विज्ञापन
This Article is From Apr 13, 2015

वोट बैंक के नाम पर अपना वोट बैंक बना रहे हैं संजय राउत

Ravish Kumar, Saad Bin Omer
  • Blogs,
  • Updated:
    अप्रैल 13, 2015 12:19 pm IST
    • Published On अप्रैल 13, 2015 11:48 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 13, 2015 12:19 pm IST

'अगर मुसलमानों का सिर्फ राजनीति के लिए इस्तमाल ही हो रहा है तो उनका विकास कभी नहीं होगा। जब तक उनका वोट बैंक राजनीति के लिए इस्तमाल होता रहेगा मुसलमानों का कोई भविष्य नहीं है। बाला साहब ठाकरे ने एक बार कहा था कि मुसलमानों से मतदान का अधिकार ले लेना चाहिए। उन्होंने जो कहा वह सही था।'

शिवसेना सांसद संजय राउत ने पार्टी के मुखपत्र सामना में प्रकाशित लेख में यह दलील है।

मतदान का अधिकार व्यक्तिगत होता है, सामुदायिक या धार्मिक आधार पर नहीं दिया गया है। अगर एक व्यक्ति किसी आपराधिक मामले में लिप्त पाया जाता है, सज़ा होती है तो उससे मतदान का अधिकार वापस लिया जा सकता है, जैसा कि 1999 में चुनावी गड़बड़ियों में दोषी पाए जाने के कारण चुनाव आयोग ने शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे को चुनाव लड़ने और मत देने के अधिकार से वंचित कर दिया था। अगर संजय राउत की दलील मानें तो क्या बाल ठाकरे के साथ-साथ उस पूरे समुदाय को मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया जाना चाहिए था, जिसकी क्षेत्रीय पहचान की राजनीति कर रहे थे।

शिवसेना के अखबार सामना में मुसलमानों से मतदान का अधिकार छीन लेने की बात लिखते हुए राज्यसभा सांसद संजय राउत को यह खयाल क्यों नहीं आया कि उन पर भी तो धर्म विशेष की राजनीति का इल्ज़ाम है। क्या वह मुस्लिम वोट बैंक का मिथक बनाकर एक हिन्दू वोटबैंक नहीं बनाते हैं? जबकि राजनीतिक सच यही है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों अपने अपने हिसाब से अलग-अलग दलों को वोट करते हैं। ऐसा नहीं होता तो भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई के आधार पर सिर्फ चार पार्टियां होतीं। वैसे शिवसेना का एक बिहारी सौ बीमारी का नारा तो लोग भूल ही गए होंगे। अब कौन संजय राउत जी से पूछे कि आप मराठी मानुष की बात कर क्या उनकी पार्टी अलग वोटबैंक नहीं बनाती है। क्या इसी वजह से मराठी मानुष का पूरा विकास नहीं हुआ है, जो विदर्भ में रोज़ आत्महत्याएं कर रहा है।

वैसे संजय राउत को वोट बैंक की राजनीति से आपत्ति है तो उन्हें इसी लेख में दलित वोट बैंक, पिछड़ा वोट बैंक, अति पिछड़ा वोट बैंक इन सबके खिलाफ लिखना चाहिए था और इन सभी समुदायों को मतदान के अधिकार से वंचित कर दिए जाने का उपाय बताना चाहिए था। मैं तब भी मतदान के अधिकार ले लिए जाने की बात की आलोचना करता, लेकिन एक बार के लिए सोचता कि वोटबैंक बहुत हो चुका। क्या ऐसा कहने की हिम्मत संजय राउत कर सकते हैं।

हर जाति की कोई न कोई पार्टी है और नेता है, जो उसके नाम पर एनडीए सरकार में सहयोगी भी है और मंत्री भी। आप वोट बैंक की राजनीति का चुनाव अपनी सुविधा से सिर्फ धर्म के आधार पर नहीं कर सकते और वह भी उस दिन जब मुंबई के एक उपचुनाव में मतदान हो रहा हो आप इस तरह का लेख नहीं लिखते।

इस लेख का मकसद जितना मुस्लिम वोट बैंक पर हमला करना नहीं है उससे कहीं ज्यादा इसके बहाने हिन्दू वोट बैक को संगठित करना है। वैसे बहुत से गैर मुस्लिम भी शिव सेना को वोट नहीं देंगे, तो क्या वे सब भी ओवैसी के बहकावे में आ गए।

हर बात इसलिए सही नहीं हो जाती है वो दूसरे की प्रतिक्रिया में कही जा रही है। संजय राउत ने ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के ओवैसी बंधुओं के बयानों के संदर्भ में लेख लिखा है। अगर ओवैसी उन्हें हैदराबाद आने की चुनौती दे रहे हैं तो बिल्कुल चले जाना चाहिए। ओवैसी होते कौन हैं किसी को अपने शहर में आने की चुनौती देने वाले।

संजय राउत कहते हैं कि क्या हैदराबाद भारत का हिस्सा नहीं है। मैं होता तो यही कहता है कि उद्धव ठाकरे जी आप हैदराबाद चलिए। देखते हैं कौन रोकता है। यह भी पूछता कि क्या ओवैसी ने यह कहा है कि आपको हैदराबाद में घुसने नहीं देंगे या राजनैतिक चुनौती दी है। नीतीश कुमार भी नरेंद्र मोदी को चुनौती दिया करते थे कि बिहार आकर देख लीजिए। ये बिहार है यहां आपकी राजनीति नहीं चलेगी। लेकिन चल गई नरेंद्र मोदी की। फिर भी किसी ने नीतीश की इस चुनौती को धर्म से नहीं जोड़ा । ओवैसी की चुनौती को धर्म से जोड़ा जा रहा है। ओवैसी की राजनीति की भी वही समस्या है, जो आपकी राजनीति की है। दोनों से एक दूसरे को फायदा पहुंच रहा है।

रही बात मुसलमानों के पिछड़े होने की तो यह किसी वोट बैंक की राजनीति के कारण नहीं है। यह सरकारों की नाकामी के कारण है। इसका मतलब यह नहीं कि दूसरे समुदायों का विकास बहुत ज्यादा हो गया है और उनमें गरीबी और बीमारी के अनेक लक्षण नहीं हैं। अगर ऐसा होता तो अस्सी फीसदी गैर मुस्लिम आबादी को विकसित घोषित कर दिया जाता। भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश बन जाता जहां सिर्फ पंद्रह फीसदी आबादी का विकास नहीं हुआ है। इतना विकसित तो अमरीका या लंदन भी नहीं होगा। सरकारी योजनाओं में भेदभाव भी एक खास किस्म की वोटबैंक की राजनीति है।

संजय राउत सांसद हैं और केंद्र और महाराष्ट्र में बीजेपी सरकार के सहयोगी हैं। बीजेपी ने संजय राउत के इस बयान की आलोचना की है। लेकिन यही एकमात्र बयान नहीं है। आए दिन विश्व हिन्दू परिषद के स्वामी-सन्यासी मुस्लिम विरोधी बयान दे रहे हैं। जबकि प्रधानमंत्री ने लालकिला से दस साल के लिए ऐसे बयानों और राजनीति को मुल्तवी करने की अपील की थी। उनकी अपील अपने ही पाले के संगठनों में फेल हो गई है। दिल्ली के विज्ञान भवन में उन्होंने कहा था कि हर किसी को अपनी मर्जी और बिना किसी भय से अपने अपने धर्मों के पालन का अधिकार है। पेरिस में भी जाकर कहा कि हमारी सरकार भेदभाव नहीं करेगी। वक्त आ गया है कि वे भी इन बयान देने वाले नेताओं या इनके संगठनों के प्रमुखों से सीधे बात करें।

आज के ही इंडियन एक्सप्रेस में खबर है कि केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी जनवरी से 9 राज्यों के अल्पसंख्यकों के साथ बैठकें कर चुके हैं। कई राज्यों में दो बार जा चुके हैं ताकि अविश्वास न फैले। यह एक बहुत ही अच्छा प्रयास है। मगर इतना करने से ये बयान नहीं बंद हो रहे हैं तो मुख्तार अब्बास नकवी को राज्यों की यात्राएं बंद कर विश्व हिन्दू परिषद और शिव सेना के सांसद से मुलाकात करनी चाहिए। समय और खर्चा दोनों बच जाएगा। कोई मुसलमानों की नसबंदी का बयान दे रहा है तो मतदान के अधिकार छिन लेने का। ऐसे बयान देने वालों से नकवी साहब को मिलना चाहिए।

लोकसभा चुनावों के समय सेकुलरिज्म के नाम पर होने वाली राजनीतिक समझौतों पर बहुत हमले होते थे। उनमें एक किस्म का अतिवाद तो था मगर यह सच्चाई भी थी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर खोखली राजनीति होती रही है और हर किस्म की नाकामी पर पर्दा डालने का यह ज़रिया बन गया है। इसके लिए सोशल मीडिया ने सिकुलर शब्द गढ़ा जो धीरे-धीरे सेकुलर राजनीति पर हमला करते हुए सेकुलर सोच पर ही हमला करने का हथियार बन गया।

सेकुलरिज़्म के नाम पर राजनीति की आलोचना एक बात है मगर कोई राजनीति से सेकुलरिज्म को ही मिटा देने की वकालत कर रहा है तो यह बेहद खतरनाक है। अगर सेकुलरिज्म इतना बेकार होता तो बीजेपी अपनी सदस्यता अभियान के पोस्टरों में सकारात्म सेकुलरिज्म का इस्तमाल नहीं करती। इसका एक मतलब तो यही होगा कि हम सबका विकास करेंगे, लेकिन यह जो बयान है क्या वह भी सबका विकास के फ्रेम में आता है।

वक्त आ गया है कि सिकुलर की तरह कोई और शब्द गढ़ा जाए जिससे वैसी सोच पर हमला किया जा सके जो सेकुलर होने के खिलाफ है। जो एक समुदाय को वोट बैंक की तरह पेशकर अपना एक अलग और उससे बड़ा वोटबैंक बनाना चाहता है। आए दिन धार्मिक पहचान गढ़ने के बयान दिए जा रहे हैं।

मुझे कई बार लगता था कि सिकुलर राजनीति पर हमला करने वाले वे लोग हैं जो सबको बराबरी से देखना चाहते हैं। अतीत की समझौतावादी राजनीति से हटकर नए नज़रिये से देखना चाहते हैं। इन्हीं सिकुलर विरोधियों से पूछा जाना चाहिए कि वे इस तरह के बयानों को कैसे देखते हैं।

सिकुलर में अंग्रेजी का सिक है जिसका मतलब है बीमार। क्या अब जो बयान दिए जा रहे हैं वह बीमार सोच नहीं हैं। क्या उनके पास इन सब बातों के लिए कोई शब्द है या तब तक वे सिर्फ सांप्रदायिक से ही काम चलाना चाहेंगे। तब तक क्यों न संजय राउत से ही मतदान का अधिकार वापस ले लिया जाए?

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com