती है तो यह भी संदेश जाएगा कि सत्ता के लिए वह उनसे भी हाथ मिला सकती है, जिनके खिलाफ लड़ती है।

इसके बाद भी जम्मू-कश्मीर का जनादेश तभी पूरा होगा जब पीडीपी और बीजेपी की सरकार बने। वर्ना घाटी बनाम मैदान का यह अलगाव और गहरा हो जाएगा। सरकार सिर्फ घाटी की नहीं, पूरे राज्य की होती है तो क्यों न इसमें भागीदारी सबकी हो। ऐसा करने में सिर्फ पीडीपी ही नहीं, बीजेपी भी अपनी विचारधारा से समझौता करेगी। यह साझेदारी धारा 370 की नैतिक पराजय की मिसाल बनेगी। सबको पता है कि बीजेपी के लिए भी यह मसला जीने मरने का नहीं रहा। वाजपेयी सरकार के समय से ही जब भी मौक मिला है बीजेपी ने सत्ता के लिए धारा 370 से समझौता किया है। इस चुनाव में भी वो इस मुद्दे से किनारा कर गई जबकि यह मुद्दा बीजेपी के बनने की बुनियाद है।

घाटी का जनादेश जम्मू के खिलाफ है तो जम्मू का घाटी के। इसके बाद भी पीडीपी बीजेपी की सरकार नए सिरे से विश्वास की राजनीति की रेखाएं खींचेंगी। दोनों विरोधी सरकार में साथ करें। घाटी के लोग बीजेपी को भले न चुनते हो, लेकिन केंद्र में बीजेपी की सरकार में शामिल होने पर उमर अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री तो बनाया ही था। घाटी के दलों को ऐसे ही मुख्यधारा में आने का मौक़ा मिलता है। पीडीपी को भी इस मौक़े का लाभ उठाना चाहिए। क्या पता मोदी सरकार में भी उसका कोई मंत्री हो जाए। सब कुछ सत्ता ही है तो सत्ता के लिए सब कुछ क्यों न किया जाए।

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दूसरी तरफ बीजेपी को भी पीडीपी को एकतरफा समर्थन देने पर विचार करना चाहिए। इससे कश्मीर को लेकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में लाभ भी होगा। साथ ही ऐसा कर वो भी अपनी तरफ से घाटी बनाम जम्मू की राजनीतिक दूरियों को मिटाने में मदद कर सकती है। बस, उसे जम्मू के अपने मतदाताओं को समझाना पड़ेगा कि चुनाव के बाद सत्ता और देशहित के लिए कुछ वादाखिलाफी करनी पड़ती है। अब फैसला बीजेपी को करना है कि क्या वो ऐसा करने के लिए तैयार हैं। पीडीपी के लिए फैसला उतना मुश्किल नहीं है।