क्या संसद में लगातार विरोध विपक्ष में आत्मविश्वास की कमी दर्शाता है?

क्या संसद में लगातार विरोध विपक्ष में आत्मविश्वास की कमी दर्शाता है?

संसद भवन (फाइल फोटो)

नई दिल्ली:

संसद की भूमिका को लेकर बहस होनी चाहिए। यह सवाल जितना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के लिए महत्वपूर्ण नहीं है उससे कहीं ज़्यादा जनता के लिए है। मुझे तकलीफ़ तब भी होती थी जब बीजेपी संसद नहीं चलने देती थी और अब भी हो रही है जब कांग्रेस और विपक्ष ने संसद न चलने देने का फ़ैसला कर लिया है। मैं यह भी मानता हूं कि संसद में हंगामा, कार्यवाही का बहिष्कार एक जायज़ लोकतांत्रिक अधिकार है, जिसका इस्तेमाल करना पड़ता है और करना चाहिए। इस अधिकार का इस्तेमाल रोज़ किया जाना चाहिए, लेकिन उससे पहले संसद चलनी चाहिए। हर बात पर सवाल होने चाहिए और सरकार के जवाब पर फिर सवाल होने चाहिए। तब लगेगा कि बहस हो रही है।

इसके बाद भी संसद में होने वाली बहस की गुणवत्ता को लेकर भी सार्वजनिक बहस होनी चाहिए। अध्ययन होना चाहिए। सवालों की गुणवत्ता पर रिपोर्टिंग होनी चाहिए। मीडिया भले न करे, लेकिन शोध संस्थाओं को तो करना ही चाहिए। एक बार फिर से स्पीकर की भूमिका को लेकर बहस होनी चाहिए। इससे स्पीकर और संसद को जनता का संबल प्राप्त होगा। समय-समय पर इस संस्था को भी जनता से नैतिक शक्ति हासिल करने की ज़रूरत होनी चाहिए, जैसे किसी सरकार को होती है। सिर्फ अगले कुछ घंटों के लिए और फिर पूरे दिन सदन को स्थगित करने से काम नहीं चलेगा। संसद के न चलने से सरकार का कुछ नुकसान नहीं होता। विपक्ष को भी लाभ नहीं होता। जनता का नुकसान होता है।

कांग्रेस का बहिष्कार अब बेमानी होता जा रहा है। उसके सांसद संसद ठप्प कर घर चले जाते हैं। कांग्रेस और अन्य दल भी व्यापमं से लेकर वसुंधरा मामले को भूलने लगे हैं। संसद चलते हुए भी ये मुद्दे रोज़ उठाए जा सकते हैं। दो हफ्ते की कार्यवाही ठप्प कर पर्याप्त रूप से जनता में यह संदेश जा चुका है कि व्यापमं से लेकर वसुंधरा राजे के मामले और सुषमा स्वराज के मामले में सरकार की क्या राय है। संसद रोककर इससे ज़्यादा विपक्ष क्या हासिल कर सकता है। बीजेपी ने भी कांग्रेस के घोटालों को उजागर कर दिया है। कांग्रेस चाहे तो बीजेपी के संसद बंद का बदला ले सकती है, लेकिन इससे तो कभी संसद चलेगी ही नहीं। कांग्रेस संसद के मंच का ही इस्तेमाल कर जनता को बता सकती है कि देखिये कैसे बीजेपी संसद नहीं चलने देती थी और हम चलने दे रहे हैं। सरकार को उसकी नीतियां बनाने का मौका दे रहे हैं, ताकि वो अपने हिसाब से काम कर सके। फिर अगर काम नहीं हुआ तो जनता देखेगी कि विपक्ष के सहयोग के बाद भी नतीजा क्यों नहीं निकला। मैं भोलेपन में यह बात ज़रूर कर रहा हूं लेकिन किसी भी पार्टी को जनता में भरोसा रखना चाहिए और उसके बीच जाकर अपनी बात कहने का माद्दा होना चाहिए। मैं यह नहीं कह रहा कि सरकार की तरफ से सब कुछ आदर्शवादी है। सरकार में भी कमज़ोरियां हैं, लेकिन काम करने का मौका तो उसी को मिला है।

कांग्रेस, लेफ्ट, बीएसपी, तृणमूल के विरोध से संसद तो ठप्प हो गई है, लेकिन अन्य मुद्दों पर सरकार से सवाल पूछने का मौका हाथ से निकलता जा रहा है। जनता में अन्य मुद्दों को लेकर समझ नहीं बन पा रही है। सरकार का पक्ष नहीं आ पा रहा है। ठीक है कि प्रधानमंत्री नहीं बोलेंगे। दो हफ्ते बाद बयान आ रहा है कि प्रधानमंत्री बोल सकते हैं, लेकिन वे क्या बोलेंगे जो अभी तक नहीं बोले हैं। क्या इसी एक सवाल पर पूरे पांच साल विरोध होगा। विपक्ष इसे समय-समय पर उजागर करता रहे, लेकिन देश के अन्य मसलों पर भी तो राजनीतिक राय बनाने की ज़रूरत है। सरकार बनी है काम करने के लिए और विपक्ष बना है सरकार पर नज़र रखने के लिए। मौजूदा दौर में दोनों एक जैसे हो गए हैं। दोनों के चरित्र में कोई अंतर ही नहीं आया है।

जनता तरह-तरह के मुद्दों पर सरकार से जवाब का इंतज़ार कर रही है। छात्र लाठियां खा रहे हैं। सैनिक अपनी पेंशन का इंतज़ार कर रहे हैं। बाढ़ की समस्या है। किसानों के मुआवज़ा मिलने का मुद्दा कहां गया। पिछले सत्र में तो विपक्ष को किसानों की चिन्ता हो रही थी, क्या अब नहीं पूछा जाना चाहिए कि उन मुआवज़ों का किस-किस तरह से वितरण हुआ। क्या नए तथ्य सामने नहीं लाने चाहिए। इससे यही लगता है कि हमारा विपक्ष आलसी हो गया है। वो नए तथ्यों की तलाश में अपना पसीना नहीं बहाना चाहता। भले ही ये सब टीवी के लिए मुद्दा न बने, लेकिन क्या सारी राजनीति प्राइम टाइम टीवी के लिए होगी। हद है।

यही कारण है कि राहुल गांधी के लगातार विरोध और आक्रामकता के बाद भी जनता के बीच में कांग्रेस सक्रिय जगह नहीं बना पा रही है। चुनाव के बाद आमतौर पर हिन्दुस्तान का विपक्ष भ्रमित होता है। बीजेपी के साथ भी यही समस्या थी और अब कांग्रेस की भी यही है। मेरी राय में विपक्ष को अपनी रचनात्मकता की तलाश करनी चाहिए। उसे विरोध की राजनीति में जान डालनी चाहिए, जिससे जनता में भरोसा बने कि हमारे साथ सरकार तो है ही विपक्ष भी है। जो अच्छा है उसकी तारीफ करनी चाहिए और जहां अच्छा नहीं हो रहा है वहां दबाव डालकर सरकार से काम करवाना चाहिए। इससे जनता भी परिपक्व होगी। सिर्फ हर विरोध का साथ देकर दूसरे विरोध की तरफ बढ़ जाने से ठोस असर नहीं पड़ेगा। पिछले कई विरोध पीछे छूट गए हैं। एक दिन राहुल गांधी भी जब मुड़कर देखेंगे कि विरोध तो पचासों मुद्दों पर किया, लेकिन ठोस राजनीतिक वैचारिक हस्तक्षेप नहीं कर पाया। शुरुआती तारीफ के बाद एक बार फिर राहुल गांधी दिशाहीनता की तरफ बढ़ने लगे हैं।

फांसी की सज़ा के वक्त कांग्रेस साहस नहीं दिखा सकी। सांप्रदायिकता का सामने से विरोध नहीं कर पाती है। यही कमज़ोरी दूसरे दलों में भी है। जब खुद प्रधानमंत्री ने कहा है कि भारत का मुसलमान आतंकवाद का समर्थन नहीं करता है तो क्या विपक्ष को ऐसे वक्त में सक्रिय नहीं होना चाहिए। टीवी स्टुडियो की जगह सड़कों पर नहीं होना चाहिए। सब कुछ सिविल सोसायटी पर छोड़कर उनकी बनाई ज़मीन का लाभ उठाना तो मौकापरस्ती है। फांसी को लेकर जितनी भी बहस हुई उसमें इन राजनीतिक दलों का क्या योगदान है। किसी का 'बी' टीम बनकर 'ए' टीम नहीं बन सकते। नई राह बनाइये। साहस दिखाइये। जो उन्माद फैला था उसमें विपक्ष दुबक गया। डट कर बहस खड़ा नहीं कर सका। उल्टा गृहमंत्री ने दो साल पुराना मुद्दा उठाकर विपक्ष को लपेट लिया कि हिन्दू आतंकवाद कहने से लड़ाई कमज़ोर हुई है। किसी ने नहीं पूछा कि इस बात का मौजूदा बहस से क्या लेना-देना है।

विपक्ष में साहस होता तो पूछता कि क्यों अजमेर से लेकर समझौता ब्लास्ट के गवाह बदल रहे हैं। मुंबई में सीपीएम ने अपनी रैली में तीस्ता को बुला लिया, लेकिन क्या कांग्रेस ऐसा कर पाएगी। क्या तृणमूल कर पाएगी। बीजेपी तो अपने मुद्दों को लेकर दुविधा में नहीं रहती। आखिर उसकी बातों का भी तो बहुसंख्यक परीक्षण करता होगा। यह क्यों मान लिया जाता है कि बहुसंख्यक वही स्वीकार करता है जो बीजेपी या आरएसएस कहती है। ऐसा कहना तो उनके श्रम और साहस को भी अनदेखा करना होगा। यह कब तक माना जाएगा कि बीजेपी को सब कुछ फोकट में मिलता है। मिलता तो दस साल कांग्रेस की सरकार क्यों रही, बीजेपी की ही रहती।

हम जो देख रहे हैं वो एक मज़बूत सरकार से घबराया हुआ कमज़ोर विपक्ष है। वो आए दिन यही तौलता रहता है कि कहीं बहुसंख्यक समुदाय मुस्लिम विरोधी तो नहीं हो गया, कहीं अल्पसंख्यक समुदाय बहुसंख्यक से नाराज़ तो नहीं है। इन सबके बीच वो साहस से अपनी बात नहीं कहता है। अपनी लाइन साफ नहीं करता है। वो अल्पसंख्य सांप्रदायिकता पर भी खुल कर नहीं बोलता। अल्पसंख्यकों से भी बात नहीं करता। दोनों तरफ से डरा हुआ विपक्ष कभी स्वस्थ राजनीति नहीं दे सकता। इसलिए विपक्ष का विरोध संसद की कार्यवाही ठप्प होने के बाद ठप्प हो जाता है।

राहुल गांधी का पुणे के फिल्म संस्थान में जाना अच्छी बात है तो उन्हें अपनी पार्टी के भीतर विश्वविद्यालयों को लेकर ईमानदार बहस करनी चाहिए। यह भी लोगों को बताना चाहिए कि उनकी पार्टी के शासनकाल में भी ग़लत तरीके से कुलपति नियुक्त किये गए। आज तमाम संस्थाओं पर नज़र है कि बीजेपी और संघ इनका राजनैतिक इस्तेमाल कर रहे हैं। नज़र होनी चाहिए मगर यही सवाल यूपीए के दौर में कम क्यों उठे। मीडिया ने भी नहीं उठाया और विपक्ष में रहते हुए शायद बीजेपी को भी नज़र नहीं आया। क्या यह बात सही नहीं है कि कांग्रेस के ज़माने में भी काफी तदर्थ तरीके से और ख़राब कुलपति नियुक्त किये गए।

पहले कांग्रेस ईमानदारी से ये स्वीकार करे और उन नेताओं से पूछे जिन्हें मंत्री बनाया था कि भाई बताइये आपने क्यों सब किया। इसके बाद ही कांग्रेस देश के विश्वविद्यालयों और कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर व्यापक राजनीतिक बहस छेड़ सकती है। लेकिन क्या वो इतनी मेहनत के लिए तैयार है। देश के सैंकड़ों विश्वविद्यालय की क्या हालत है। इस सवाल को उठाने के लिए तमाम विपक्ष कम पड़ जाए।

सिर्फ छात्रों के आंदोलन का समर्थन देकर लाभ उठाने से ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा। इससे जनता को सोचने और बहस करने की नई दलील भी नहीं मिलती है। अगर विश्वविद्यालयों का मुद्दा व्यापक रूप से उठेगा तभी सरकार भी विवश होगी बहस करने के लिए। जवाब देने के लिए। लेकिन इसके लिए विपक्ष को भी चुप करा देने वाले सवालों के लिए तैयार रहना होगा। सिर्फ चुनिंदा मामलों में चुनकर स्मृति ईरानी को टारगेट करने से कोई नतीजा नहीं निकलेगा। जनता में इस मुद्दे को लेकर कोई समझ नहीं बनेगी। कामत साहब की कितनी ख़राब टिप्पणी थी स्मृति ईरानी के बारे में। पता चलता है कि इस टाइप के नेताओं की विश्वविद्यालय की समस्या के बारे में कोई समझ नहीं है।

पांडिचेरी में भी छात्र आंदोलन कर रहे हैं। वहां की कुलपति के ख़िलाफ़ ग़लत जानकारी देने के आरोप लग रहे हैं। चार बार से कुलपति हैं। शायद कांग्रेस के ज़माने में ही बनीं होंगी। पर यह किसी से छिपा नहीं कि इलाहाबाद से लेकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को कांग्रेस के समय भी ख़राब कुलपतियों के हाथों सौंप दिया गया। और यह सिलसिला नई सरकार के आने के बाद भी जारी ही है। हाल हाल तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र बताते रहते थे कि प्रधानमंत्री मोदी के वादे के बाद भी कुलपति नहीं आया है। अब क्या स्थिति है मुझे नहीं मालूम।

इसलिए संसद को घेरना या भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करना यह राजनीति का हिस्सा तो है पर सरकार को काम करने का अवसर मिलना चाहिए। भले विपक्ष यह आरोप लगाए कि काम तो दिख ही नहीं रहा है। अच्छे दिन नहीं आ रहे हैं। यह सब क्यों नहीं संसद के पटल पर आमने सामने हो सकता है। सरकार कई बिल लाना चाहती है। क्या कांग्रेस या अन्य विपक्षी पार्टियां उन पर लगातार मेहनत कर वैकल्पिक दलील खड़ी नहीं कर सकतीं। अफसोस यह सब नहीं हो रहा है। ठीक है कि यह सब आदर्शवादी बातें हैं लेकिन यह क्यों नहीं हो सकता। जब एक सरकार से आदर्शवाद की उम्मीद की जा सकती है तो विपक्ष से क्यों नहीं। जनता में अन्य मुद्दों पर भी व्यापक समझ बने विपक्ष का यह भी काम है।

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विपक्ष जब कहता हूं तो उसका मतलब सिर्फ कांग्रेस नहीं है। विपक्ष को यह सोचना चाहिए कि सत्ता से बाहर रहकर जनता उसे नया होने का मौका देती है। उसे नया होने का प्रयास करना चाहिए। एक व्यापक राजनीतिक समझ की जगह हमेशा रहेगी उस जगह को भरने की तलाश करनी चाहिए। इसलिए संसद चले। संसद चलेगी तो सरकार चलती हुई दिखेगी। लोग देख सकेंगे कि कितनी चलती है। राजनीतिक दलों को आत्मविश्वास नहीं खोना चाहिए। मौजूदा विरोध बताता है कि आत्मविश्वास की कमी है। यह सही है कि ऐसी ही उम्मीद सरकार की तरफ से की जानी चाहिए। संसद चले और प्रधानमंत्री को काम करने का मौका मिले। देखें तो कि वे क्या काम करना चाहते हैं।