विज्ञापन
This Article is From Jun 18, 2016

मध्योग्यता का समर्थन करना बेहद ज़रूरी है

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 18, 2016 15:59 pm IST
    • Published On जून 18, 2016 15:59 pm IST
    • Last Updated On जून 18, 2016 15:59 pm IST
आज कल जब भी सरकार कोई नियुक्ति करती है योग्यता और मध्योग्यता को लेकर बहस हो जाती है। Mediocrity का हिन्दी में कोई सटीक शब्द नहीं है। इसलिए मैंने इस बहस में उतरने के लिए एक नया शब्द गढ़ा है - मध्योग्यता । मिडियोक्रिटी के बदले औसत का इस्तमाल ठीक नहीं है। मिडियोकर के लिए मैं मध्योग्य इस्तमाल करना चाहूंगा। मैं मानता हूं कि समाज के समर्थन से बने सिस्टम में योग्य और मध्योग्य दोनों होने चाहिए। मध्योग्य लोगों को भी खपाना पड़ता है। योग्य लोग धूप में उतरकर पार्टी के लिए पोस्टर बैनर नहीं लगाते। क्या उसे अपनी पार्टी की सरकार में मौका नहीं मिलना चाहिए? क्या देश में कोई नई राजनीतिक संस्कृति पैदा हो गई है जहां सिर्फ योग्य होना ही स्वीकार्य है। मुझे तो ऐसा नहीं लगता। न दिल्ली में दिखता है, न राज्यों में।

भारत में योग्य लोगों का रिकॉर्ड भी उतना ही ख़राब है जितना मध्योग्य लोगों का कोई रिकॉर्ड ही नहीं होना। आजकल जब भी योग्यता की चर्चा होती है, मैं उन तमाम लोगों के बारे में सहानुभूति से भर जाता हूं जो अपनी कम क्षमता के बावजूद उसी प्रकार से जीवन को ढो रहे हैं जिसे योग्य व्यक्ति थोड़े अधिक शाहख़र्ची और प्रदर्शन से जीता है। किसी भी देश में अवसरों की घोर कमी योग्यता को क्रूर बनाती है। इसका संबंध संसाधन से होता है। कई लोगों ने बिहार से लेकर कश्मीर तक गरीब बच्चों को प्रशिक्षण देकर आई आई टी में प्रवेश कराया है। इसका मतलब है कि योग्यता का संबंध सिर्फ नैसर्गिक प्रतिभा से नहीं होता। संसाधनों से भी होता है। बिहार का सब्ज़ी वाले का बेटा प्रतिभाशाली तो था लेकिन आनंद की कोचिंग न होती तो वो आई आई टी के लायक नहीं बन पाता।

मेरिट का तर्क नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर का अहंकारी तर्क है। अमीरों और कुछ कामयाब लोगों को लगता है कि उनका हासिल सिर्फ मेरिट से हैं। वह यह नहीं बताते कि उनकी कामयाबी में एस्सार टेप के कथित उजागरों का भी रोल है जो उन्हें नेता, नौकरशाह और न्यायपालिका के गठजोड़ से कामयाब बनाता है। आज भी ज्यादातर उद्योगपति ख़ानदानी हैं। ग़रीब को यह कहा जा रहा है कि तुम्हारे पास मेरिट नहीं है इसलिए हासिल नहीं कर सके। यह भी सही है कि इसी अर्थव्यवस्था में कई ग़रीब और मध्योग्य लोगों ने भी समय के साथ अपना विकास किया है और कामयाबी हासिल की है।

जुगाड़,सिफ़ारिशों और बाय चांस मिले मौके से भी कई बार लोगों ने प्रतिभा के नए मानक क़ायम किये हैं। हमारी शिक्षा और पारिवारिक व्यवस्था मध्योग्यता की पालनहार है। इसलिए मध्योग्य लोगों से नफरत मत कीजिये। वह जीवन से कुछ ज़्यादा नहीं चाहते। किसी की जुगाड़ से कहीं लग जाना चाहते हैं और काली पतलून और चेक शर्ट डाल दहेज़ की कार से शिमला घूमने की तमन्ना से स्थानीय पर्यटन को बढ़ावा देते रहते हैं। योग्यता के भी कई स्तर होते हैं। कोई योग्य होते हुए भी अफसर नहीं बन पाता और कोई मध्योग्य होते हुए भी चेयरमैन बन जाता है। आगे चलकर दोनों एक जैसा ही प्रदर्शन करते हैं।

मध्योग्य लोग अर्थव्यवस्था और समाज की बुनियाद हैं। इनमें से कई लोग अवसरों के लताड़े हुए हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था गुणवत्ताविहीन है। शिक्षक ठेके पर बहाल होता है और क्लास की जगह जनगणना करवा रहा होता है। ख़राब शिक्षा व्यवस्था के शिकार मध्योग्य लोग हर जगह से हार कर कचहरियों में दोयम दर्जे की वकालत से लेकर तहसीलों में लूट पाट का रास्ता खोज कर समाज में धन का समान वितरण कर रहे हैं। मध्योग्यता सिस्टम की देन है। इसका हिसाब होना चाहिए।

जब पीएम, सीएम, मंत्री, विधायक, सांसद, निगमाघ्यक्ष और पालिका-पंचायताध्यक्षों को चुनते समय हम योग्यता की बात नहीं करते तो दो तीन लोगों की नियुक्ति को लेकर इतना हंगामा क्यों करते हैं ? क्या हम विधायक या सांसद चुनते समय देखते हैं कि योग्य है या नहीं। आज कौन सा नेता है जो योग्यता को बढ़ावा दे रहा है। सांसदों को प्रचार के काम में लगाया जा रहा है जबकि उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि नीतियों के निर्माण में उनकी क्या भागीदारी रही। हम तब क्यों नहीं बोलते कि सांसद का काम क्या पार्टी अध्यक्ष के ट्वीट को रीट्विट करना है या नीतियाँ बनाना है।

चुनाव के दिनों में कोई कहीं से डाक्टर, इंजीनियर और वकालत करता हुआ आता है, किसी पार्टी में शामिल होता है और सांसद बन जाता है। इनमें से ज़्यादातर वह होते हैं जो चुनाव का ख़र्चा उठा सकते हैं। क्या तब हम राजनीति के इस पतन पर हल्ला करते हैं? क्या तब हम योग्यता का सवाल उठाते हैं? हर दल के प्रवक्ताओं की हालत देखिये। उनसे ज़्यादा योग्य उनके सांसद होंगे लेकिन आपको टीवी पर कितने दलों के सांसद बहस करते दिखते हैं। बहुत कम । दो चार को छोड़ इसलिए नहीं दिखते कि उनकी पहचान बन गई तो नेतृत्व की मध्योग्यता उजागर हो जाएगी।

हमारे देश में संस्थाओं की भूमिका समाप्त हो चुकी है। केंद्र ही नहीं राज्यों की संस्थाओं का यही हाल है। इनका पेशेवर काम नहीं रहा। जनता के पैसे से ये संस्थाएं इसलिए खड़ी की जाती हैं ताकि किसी राजनीतिक निष्ठावान को खपाया जा सके। कुछ संस्थाएं अपवाद के तौर बन गई तो ये उनकी अपनी किस्मत है। कोई भी संस्था किसी के द्वारा चलाई जा सकती है। ऐसे लोगों का इंतज़ाम करना भी राजनीतिक दल का काम होता है। क्या यह सही नहीं है कि कई लोग कुछ पाने की लालसा में अपनी पेशेवर साख राजनीतिक दलों को ट्रांसफ़र करते हैं। इसके बदले में उन्हें लाभ क्यों न मिलें? क्या हर दल में ऐसे लोग नहीं भरे हैं जिनका विचारधारा से कोई लेना देना नहीं है? पद की लालसा में ही तो वे कभी कांग्रेसी कभी भाजपाई होते रहते हैं। क्या पूर्ववर्ती सरकारों में ऐसे लोगों को लाभ नहीं मिला करता था?

योग्यता का फ़ितूर लुटियन दिल्ली के कुचक्र ने पैदा किया है। कुछ लोग योग्यता का झांसा देकर सालों से कमेटियों में दमे हैं। एक पूर्व कैबिनेट सचिव हैं। कई बार लगता है कि उनके रिटायर होने के बाद कोई दूसरा प्रशासनिक अनुभवों वाला कैबिनेट सचिव रिटायर ही नहीं हुआ है। आज भी वह रिपोर्ट बना रहे हैं। ऐसे ही कुछ पूर्व पुलिस प्रमुख और कमिश्नर हैं जिनकी मीडिया और सरकारी आयोगों में उपस्थिति देखकर लगता है कि बाकी लोग इन महकमों से बिना अनुभव के ही रिटायर हुए हैं। कई बार हमारे देश में योग्यता का भी समान वितरण नहीं होता है। ज़रूरी है कि मध्योग्य और योग्य लोगों का समान वितरण हो। मध्योग्य बेचारा कहां जाएगा? क्या वो सिर्फ नारे लगाएगा ?

इसलिए मध्योग्य लोग चिन्ता न करें। मैं उनके साथ खड़ा हूँ। मैं भारत का ही नहीं दुनिया का अकेला प्रो-मध्योग्यतावादी( pro-mediocrity) पत्रकार हूं। जो पूर्व प्रोफेसर इन दिनों योग्यता की दुहाई दे रहे हैं उन सबका रिकॉर्ड भी मध्योग्य लोगों की भर्ती कराने का ही रहा है। आज भी ऐसी भर्तियां हो रही हैं। जब नीतियां बाहर से ही बनकर आनी है तो देसी छौंक लगाने के लिए योग्यता योग्यता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। सबको 'एडजस्ट' होने का अधिकार मिलना चाहिए।

इसलिए मध्योग्य बिल्कुल शर्मिंदा न हों, मैं हूं न। जो भी पद का प्रस्ताव आये ले लीजिये। बल्कि जब उद्योगपति अपने समर्थन की क़ीमत वसूलते हैं तो खिलाड़ी और फ़िल्मकार क्यों न वसूलें। एक तो सीरियल में भी काम करो और उसके बाद रैलियों में भीम अर्जुन बनकर धूप में घूमते भी रहो। फिर सरकार बन जाए तो इस लिए बाहर कर दिये जाओ कि आप योग्य नहीं है। घोर कलयुग है। नारायण नारायण।

इस देश में पेशेवर होना कुछ नहीं होता है। बहुत कम पेशेवर हुए हैं जो दूसरों को आगे बढ़ाते रहते हैं । पहलाज निहलानी अच्छे पेशेवर नहीं थे लेकिन किसी ने उन्हें आगे तो बढ़ाया। हर कोई अनुराग कश्यप सा नहीं होता जो नए नए प्रतिभाशाली निर्देशकों को मौका देते हैं। लेकिन अपवाद के भरोसे रहेंगे तो जड़ में खाद बनकर रह जायेंगे। कोई दूसरा उग आएगा। हमारे देश की संस्थाओं की एक बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वह खपाने का काम करें। आजकल हम ऐसे ग़म मना रहे हैं जैसे कोई योग्य आ जाता तो संस्थाओं को स्वतंत्र चरित्र प्रदान कर देता। जब संस्थाओं को सरकार के राजनीतिक रंग में ही ढलना है तो कोई भी आए इससे क्या फर्क पड़ता है। मध्योग्यता अमर रहे। आमीन।

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
रवीश कुमार, मध्योग्यता, सरकारी नौकरी में भर्तियां, आईआईटी, Ravish Kumar, Mediocrity, IIT, Government Jobs