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This Article is From Sep 01, 2021

सरकार ने किया जनता से खेल, ग़रीब की थाली से बाहर सरसों का तेल

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 01, 2021 04:28 am IST
    • Published On सितंबर 01, 2021 04:28 am IST
    • Last Updated On सितंबर 01, 2021 04:28 am IST

चार महीने से भारत की जनता 100 रुपये लीटर पेट्रोल और डीज़ल ख़रीदने के लिए मजबूर है. 90 रुपया लीटर कोई सस्ता नहीं होता है. इस रेट के हिसाब से देखिए तो 2018 सितंबर महीने में मुंबई में पेट्रोल 90 रुपया लीटर हो गया था. तब से आम जनता खुशी-ख़ुशी महंगा तेल भराने के लिए मजबूर है. हर बात में ऐतिहासिक ढूंढने वाली सरकार इस बात का प्रचार नहीं करती है कि पेट्रोल और डीज़ल के दाम ऐतिहासिक स्तर पर पहुंचे हुए हैं और पहुंचने के बाद वापस ही नहीं आ रहे हैं. 

बिहार के बेगूसराय की कुछ दुकानों से हमारे सहयोगी संतोष ने सरसों तेल के ब्रांड के दाम की लिस्ट भेजी है. 
इंजन 1 लीटर -200 रुपये 
धारा 1 लीटर- 175 रुपये
हवाईघोड़ा 1 लीटर 190 रुपये
फार्च्यून कच्ची घानी 1 लीटर 180 रुपये
स्कूटर 1 लीटर -180 रुपये

180 से 200 रुपये किलो सरसों तेल का भाव है. जो एक साल पहले 80 से 90 रुपये किलो था. सरसों तेल क्यों महंगा हुआ, 2014-15 में खाद्य तेलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए नेशनल मिशन की घोषणा हुई थी, उसका क्या हुआ, उत्पादन क्यों नहीं बढ़ा, इस वृद्धि का संबंध उत्पादन की कमी से है या जमाखोरी से है, हम इन सवालों को आगे देखेंगे. लेकिन पहले यह देखेंगे कि यह महंगा तेल कौन खा रहा है, किसकी जेब में पैसा है जिस कारण इसकी मांग बढ़ी है और दाम बढ़ रहा है. जमाखोरी को समझने के लिए. 

पिछले साल लाखों लोग जब पलायन के लिए मजबूर हुए तो क्या आपको बताया गया कि किन-किन परिस्थितियों और विकल्पों का अध्ययन करने के बाद तालाबंदी का फैसला किया गया जबकि कोरोना उस रफ्तार से फैला भी नहीं था. आप यह जवाब नहीं जानते, लेकिन यह जानते हैं कि करोड़ों लोगों की नौकरी चली गई और कमाई आधी हो गई. सरकार इस बारे में कभी रिपोर्ट नहीं देती है कि प्रथम तालाबंदी से कितने लोगों की नौकरी गई. 2020 में भारत की अर्थव्यवस्था रसातल में चली गई. पहली बार भारत की जीडीपी ज़ीरो से भी नीचे माइनस में चली गई. लोगों की क्रय शक्ति ख़त्म हो गई. उसके बाद भी हालात मुश्किल से ही संभले तब तक मार्च और अप्रैल आ गया और जो हुआ आपने देखा. एक बार फिर से लोगों की कमाई और क्रयशक्ति ख़त्म हो गई. अगर इतनी बात आप समझ गए हैं तो आगे बढ़ता हूं.

अगर यह तस्वीर आपके ज़हन में स्पष्ट है तो आप इतनी आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे कि भारत के लोगों का जीवन स्तर बढ़ गया है. कांग्रेस की सांसद छाया वर्मा, सपा के सांसद  विशंभर प्रसाद निषाद और चौधरी सुखराम सिंह यादव ने तेल के दाम बढ़ने के कारण को लेकर सवाल पूछा. मानसून सत्र में सरकार से खाद्य तेलों के दाम बढ़ने का कारण पूछा गया तो खाद्य और उपभोक्ता मामलों की राज्य मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति जवाब देती हैं कि खाद्य तेलों की क़ीमतें अन्य बातों के साथ साथ मांग और आपूर्ति में असंतुलन से भी बढ़ती हैं. आगे कहती हैं कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार के कारण खाद्य तेलों की मांग में वृद्धि हो रही है. खाद्य तेलों का प्रति व्यक्ति उपभोग 2018-19 में 19.5 किलोग्राम प्रति वर्ष से बढ़कर 2019-20 में 19.7 किलोग्राम प्रति वर्ष हो गया है.

क्या वाकई 2020-21 के साल में जीवन स्तर में सुधार आया है? एक और बात है. सवाल पूछा गया है कि 2020 और 2021 में दाम क्यों बढ़े हैं लेकिन सरकार डेटा दे रही है 2018 और 2019 का. इस जवाब में सरकार ने कई कारण बताए हैं लेकिन जमाखोरी पर चुप है. क्या वाकई जमाखोरी समाप्त हो चुकी है. क्या आप मानने के लिए तैयार हैं कि 2020, 2021 में लोगों का जीवन स्तर इतना सुधर गया है कि 180 रुपये किलो सरसों तेल खा रहे हैं. वो भी कई महीनों से मांग भी बढ़ रही है और दाम भी बढ़ रहा है. 

जीवन स्तर सुधरा है तो फिर 80 करोड़ लोग कौन हैं जो प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना के तहत मुफ्त अनाज और झोला लेने के लिए लाइनों में लगे हैं. यह भारत की ग़रीबी का एकमात्र सरकारी आंकड़ा जो सरकार ख़ुद से नहीं बताती है. क्या ये अस्सी करोड़ लोग जो चावल और गेहूं नहीं ख़रीद पा रहे हैं सरसों तेल ख़ूब खरीद रहे हैं. 

2020-21 की आर्थिक तंगी को समझन के लिए सरकार के पास कई ज़रूरी आंकड़े नहीं हैं. यहां तक कि 3 अगस्त 2021 को गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने लोक सभा मे जवाब दिया कि कोविड-19 महामारी से देश में आत्महत्या पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करने के लिए सरकार ने कोई अध्ययन नहीं कराया है. क्या ये अध्ययन नहीं कराना चाहिए? 

लेकिन खबरों की कतरनों से पता चल जाता है कि लोग किस तकलीफ से गुज़र रहे हैं. 21 अगस्त की यह खबर हिन्दुस्तान की है. यूपी के औरैया के कछियात मुहाल में रहने वाले 25 वर्षीय तीन बेटियों के पिता ने आर्थिक तंगी के चलते परेशान होकर खुदकुशी कर ली. मृतक मजदूरी कर परिवार का भरण पोषण चलाता था. यह खबर भी 21 अगस्त की है. कानपुर के किदवई नगर में मंदिरों के न खुलने से प्रसाद बेचने वाले एक दुकानदार ने आत्महत्या कर ली. दुकानें बंद होने से उनकी आर्थिक स्थिति खराब थी. दैनिक भास्कर की खबर के अनुसार 25 अगस्त को, 28 साल की युवती ने आत्महत्या कर ली. परिवार आर्थिक तंगी से गुज़र रहा था. 30 अगस्त को ग्वालियर के टेंट व्यवसायी ने कोरोना में व्यापार ठप्प होने के कारण आत्महत्या कर ली. केरल के इरोड में दूध की दुकान चलाने वाले दुकानदार और उनकी पत्नी ने आत्महत्या कर ली. इसका संबंध भी कोरोना से है. आंध्र प्रदेश में एक ही परिवार के तीन लोगों ने आत्म हत्या कर ली. पिछले 18 महीने से कारोबार बंद होने के कारण लोन नहीं चुका पा रहे थे. 7 अगस्त को तमिलनाडु के कृष्णागिरी में कर्ज़ में डूबे एक ही परिवार के चार लोगों ने आत्महत्या कर ली. हमें ऐसी कई खबरें मिलीं जिनमें पूरे परिवार ने आत्महत्या की है. पति पत्नी ने आत्म हत्या की है. आत्महत्या के कारणों में कोरोना औऱ तालाबंदी है. नौकरी चली गई है. सैलरी कम हो गई है. बिज़नेस डूब गया है. लोन नहीं चुका पा रहे हैं. सूदखोर और बैंक पैसा मांग रहा है, नहीं दे पा रहे हैं. 

हम वापस लौटते हैं सरसों तेल के दाम पर. उसके विकल्प में लोग सब्ज़ी कैसे खा रहे हैं, कितनी बार खा रहे हैं, इसका अंदाज़ा लगाने के लिए हमारे दो सहयोगियों संतोष और प्रभात कुमार ने अलग अलग इलाकों में लोगों से बात की.

बिहार के बेगुसराय से संतोष ने यह रिपोर्ट भेजी है. एक साल पहले सरसों का तेल 80-90 रुपया किलो मिल रहा था लेकिन मई के महीने में ही एक किलो सरसों तेल का दाम 170-80 रुपया हो गया था. इस अगस्त में तो 190-200 रुपया तक पहुंच गया है. 90 रुपये का तेल 180-190 रुपये में मिल रहा है. 100 प्रतिशत महंगाई है. संतोष ने बेगुसराय के प्रमिला चौक स्थित किराना व्यवसाय करने वाले पवन कुमार से बात की. पवन ने बताया है कि लोगों ने तो सरसों तेल खरीदना कम कर दिया है. पहले जो लोग 5 लीटर का डिब्बा खरीदते थे वो अब 500 ग्राम और 200 ग्राम तेल की शीशी खरीद रहे हैं. पवन ने कहा कि जब तेल 90 से 80 रुपये किलो मिला करता था तब उनकी दुकान से महीने में 300 से 400 लीटर तेल बिक जाया करता था. अब महीने में 100 लीटर ही बेच पाते हैं. ठीक यही बात बेगूसराय के ही एक दुकानदार प्रभात कुमार ने कही. कहते हैं कि सरसों तेल खरीदने बहुत कम ग्राहक आते हैं. वो भी आधा किलो और एक किलो से ज्यादा की खरीदारी नही करते हैं. उनकी दुकान में भी सरसों तेल की बिक्री 25 प्रतिशत रह गई है. 

इन दो दुकानदारों का अनुभव बता रहा है कि इनके यहां से लोगों ने सरसों तेल खरीदना काफी कम कर दिया है. यानी उनका जीवन स्तर नहीं सुधरा है और मांग कम हो रही है.. कई महिलाओं ने कहा कि तेल के विकल्प के रूप में उबालकर खा रहे हैं. उबालने की बात पर हमें संदेह ही हुआ, लेकिन क्या यह सच्चाई नहीं हो सकती. अगर उबालने की बात सही नहीं है तो क्या यह सही नहीं होगा कि 180 रुपये किलो तेल लोग खरीद नहीं पा रहे हैं. खरीद भी रहे हैं तो उनकी सारी कमाई खर्च हो जा रही है.

रसोई के समय नहीं पहुंचने के कारण संतोष को गीता देवी से गुज़ारिश करनी पड़ी कि वे बनाकर दिखाएं कि कैसे उबालकर पकाती हैं. गीता देवी ने उबालकर सब्जी पकाई और बताया है कि इसी तरह से खाने लगी हैं. उनके  पति जय जय राम सदा दिहाड़ी कमाते हैं. 6000 आमदनी होती है. गीता का कहना है कि सरकार चावल और गेहूं तो दे रही है लेकिन बाकी कोई चीज़ सस्ती नहीं है. सरसों तेल इतना महंगा हो गया है कि सब्ज़ी खाना कम कर दिया है और जब खाते हैं तब इस तरह से पानी में उबालते हैं. उबली हुई सब्ज़ी और चावल खाते हैं. जब सरसों तेल 80 रुपये किलो बिक रहा था तो महीने में एक से डेढ़ किलो तेल खरीदते थे लेकिन अब 10 रुपये का ही तेल खरीद पाते हैं रोज.

सरसों तेल के ज़रिए अगर आप आज के भारत के परिवारों में झांकेंगे तो पता चलेगा कि क्यों सरकार इस पर बात नहीं कर रही है. हम और आप नहीं जानते कि इसके दाम ने रसोई में क्या बदलाव लाया है. बच्चों की ज़िद पूरी हो रही है या नहीं. लोग कम से संतोष कर रहे हैं या ज्यादा खा रहे हैं.  

बेगूसराय के ही नयागांव की सकुंती देवी के पति नहीं हैं. खेतों में मज़दूरी करती हैं. बारिश के कारण काम मिलना बंद है. उबालकर खा रही हैं और कई बार आधा पेट ही खाने को मिलता है. इसी तरह प्रमिला देवी के पति की कमाई घट गई है. बाढ़ के कारण पिछले एक महीने से कमाई बंद है. प्रमिला ने दाल बनाना बंद कर दिया था. उनका कहना है कि पहले दो ढाई किलो सरसों तेल खरीद कर खाती थी लेकिन बीते 6 महीना से 1 किलो में ही काम चलाना पड़ रहा है वह भी 100-200 ग्राम करके लाती हैं. प्रमिला देवी के पांच बच्चे भी हैं.  सोचिए सात लोगों का परिवार एक किलो सरसों तेल में छह महीने से सब्ज़ी वगैरह बना रहा है. प्रमिला ने कहा कि सब्ज़ी को पानी में उबालकर बनाती हैं. तेल नाम मात्र का डालती हैं. 

180 रुपया किलो सरसों का तेल है. पेट्रोल 100 रुपया लीटर से ऊपर है. रसोई गैस का सिलेंडर 856 रुपये का है. हर तरफ से जेब खाली हो रही है. राजनीतिक दल महंगाई के सवाल पर वोट पा जाते हैं लेकिन जब सरकार में आते हैं तो महंगाई के असर का अध्ययन नहीं कराते. 
  
कविता देवी का परिवार 7-8 हज़ार की कमाई पर जीता है. महंगाई ने इनके दैनिक खान पान को पीछे धकेल दिया है. कविता भी सब्ज़ी उबालकर खाने की बात कर रही हैं. अब सब्ज़ी बनती है तो एक सब्ज़ी बन जाए उसे ही बहुत समझती हैं. जया कुमारी के पति का वेतन तालाबंदी में कम हो गया. दाम तो कम हुआ नहीं. परिवार अब आलू का चोखा खाने लगा है. मांस मछली का बनना न के बराबर रह गया है. रेणु देवी के पति के पास 5 बीघा ज़मीन है. खेती ही कमाई का ज़रिया है. ठीक ठाक खाने वाला परिवार कह रहा है कि जीने भर के लिए खा रहे हैं. घर का बजट पहले ही बिगड़ चुका था, सरसों ने खलबली मचा दी है. पहले जहां घरों में 5 लीटर सरसों तेल की खपत होती थी अब 2 लीटर में ही काम चलाना पड़ रहा है. 

अब आप तेल के उत्पादन को बढ़ाने की योजनाओं और सरकारी जवाबों को ट्रैक कीजिए. यह सही है कि खाद्य तेल का आयात होता है लेकिन सरसों तेल का आयात न के बराबर होता है. डाउन टू अर्थ की रागिनी झा और रेंजिनी वी आर और आदित्य के एस ने इस साल फरवरी में एक लंबी रिपोर्ट में बताया है कि भारत में जिन तेलों का आयात होता है उसमें 62 प्रतिशत पाम ऑयल है. 21 प्रतिशत हिस्सा सोया तेल का है और 16 प्रतिशत सूरजमुखी के तेल का हिस्सा है. 97 प्रतिशत हिस्सा इन तीन तेलों का है. साफ है सरसों तेल का आयात न के बराबर है और सरसों तेल के दाम बढ़ने का संबंध अंतरराष्ट्रीय कारणों से नहीं है. 

अब आईए आयात के खेल पर. सरकार ही कहती है कि 75000 करोड़ का तेल आयात होता है. 2014-15 से तेल के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की योजना चल रही है. वो अगर कारगर होती तो 2019 में कई मंत्रालयों के सचिवों को मिलाकर बनी कमेटी सुझाव नहीं देती कि इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर तभी बनेंगे जब आयात कम किया जाए. आयात शुल्क बढ़ा दिया जाए. सरकार आयात शुल्क बढ़ा देती है. रिफाइंड पाम ऑयल पर 50 फीसदी तक आयात शुल्क बढ़ाया गया ताकि बाहर से कम आए और भीतर किसानों को दाम मिले. इस साल दाम बढ़ने लगे तो इंडस्ट्री हल्ला करने लगी कि आयात शुल्क ज्यादा है. तो 29 जून को सरकार ने पाम ऑयल पर आयात शुल्क कम कर दिया.क्या इसका संबंध जमाखोरी से नहीं हो सकता है? क्या यह सवाल इतना ग़ैर वाजिब है कि तेल के दाम बढ़ने के बाद जब आयात शुल्क कम हुआ तो उसका फायदा किसे हुआ? इंडस्ट्री को या आम लोगो को? लेकिन आयात निर्यात के खेल में सरसों का तेल तो शामिल है नहीं. फिर सरसों का तेल क्यों महंगा हो रहा है.  

बहुत सारा डेटा देना और रिसर्च देना संभव नहीं है लेकिन पुरानी खबरों और सरकार के बजट को पलटते हुए पता चला कि हेडलाइन छपने के बाद उसकी हकीकत कुछ और हो जाती है. नवंबर 2019 के इकोनमिक टाइम्स में वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल का बयान छपा है. वाणिज्य मंत्रालय ने कृषि मंत्रालय से कहा है कि खाद्यान्न तेलों के उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए रोडमैप तैयार करे. अलग अलग मंत्रालयों के साथ हुई बैठक में चर्चा हुई है कि खाद्यान्न तेलों के आयात को ज़ीरो कैसे किया जाए. 

इकॉनमिक टाइम्स की जिस खबर में पीयूष गोयल का बयान छपा है उसी में बताया गया है कि 2014 से जो नेशनल मिशन चल रहा था उसमें अभी तक 10,000 करोड़ रुपये का सपोर्ट दिया गया है. 2019 की घोषणा के अनुसार किसानों की आय दुगुनी करने के लिए अगले दस साल के दौरान 2030 तक खाद्यान्न तेल के उत्पादन में आत्मनिर्भर होना है. यह सरकार का बड़ा लक्ष्य है. दो साल बाद इसी अखबार में, जनवरी 2021 की एक खबर है, जिसमें कहा गया है कि कृषि मंत्रालय ने आगामी बजट में तेल उत्पादन को सपोर्ट करने के लिए 19000 करोड़ की मांग की है. पांच साल के लिए यह राशि मांगी गई थी अगस्त 2021 में कैबिनेट फैसला करती है कि National Mission on Edible Oil-Oil Palm के तहत अगले पांच साल में 11000 करोड़ खर्च होंगे. 2019 से 2021 आ गया है बल्कि अब तो जा रहा है. क्या उसी योजना की बार बार पैकेजिंग हो रही है? इस मिशन की रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों से पता चलता है कि सरकार बजट में जितना घोषित करती है, पैसा उससे कम देती है और जितना पैसा देती है उससे भी कम खर्च करती है. नेशनल मिशनल ऑन oilseeds and Oil Palm  की वेबसाइट पर 2017 तक इसी तरह का हिसाब दिखता है. 

तो इसका मतलब यह हुआ कि आत्मनिर्भरता एक स्लोगन से ज्यादा कुछ नहीं. उत्पादन भी खास नहीं बढ़ा और पैसा भी खास नहीं था. इस योजना का संबंध दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत से ही है जहां ताड़ के पेड़ की खेती होती है. इसका संबंध पर्यावरण के सवाल से भी है जिस पर अलग से बात की जानी चाहिए. यह साफ है कि इस पैसे से तिलहन के किसानों को सपोर्ट नहीं मिलने वाला है. वैसे भी जनता सरसों के दाम से परेशान है और घोषणा पाम ऑयल को लेकर हो रही है. भारत में सरसों तेल के बाद सबसे अधिक सोयाबीन और मूंगफली के तेल की खपत होती है. इनके दाम भी भयंकर तरीके से बढ़े हैं. 

जनता सरसों तेल के दाम बढ़ने से त्राही-त्राही कर रही है. आयात या निर्यात न के बराबर होने के कारण सरसों तेल की कीमतों का संबंध अंतर्राष्ट्रीय कीमतों से कम ही लगता है. तो दाम क्यों बढ़ रहे हैं? क्या जमाखोरी वजह है? याद रहे नई कृषि नीति में जमाखोरी की सीमाएं समाप्त कर दी गई हैं. तेल के बीज और खाद्यान्न तेलों को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया गया है. गोदाम भी लीज़ पर दिए जाएंगे. बीजेपी सांसद खगेन मुर्मू ने सवाल किया था कि सरकार तेल के उत्पादन में आत्मनिर्भरता के लिए क्या कर रही है तो 10 अगस्त 2021 को कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने जवाब में सरकार की कई योजनाएं गिना देते हैं जिन्हें सम्मिलित रुप से PM-ASHA कहा जाता है. 

इस योजना के तहत किसानों को कीमतों में समर्थन देना था ताकि किसानों को सही दाम मिले और उनकी आय दुगुनी हो. सरकार इस योजना का कम ही प्रचार करती है. इसमें खाद्यान्न तेल के किसानों को भी सपोर्ट करना शामिल था. सरकार पहले साल यानी 2018-19 में बजट से काफी अधिक खर्च करती है. 1500 करोड़ बजट था लेकिन खर्च करती है 4700 करोड़ से अधिक. लेकिन अब यह खर्च घटते घटते 300 करोड़ पर आ गया है. ज़ाहिर है सरसों की खेती करने वालों को कीमतों का सपोर्ट नहीं मिल रहा होगा. हिन्दू अखबार की रिपोर्ट है कि सरकार ने PM-ASHA के तहत बहुत कम खरीदारी की. मात्र 3 प्रतिशत. जब स्कीम लांच होती है तब हेडलाइन बड़ी छप जाती है कि किसानों को बाज़ार भाव का अंतर मिलेगा लेकिन हेडलाइन गायब भी हो जाती है. 

आसान नहीं है सरकार के डेटा को समझना. उलझने का खतरा रहता है. 2014 से उत्पादन बढ़ाने और आत्म निर्भर होने की योजनाएं बेअसर रही हैं. किसानों को दाम नहीं मिल रहा है. उपभोक्ता से इतना दाम लिया जा रहा है कि उसके जेब में कुछ नहीं बच रहा है. लोग सरसों का तेल नहीं खा पा रहे हैं लेकिन कुछ हिन्दू नाम से चल रहे संगठन और युवाओं के दल यह तय करने में काफी मेहनत कर रहे हैं कि मुसलमान क्या खाएं, क्या पहनें और अपने ठेले पर किसका नाम रखें. हिन्दी प्रदेश ने इस स्तर पर पहुंचने के लिए कम मेहनत नहीं की है. उसकी खातिर इस असहिष्णुता के बाद भी आप सहिष्णुता पर गर्व कर सकते हैं. 

हिन्दी प्रदेश अभिशप्त प्रदेश हो गया है. वो इससे शायद ही कभी निकल पाए. ठीक उसी तरह से जैसे जमाखोरी शायद भी आप कभी समझ पाए. जमाखोरी अगर वजह नहीं है, तो क्या यह वजह हो सकती है कि कुछ खिलाड़ी हैं जो तेल के बढ़ते दामों में अपनी जेब भर रहे हैं, यह सवाल है. पेट्रोल और सरसों तेल के कारण लोग गरीब हो रहे हैं. उनकी बचत घट रही है. खुशी की बात यह है कि प्रोपेगैंडा में कोई कमी नहीं है. दिन ब दिन सस्ता होता जा रहा है.लोग सरसों तेल नहीं खरीद पा रहे हैं और अखबारों ने भारत को महाशक्ति लिखना शुरू कर दिया है. 

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