नौजवानों का सबसे बड़ा इम्तिहान यह है कि वे नौकरी को लेकर किए जा रहे किसी भी वादे और बहस को लेकर भावुक न हों. न तो कांग्रेस की तरफ से भावुक हों न बीजेपी की तरफ से. आपने नौकरी सीरीज़ के दौरान देखा है कि किस तरह देश के कई राज्यों में चयन आयोगों ने नौजवानों को अपमानित और प्रताड़ित किया है.
पांच साल में मोदी सरकार ऐसी व्यवस्था नहीं बना सकी जिससे प्राइवेट सेक्टर और सरकारी सेक्टर में नौकरियों की सही सही संख्या का पता चले. यूपी बिहार का ज़िक्र आने पर जो भावुक प्रवक्ता टीवी स्टूडियो में पहुंच रहे हैं, आप देखिए कि वे बोल क्या रहे हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि हिन्दू मुस्लिम के सप्लिमेंट के तौर पर यूपी बिहार का डिबेट चालू कर दिया गया है. राज्य चयन आयोगों की परीक्षाओं के चार-चार साल हो जाते हैं और परीक्षा पूरी नहीं होती हैं. परीक्षा होती है तो रिज़ल्ट नहीं आता और रिज़ल्ट आता है तो कई महीनों तक ज्वाइनिंग नहीं होती है. क्या इसे लेकर कोई नेता या चैनल भावुक होता है.
कमलनाथ का बयान पढ़ें. उन्होंने सफाई दी है लेकिन मूल बयान को लेकर ही आगे बढ़ते हैं. उन्होंने कहा है बहुत सारे लोग उद्योग में लग जाते हैं, अन्य प्रदेशों से आ जाते हैं, बिहार उत्तर प्रदेश से, मैं उनकी आलोचना नहीं करना चाहता हूं, पर मध्य प्रदेश के नौजवान रोज़गार से वंचित हो जाते हैं. सत्तर प्रतिशत रोज़गार लोकल होगा.
क्या ऐसा कहने वाले कमलनाथ पहले मुख्यमंत्री हैं? यूपी बिहार छोड़िए, क्या मध्यप्रदेश के नौजवानों को ही नए मुख्यमंत्री के बयान पर उत्साहित हो जाना चाहिए? मेरा अनुभव कहता है कि बिल्कुल उत्साहित नहीं होना चाहिए. आपने कमलनाथ को पढ़ा. अब आपको अमित शाह का बयान दिखाता हूं. ये बयान जनवरी 2017 का है. यूपी विधानसभा चुनाव के वक्त बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र में कहा था कि उद्योगों में 90 प्रतिशत नौकरियों यूपी के युवाओं को मिलेंगी. अमित शाह ने कहा था, अगले पांच साल में 70 लाख रोज़गार और स्व-रोज़गार अवसर पैदा करने का उत्तर प्रदेश की जनता को वादा करते हैं. मित्रो उत्तर प्रदेश में स्थापित हर उद्योग में 90 प्रतिशत नौकरी उत्तर प्रदेश के युवाओं को ही मिले, हम सुनिश्चित करते हैं. मित्रो सरकार बनाने के 90 दिन के अंदर सभी खाली पड़े सरकारी पदों को भरती करने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाएगी.
जब अमित शाह ने यूपी की इंडस्ट्री में यूपी के 90 प्रतिशत नौजवानों को नौकरी देने की बात कही थी तब बिहार के केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने धरना प्रदर्शन किया था. क्या मध्यप्रदेश या झारखंड या बंगाल या महाराष्ट्र के नेता सड़कों पर उतरे थे? अब यूपी के नौजवान ही अपनी सरकार से पूछ लें कि पिछले एक साल में कौन सी ऐसी फैक्ट्री लगी है जिसमें 90 प्रतिशत नौकरी यूपी के नौजवानों को दी गई है. पांच साल में 70 लाख रोजगार सृजित करने का वादा था. डेढ़ साल हो गए हैं, क्या 21 लाख रोज़गार और स्व रोज़गार का सृजन हुआ है. क्या कोई प्रमाण दे सकता है? अमित शाह से ये सवाल कीजिए और यही सवाल आप कमलनाथ से भी थोड़े दिनों बाद कीजिएगा. फिर से दोनों को एक साथ सुनिए ताकि याद रहे.
जनवरी 2017 में अमित शाह ने तो यह भी कहा था कि तीन महीने के भीतर सभी रिक्त पदों पर भरती की जाएगी. क्या अमित शाह या मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ही बता सकते हैं कि 90 दिनों के भीतर उन्होंने वादे के अनुसार सरकारी विभागों के कितने रिक्त पद भरे थे. क्या यही बता सकते हैं कि यूपी सरकार के भीतर कितने रिक्त पद हैं और उसके भरे जाने की क्या डेडलाइन है? एक उदाहरण से इस बात को समझिए. वादा था यूपी में 90 दिनों के भीतर रिक्त पदों को भरेंगे. दिसंबर 2016 में शिक्षकों के 12,460 पदों की बहाली निकली थी. मार्च 2016 में इनकी काउंसलिंग हो गई थी. 30 मार्च 2017 को नियुक्ति पत्र मिलना था. मगर अखिलेश की सरकार चली गई और बीजेपी की सरकार आ गई. नई सरकार ने यह कहकर रोक लगा दी कि हम समीक्षा करेंगे. समीक्षा के नाम पर एक साल बीत गया. 12,460 शिक्षकों का सब्र टूटने लगा. कई बार मुख्यमंत्री से मिले, मंत्री से मिले, कुछ नहीं हुआ. अंत में जाकर उन्होंने 15 मार्च 2018 को बीजेपी मुख्यालय के बाहर धरना दिया, 16 मार्च को मंत्री अनुपमा जयसवाल के घर का घेराव किया. 90 दिनों में रिक्त पदों को भरने का वादा पूरा नहीं हो सका. अदालत के आदेश के बाद भी सभी को नौकरी नहीं मिली है. कुछ हज़ार को मिली है मगर कई हज़ार नौजवान रिज़ल्ट आने के बाद भी कई महीनों से ज्वाइनिंग का इंतज़ार कर रहे हैं. क्या आप इनके लिए यूपी बिहार का डिबेट करना चाहेंगे, क्या कोई नेता है इनकी लड़ाई लड़ने वाला. हमने प्राइम टाइम में इस मसले को अपनी नौकरी सीरीज़ में कई बार दिखाया था.
कमलनाथ के बयान को लेकर जितने भी टीवी चैनलों पर डिबेट हुए हैं उन सबको देखिए और प्राइम टाइम के इस एपिसोड को भी देखिए. खुद तय कीजिए कि यूपी बिहार के नाम पर भावुकता की खेती हो रही थी या वाकई नौकरी को लेकर गंभीर सवाल जवाब हो रहे थे. इसीलिए कहता हूं कि नौकरी के सवाल को लेकर ईमानदार और सजग बने रहना होगा. टीवी स्टूडियो में आने वाले प्रवक्ता यूपी बिहार के नौजवानों के लिए नौकरी की बात करने नहीं आए हैं बल्कि अपनी पार्टी और अपने नेता का बचाव करने आए हैं.
गेम को समझिए पहले. इन्वेस्टर समिट के नाम पर करोड़ों रुपये प्रचार के लिए फूंके जाते हैं. वहीं उद्योगपति हर राज्य के इन्वेस्टर समिट में जाकर मुख्यमंत्रियों की तारीफ करता है. मीडिया में विज्ञापन और उद्योगपतियों को लाने ले जाने पर करोड़ों खर्च होते हैं. दावे होते हैं कि कई लाख करोड़ के एमओयू हो गए मगर मीडिया रिपोर्ट से पता चलता है कि ज्यादातर दावे बढ़ा चढ़ाकर किए जाते हैं, ज़मीन पर खास नहीं होता. जब फैक्ट्री ही नहीं लगी, निवेश ही नहीं हुआ तो स्थानीय लोगों को रोज़गार कहां से मिला. अब जब यह फेल हो गया तो सरकारों ने एक तरीका निकाला कि जिन उद्योगों को सरकार से रियायतें मिलेंगी उन्हें 70 से 90 फीसदी नौकरी स्थानीय नौजवानों को देना पड़ेगा. क्या ऐसा कर देने से स्थानीय युवाओं को रोज़गार मिल गया है. आप पता कर लें.
मध्यप्रदेश में जब भाजपा की सरकार थी, तभी 2012 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि राज्य में जो उद्योग कायम होंगे उनमें 50 प्रतिशत रोज़गार स्थानीय लोगों को दिया जाएगा और जो उद्योग 90 प्रतिशत युवाओं को रोज़गार देंगे उन्हें दो साल तक टैक्स में छूट दी जाएगी. मैं यह उदाहरण इसलिए दे रहा हूं ताकि शिवराज सिंह चौहान और मुख्यमंत्री कमलनाथ दोनों पहले यह बताएं कि 2012 से 2018 के बीच मध्यप्रदेश में कितने उद्योग लगे, उनमें राज्य के कितने युवाओं को रोज़गार मिला. 26 सितंबर 2018 के इंडियन एक्सप्रेस में अविनाश नायर ने एक रिपोर्ट फाइल की है. इस रिपोर्ट में मुख्यमंत्री विजय रुपाणी का बयान छपा है. उनकी सरकार जल्द ही कानून बनाने जा रही है कि जो भी इंडस्ट्री वहां स्थापित होगी उसे 80 प्रतिशत काम गुजराती युवाओं को देने होंगे.
गुजरात में 1995 के एक सरकारी प्रस्ताव के अनुसार 15 साल से अधिक समय से रहने वाले युवाओं को स्थानीय माना गया है. एक्सप्रेस ने यह भी बताया था कि 4700 बड़े उद्योगों में 92 प्रतिशत काम स्थानीय लोगों को दिया गया था. गुजरात के अलावा हिमाचल प्रदेश ने भी इसी तरह के कदम उठाए हैं. जुलाई महीने में ट्रिब्यून में खबर छपी थी कि राज्य के उद्योगों में 80 फीसदी नौकरियां स्थानीय युवाओं को दी जाएंगी. पहले 70 फीसदी कोटा था जिसे नई सरकार ने बढ़ाकर 80 फीसदी कर दिया. ट्रिब्यून अखबार ने लिखा था कि इस नियम के कारण मौजूदा निवेशकों को 10 फीसदी लोगों को काम से हटाकर युवाओं को लाना होगा. इसके बाद क्या हुआ, हमें नहीं मालूम. आंकड़ों के मामले में इतनी लापरवाही और धांधली है कि सही चीजों का पता लगाने के लिए सैकड़ों संवाददाता चाहिए जो मेरे पास नहीं हैं. इसीलिए मैं अलग-अलग सोर्स से सूचनाओं का संग्रह करता हूं ताकि एक तस्वीर दिखे, जिसे कोई सामने नहीं आने देना चाहता है. गुजरात की उद्योगों की संस्था, हिमाचल की उद्योगों की संस्था सबने ऐसे नियमों और ऐलान की आलोचना की है. कई बार ऐसे काम भी होते हैं जिनके लिए स्थानीय स्तर पर न तो प्रतिभा होती है और न ही स्थानीय लोगों की उसमें दिलचस्पी.
3 फरवरी 2017 के हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर है कि कन्नड़ा डेवलपमेंट अथारिटी ने एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें क्लेरिकल जॉब में 80 फीसदी और उच्च दक्षता वाले काम में 65 फीसदी नौकरियों में स्थानीय युवाओं को रखने का सुझाव दिया गया था. वहां तो कांग्रेस की सरकार है. वही अमित शाह को बता दें कि हमने इतने लोगों को नौकरी दी है. अमित शाह यूपी का डेटा कांग्रेस के नेता को बता दें. नवंबर 2014 में इकोनोमिक टाइम्स की रिपोर्ट है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने 70 फीसदी नौकरियां स्थानीय युवाओं को देने की नीति बनाई थी.
सारी बहस भावुकता को लेकर है. नौकरियों के सवाल पर राजनीतिक दल सामने नहीं आते हैं मगर जैसे ही भावुकता का स्कोप दिखता है दौड़े चले आते हैं जैसे दिन रात वही रोज़गार को लेकर लड़ते रहते हैं. क्यों नहीं केंद्र और राज्य सरकारों के पास रोज़गार को लेकर कोई विश्वसनीय आंकड़ा है.
अक्सर रिपोर्ट आती रहती है कि नौकरियां घट रही हैं. नई नौकरियां नहीं बन रही हैं. अभी दो तीन दिन पहले खबर छपी कि ट्रेडर्स, माइक्रो, स्माल और मीडियम सेक्टर में नोटबंदी के बाद से 35 लाख नौकरियां चली गईं. आल इंडिया मैन्युफैक्चरर एसोसिएशन ने 34,000 छोटे बड़े कारोबारों का सर्वे कराकर यह नतीजा बताया था. 35 लाख लोगों की नौकरी गई. एक करोड़ से ज़्यादा प्रभावित हुए, क्या इस पर चर्चा हुई, क्या तब नहीं हुई तो अब हो रही है. हमें नौकरियों के सवाल को यूपी बिहार के संदर्भ से जोड़कर भावुक होना बंद कर देना चाहिए.
प्राइवेट छोड़िए कुछ सरकारी नौकरियों का हाल बताता हूं. उज्ज्वल दास और कंचन दास अमर रहे का नारा लग रहा है, पार्थिव शरीर उज्ज्वल दास का है जिसका निधन 17 दिसंबर को हो गया. उज्ज्वल को लाठीचार्ज में गंभीर चोट आई थी. आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण इलाज नहीं करा सका जिसके कारण उसकी मौत हो गई. सोमवार से पहले रविवार को यानी 16 दिसंबर को महिला व बाल कल्याण मंत्री डॉ लुईस मरांडी के घर के बाहर धरना दे रहे कंचन दास की मौत हो गई. दुमका स्थित मंत्री के घर के बाहर मौत हो गई. कंचन मंत्री के घर के इस तंबू में सो गया था मगर सुबह उठा नहीं. साथी जब जगाने गए तो कंचन का शरीर अकड़ा हुआ था. कंचन दास दस साल से पारा शिक्षक था, अपने साथियों के लिए चावल लेकर आया था ताकि धरना लंबा चले. कंचन की मौत के बाद पारा शिक्षकों ने बाइक पर रैली निकाली. झारखंड के दुमका में यह रैली निकाली गई थी. उज्ज्वल और कंचन के अलावा बहादुर ठाकुर और जीतन खातून की मौत हो गई. ये सभी 15 नवंबर के लाठी चार्ज में घायल हुए थे. क्या इन पारा शिक्षकों को लेकर कोई चर्चा हुई, क्या यूपी बिहार हुआ, ये लोग दस साल पंद्रह साल से पढ़ा रहे हैं चाहते हैं कि इनकी नौकरी पक्की हो और अच्छी सैलरी मिले.
झारखंड में पारा शिक्षकों की बड़ी समस्या है. वे सैलरी और अपनी नौकरी की शर्तों को लेकर कई बार संघर्ष कर चुके हैं. दस दस साल से ये पारा शिक्षक पढ़ा रहे हैं. क्या इन सवालों पर बहस होती है, नहीं होती है. यूपी बिहार की चिन्ता करने वाले नेता इनके लिए बोलते हैं, नहीं बोलते हैं, जो सरकार में होते हैं वो बिल्कुल नहीं बोलते हैं. यूपी बिहार में सरकारी नौकरियां देने की व्यवस्था है उनकी समीक्षा की जानी चाहिए.
यूपी में नारा लगा भरती दो या अरथी दो. नारा लगाने वाले यूपी के 70,000 प्राइमरी शिक्षकों में से थे जिन्होंने नौकरी का इम्तिहान दिया था. इसका वीडियो सितंबर महीने में आया. इस बहाली में घोटाला हो गया. जिसे 122 नंबर आया था उसे फेल कर दिया. और 20 ऐसे लोगों को पास कर दिया गया जो फेल हो गए थे. ये मैं उत्तर प्रदेश की ही बात कर रहा हूं. ऐसे कई लोगों को नौकरी दी गई जिन्होंने परीक्षा ही नहीं दी थी. क्या यह मामला इतना गंभीर नहीं है कि इनकी समीक्षा हो, क्या यूपी बिहार करने वाले नेता इन समस्याओं पर ध्यान देंगे कि उनके राज्य के सरकारी इम्तिहानों में घपला कैसे हो जाता है. अंकित वर्मा को फेल कर दिया गया था जब कोर्ट के आदेश से कापी चेक हुई तो वो 68,000 लोगों में टापर निकला. योगी सरकार के समय इस परीक्षा का विज्ञापन आया और यह भी समय से पूरा नहीं हुआ बल्कि घोटाला का शिकार हो गया. अभी भी सबकी ज्वाइनिंग नहीं हुई है, पीड़ित छात्र कट आफ मार्क को लेकर दिन रात संपादकों और मंत्रियों को ट्वीट करते रहते हैं, कोई नहीं सुनता जबकि यूपी के हैं. बिहार में भी 2014 की परीक्षा का रिज़ल्ट 2018 तक नहीं आ सका. गिरिराज सिंह को भावुकता छोड़कर बिहार से जुड़े मुद्दे पर संघर्ष करना चाहिए.
बिहार यूपी और राजस्थान ही नहीं भारतीय रिज़र्व बैंक की परीक्षा का भी वही हाल है. 623 पदों के लिए आरबीआई सहायक परीक्षा निकली थी. अक्टूबर 2017 में वेकैंसी निकली थी, मार्च 2018 तक सारी प्रक्रियाएं पूरी हो गईं. अभी तक किसी की ज्वाइनिंग नहीं हुई. जिनका मामला मुकदमे में नहीं फंसा है उनकी भी ज्वाइनिंग नहीं हो रही है. मुंबई रीजन के 261 पदों को लेकर कोई कोर्ट चला गया और मामला फंस गया. आप यकीन करेंगे, इसकी अगली तारीख 25 सितंबर 2019 की मिली है. एक छात्र ने लिखा है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की संविदा की परीक्षा पास कर घर बैठा है. 7 महीने से ज्वाइनिंग नहीं आई है. आपको याद होगा कि रेलवे की परीक्षा आई थी. दावा किया गया कि ढाई करोड़ लोगों ने फार्म भरे हैं. पहले 500 का फार्म निकला बाद में सरकार ने कहा कि 400 रुपया वापस करेंगे. लाखों की संख्या में छात्र अपने 400 का इंतज़ार कर रहे हैं. गिरिराज सिंह और कमलनाथ इनकी भी लड़ाई लड़ सकते हैं. वैसे रघुराम राजन ने डॉ प्रणय रॉय से बातचीत करते हुए कहा है कि नौकरियों की स्थिति भयावह होती जा रही है. नौकरी नहीं है. न प्राइवेट में न सरकारी में. सरकारी नौकरियों के मामले में जितनी हैं उन्हीं को सरकारें समय पर नहीं दे पा रही हैं. नौजवानों के साथ यह अन्याय यूपी में भी हो रहा है. मध्यप्रदेश में भी हो रहा है और कर्नाटक में भी. इसलिए यह सवाल भावुकता का नहीं है. अब अगर भावुकता में बहेंगे तो हर साल 2 करोड़ नौकरी देने का फिर कोई वादा कर पाएगा?