प्रधानमंत्री जी, राज्यों की नहीं, अपनी बात कीजिए

सरकार को बताना चाहिए कि बायोलोजिकल ई कितने टीका का उत्पादन करेगी और उसके कितने हिस्से पर भारत का हक होगा, आप तक यही सूचना पहुंची कि यह स्वदेशी टीका है, जो कि नहीं है

प्रधानमंत्री जी, राज्यों की नहीं, अपनी बात कीजिए

टीकाकरण के अभियान की पूरी जिम्मेदारी अब भारत सरकार उठाएगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा कि 21 जून से राज्यों की खरीद का 25 प्रतिशत हिस्सा भी केंद्र खरीदकर राज्यों को देगा. 18 साल से ऊपर के सभी को मुफ्त दिया जाएगा. प्राइवेट अस्पतालों का 25 प्रतिशत कोटा बरकरार रहेगा लेकिन 150 से अधिक सर्विस चार्ज नहीं ले सकेंगे.

प्रधानमंत्री ने इससे पहले राज्यों पर जवाबदेही डाल दी. कहा कि 16 जनवरी से 21 अप्रैल तक टीका अभियान की एक व्यवस्था चली आ रही थी लेकिन राज्यों की तरफ से भांति-भांति के स्वर उठने लगे. कहा जाने लगा कि संविधान में स्वास्थ्य राज्यों का विषय है. इसलिए फैसला किया गया कि एक मई से टीका अभियान की जवाबदेही राज्यों को दे दी गई. प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया कि केंद्र जिस टीका अभियान की रणनीति पिछले कई महीनों से बना रहा था, और 16 जनवरी से चला था जब राज्यों को दिया गया तो उन्हें 11 दिन का वक्त दिया गया. 19 अप्रैल को ऐलान होता है कि राज्य टीका अभियान चलाएंगे और कहा जाता है कि एक मई से चलाएंगे. कितना कम समय दिया गया राज्यों को. यही नहीं सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने हलफनामा देकर कहा कि भारतीय कंपनियों से केंद्र पचास प्रतिशत टीका खरीदेगा. राज्य और प्राइवेट अस्पताल 25-25 प्रतिशत खरीदेंगे. लेकिन कोई राज्य कितने टीके खरीदेगा इसका कोटा केंद्र तय करेगा. यही नहीं राज्यों को केंद्र से अधिक दाम पर टीका मिल रहा था.

इस बात की खूब आलोचना होने लगी. अदालत में और अदालत के बाहर पूछा जाने लगा कि यह कैसी नीति है कि एक ही कंपनी से केंद्र सरकार सस्ते दाम में टीका खरीद रही है और उसी कंपनी से राज्य सरकार दोगुने से अधिक दाम पर टीका खरीद रही है. यह नीति केंद्र ने बनाई थी लेकिन इस बारे में प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं कहा. राज्यों पर ही सारा दोष डाल दिया. नहीं बताया कि केंद्र ने ऐसी नीति बनाई थी कि राज्य महंगे दामों में टीका खरीदें लेकिन पैसा राज्य ही देंगे. राज्य पूछने लगे कि केंद्र ने टीका खरीदने के लिए 35000 करोड़ का प्रावधान किया है, वह पैसा कहां है. उसी पैसा से टीका खरीद कर राज्यों को दिया जाए ताकि राज्यों पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ न पड़े. 

यही नहीं राज्यों को ग्लोबल मार्केट से टीका खरीदने के लिए छोड़ दिया गया जबकि यह काम केंद्र का था. राज्य अपनी जवाबदेही में फेल नहीं हुए बल्कि कहने लगे कि टीका तो केंद्र को खरीदना था. कोई भी कंपनी राज्य सरकार से सौदा नहीं करना चाहती है, केंद्र से गारंटी चाहती है. राज्यों के दबाव में आने से पहले केंद्र को इन पहलुओं पर विचार करना चाहिए था. जब एक के बाद एक ग्लोबल टेंडर फेल होने लगे और भारतीय कंपनियों से टीका मिलने का चांस कम होने लगा तब अशोक गहलोत, अरविंद केजरीवाल, नवीन पटनायक, पिनाराई विजयन, हेमत सोरेन जैसे विपक्ष के मुख्यमंत्री आवाज़ उठाने लगे. केरल विधानसभा ने प्रस्ताव पास किया कि केंद्र ही टीका खरीदे. केंद्र टीका अभियान का अधिकार दे इसलिए किसी विधानसभा ने प्रस्ताव पास नहीं किया था. नवीन पटनायक ने राज्यों को पत्र नहीं लिखा था. 5 जून को राहुल गांधी ने पहले कहा था कि केंद्र ही खरीद करे और वितरण करे. प्रधानमंत्री ने विपक्ष की बात तो मानी लेकर सारा दोष राज्यों पर डाल दिया.  

18 अप्रैल को ममता बनर्जी ने लिखा था कि टीका खरीदने की जिम्मेदारी राज्य पर डाल दी जाए. राज्य अपने फंड से टीका खरीदें. पंजाब के मुख्यमंत्री ने भी कहा था कि राज्य को अपनी वैक्सीन नीति बनाने दें. प्रधानमंत्री ने कहा कि कुछ ही समय बाद राज्य विरोध करने लगे. विरोध करने वालों में बीजेपी शासित राज्य नहीं थे. लेकिन क्या केंद्र ने वही नीति बनाई जैसी राज्य चाहते थे. 19 अप्रैल को केंद्र राज्यों पर टीका की जवाबदेही डालता है लेकिन उसके एक दिन पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हैं. मनमोहन सिंह कहते हैं कि केंद्र सरकार अगले 6 महीने में किन टीकों की डिलीवरी की उम्मीद कर रही है, ये स्पष्ट किया जाए. लिखा था कि पहले ही टीके का ऑर्डर दे दिया जाए. ये भी बताएं कि कैसे इस सप्लाई का राज्यों में वितरण किया जाएगा. 10 प्रतिशत इमरजेंसी के लिए रख लें लेकिन बाक़ी का प्रयोग किस तरह करना है, इसे लेकर राज्य ठीक से प्लान कर सकें. राज्यों को यह तय करने आज़ादी हो कि किस ग्रुप को टीका पहले लगाना है. 45 से नीचे वालों में भी अगर वो किसी को टीका लगाना चाहें जैसे कोई फ्रंटलाइन वर्कर हो तो ये आज़ादी उन्हें हो.  Compulsory licensing provisions लागू किया जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा कंपनी टीका बना सकें. और ये कि जिन टीकों को बाहर की विश्वसनीय संस्थाओं ने अनुमति दे दी है उन्हें भारत में आने की अनुमति मिले.

मनमोहन सिंह 18 अप्रैल को पत्र लिखते हैं कि केंद्र सरकार अनिवार्य लाइसेंस नीति के तहत दूसरी कंपनियों को टीका उत्पादन का अधिकार दे. इस बात को समझने में केंद्र सरकार लंबा वक्त लगा देती है. 17 मई को वीके पॉल कहते हैं कि भारत बायोटेक अपना पेटेंट कुछ कंपनियों के साथ साझा करने को तैयार है. अब इस मामले में क्या प्रगति है, सरकार ही बता सकती है. यही नहीं भारत बायोटेक का पेटेंट ICMR के पास होने के बाद भी दूसरी कंपनियों को उत्पादन के अधिकार की बात भी सरकार काफी देर से करती है.आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के सवाल पूछने के बाद केंद्र सरकार की नींद टूटी है.

प्रधानमंत्री ने यह नहीं कहा कि एक मई से केंद्र अपनी जवाबदेही भी पूरी नहीं कर पा रहा था. पचास परसेंट टीका खरीदने के अधिकार होने के बाद भी जिन्हें पहली डोज़ लगी थी उनके लिए दूसरी डोज़ नहीं थी. आज भी बहुतों को दूसरी डोज़ नहीं मिली है. लिहाज़ा कोवैक्सीन की दूसरी डोज़ का अंतराल तीन महीना कर दिया गया. टीका अभियान को लेकर सवाल उठने लगा कि पिछले साल जब दुनिया के बड़े देश खरीद रहे थे तब भारत क्या कर रहा था. इसका सीधा जवाब तो नहीं दिया लेकिन प्रधानमंत्री ने कहा कि अपने देश के वैज्ञानिकों पर भरोसा था इसलिए सरकार टीके के वितरण के काम में लग गई. अमेरिका जैसे देश अपनी कंपनियों के अलावा दूसरे देश की कंपनियों से भी टीका खरीद रहे थे. इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें अपने देश के वैज्ञानिकों पर कम भरोसा था. 

केंद्र सरकार ने आज इस फैसले को लेकर क्या सुप्रीम कोर्ट में जवाब देने से खुद को बचाया है. सवाल यह है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा था कि टीका अभियान से जुड़ी एक-एक फाइल अदालत के सामने पेश की जाए. कोर्ट ने कहा कि टीका का आर्डर कब दिया गया, कब अडवांस पेमेंट किया गया, उसकी एक-एक जानकारी दी जाए. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से कहा था कि 18 साल से 44 साल की उम्र के लोगों के टीका देने की जो नीति बनाई है उसका कोई तार्किक आधार नहीं है. यानी बिना सोचे समझे बनाई गई लगती है. कोवैक्सीन, कोविशील्ड और स्पुतनिक की खरीद का जो भी रिकार्ड है उसका पूरा डेटा दिया जाए, हर तारीख को कितने डोज़ की ख़रीद का आर्डर किया है. किस तारीख़ को सप्लाई की बात कही गई है.

आलोचना में तो बहुत से सवाल उठे. सवाल यह भी उठा कि चारों तरफ लाशें दिख रही हैं फिर भी सरकार और श्मशान के रिकार्ड में अंतर क्यों है. इस पर प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं कहा. विपक्ष ने भी आरोप लगाया कि मरने वालों की संख्या कम बताई जा रही है. इस पर भी केंद्र ने नहीं कहा. प्रधानमंत्री ने इसे सौ साल की सबसे बड़ी महामारी कहा लेकिन 1918 में जब भारत में स्पेनिश फ्लू आया था तब दो करोड़ से अधिक लोग मर गए थे. प्रधानमंत्री किस पैमाने पर इसे सौ साल की सबसे बड़ी महामारी कह रहे हैं. उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री कहते कि मरने वालों की संख्या को छिपाना मानवता के लिए अच्छा नहीं है. लेकिन कुछ नहीं कहा इस पर.

प्रधानमंत्री साफ-साफ कह रहे हैं कि क्लीनिकल ट्रायल और रिसर्च एंड डेवलपमेंट के लिए भारतीय कंपनियों को हज़ारों करोड़ रुपये दिए गए. क्या वाकई इस काम के लिए हज़ारों करोड़ रुपये दिए गए. 9 मई को सुप्रीम कोर्ट में उनकी ही सरकार ने हलफनामे में कहा है कि सीरम और भारत बायोटेक को क्लीनिकल ट्रायल के लिए कुल 46 करोड़ रुपये दिए गए. इसी हलफमाने में केंद्र सरकार कहती है कि इन दोनों कंपनियों को टीके की रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए एक पैसा नहीं दिया है. जबकि कोवैक्सीन को PPP मॉडल से बनाया गया है. इसमें  ICMR और भारत बायोटेक दोनों साझीदार हैं. 

क्या ये हज़ारों करोड़ हैं? सरकार ही कह रही है कि रिसर्च और डेवलपमेंट में कोई पैसा नहीं दिया. क्लीनिकल ट्रायल के लिए भारत बायोटेक और सीरम को कुल 46 करोड़ दिए गए. लेकिन डेवलपमेंट और रिसर्च के लिए एक पैसा नहीं दिया गया. लेकिन प्रधानमंत्री अपने भाषण में कहते हैं कि हज़ारों करोड़ दिए गए. सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने कहा जो भी बड़ा पैसा दिया मैन्युफैक्चरिंग के लिए दिया है. रिसर्च डेवलपमेंट के लिए नहीं. लेकिन प्रधानमंत्री आसानी से बोल गए कि हज़ारों करोड़ रुपये दिए गए.

आक्स्फ़र्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक 20 सालों से जिस तकनीक पर काम कर रहे थे उसी के परिणाम से ये टीका तैयार हुआ. गार्डीयन में इसी साल ख़बर छपी है कि इस टीके की रिसर्च और इसके विकास में लगा 97% पैसा पब्लिक फ़ंड से था. आक्स्फ़र्ड को मिले 1000 करोड़ रुपये में से अधिकतर UK के टैक्स भरने वाले नागरिकों ने दिया था या संस्थाओं ने. ये पैसा दो दशकों की इस रिसर्च को मिलता रहा है. UK की सरकार, वेल्कम ट्रस्ट और अमेरिका और यूरोप के संस्थानों ने भी काफ़ी फ़ंड दिए. कोविशील्ड का intellectual पेटेंट astrazeneca के पास है जिस वजह से सिरम को कई डोज़ इंग्लैंड भेजनी पड़ी हैं. सिरम के पास कोविशील्ड का सब-लाइसेन्स है. ऐसे में सवाल उठता है कि सिरम ने कोविशील्ड टीके के विकास में और उसकी रिसर्च में क्या योगदान दिया है. क्या सिरम ने सिर्फ़ उत्पादन ही किया है या रिसर्च भी किया है?

प्रधानमंत्री बार-बार चरणबद्ध तरीके से टीकाकरण पर ज़ोर देते रहे लेकिन जब सब कुछ इतना ही चरणबद्ध था तो फिर मई के महीने में अचानक इतना बड़ा संकट क्यों आया. उन्होंने यह नहीं बताया कि राज्यों को एक मई के बाद से अधिक डोज़ दिए गए हैं या पहले से भी कम मिलने लगा. निश्चित रुप से संकट अभूतपूर्व और अकल्पनीय था लेकिन यह बिल्कुल अकल्पनीय नहीं था कि महामारी किस रूप में लौट सकती है और मेडिकल ढांचे कैसे चरमरा सकते हैं. दिल्ली का ही स्वास्थ्य ढांचा हफ्ते भर में चरमरा गया था. केंद्र ने राज्यों को टीका करने की छूट दी लेकिन टीके की सप्लाई का पूरा कंट्रोल अपने पास रखा. राज्यों ने दबाव डाला भी तो दूसरी लहर के बीच में उन पर टीका खरीदने का काम नहीं छोड़ा जाना चाहिए था. वो गलत समय था. 

प्रधानमंत्री ने कहा कि पिछले साल अप्रैल में जब वैज्ञानिक रिसर्च वर्क कर रहे थे तभी से सरकार ने लाजिस्टिक की तैयारी शुरू कर दी थी. लेकिन रिकार्ड के अनुसार वितरण भंडारण का काम देने वाले टास्क फोर्स की पहली बैठक 12 अगस्त को होती है. इस टास्क फोर्स का नाम है NEGVAC. इसी 3 जून को भारत सरकार ऐलान करती है कि भारत की एक कंपनी BIOLOGICAL E को पंद्रह सौ करोड़ का एडवांस दिया है 30 करोड़ डोज़ के लिए. 3 जून को डा हर्षवर्धन ट्वीट करते हैं कि अपने नागरिकों के स्वास्थ्य एवं कल्याण को सुरक्षित करने के लिए भारत सरकार ने @biological_e के साथ 30 करोड़ टीके का करार किया है जो क्लिनिकल ट्रायल के तीसरे चरण में है. अगस्त और दिसंबर के बीच स्टाक भेजने के लिए 1500 करोड़ की अग्रिम राशि दी जा रही है. यह बताता है कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सरकार कोविड से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध बनी हुई है. @biological_e जिस टीके का विकास कर रहा है उसे भारत सरकार ट्रायल शुरू होने के पहले से सपोर्ट कर रही है. मिशन कोविड सुरक्षा के तहत.

सब देश ट्रायल के लेवल ही टीके का आर्डर कर रहे थे अमेरिका वगैरह मई जून में ही. जब ट्रायल के चरण में ही टीके का आर्डर किया गया है तो पिछले साल ही कर लिया गया होता . कम से कम ऐसी आफत न होती.डॉ हर्षवर्धन के ट्वीट करते ही न्यूज़ वेबसाइट की हेडलाइनें सुनहरी होने लगती हैं और हम ग़ौर से देखने लगते हैं.

तीन जून की प्रेस रिलीज़ आते ही हिन्दी और अंग्रेज़ी के कई समाचार संस्थानों ने अपनी बेवसाइट और अखबार में मेड इन इंडिया लिखा. अमर उजाला,प्रभात खबर, हिन्दुस्तान ने मेड इन इंडिया और स्वदेशी का इस्तेमाल किया है. नव भारत टाइम्स ने मेड इन इंडिया का इस्तेमाल नहीं किया है. कई समाचार संस्थानों ने मेड इन इंडिया का इस्तेमाल नहीं किया. स्वास्थ्य मंत्री ने अपने ट्वीट में मेड इन इंडिया नहीं कहा लेकिन PIB की प्रेस रिलीज़ में इसे आत्मनिर्भर भारत और मिशन कोविड सुरक्षा अभियान का हिस्सा बताया गया है. 

कंपनी और सरकार दोनों को साफ करना चाहिए कि 1500 करोड़ जिस 30 करोड़ डोज़ के लिए दिया जाएगा वह डोज़ मेड इन इंडिया है, आत्मनिर्भर अभियान के तहत विकसित हुआ है या इसके विकास में और भी देश की संस्था पार्टनर हैं? यहां से आप एक और खेल को समझने जा रहे हैं. 13 मई को ही सरकार ने कहा था कि बायोलॉजिकल ई से 30 करोड़ का डोज़ ख़रीदा जा रहा है. फिर 3 जून को सरकार क्यों बयान देती है? क्या इसलिए कि 1500 करोड़ एडवांस देने का ऐलान हुआ था तब 13 मई को 30 करोड़ डोज़ का करार बिना पैसे के हो गया था? 3 जून को सरकार के बयान के बयान पर गौर करना चाहिए. 

ज़ाहिर है मीडिया लिखने लगेगा कि स्वदेशी है तो मेड इन इंडिया है. अब आपको हम बायोलोजिकल ई की वेबसाइट पर ले जाते हैं. 24 अप्रैल को यह कंपनी एक प्रेस रिलीज़ जारी करती है. यह प्रेस रिलीज़ भारत की किसी प्रयोगशाला से जारी नहीं होती है. बल्कि डॉ मारिया एलेना बोत्ताज़्ज़ी का बयान है जो अमेरिका के बेलर कॉलेज आफ मेडिसिन की डीन हैं. टेक्सस में ही प्रधानमंत्री मोदी ट्रंप के समर्थन में हाउडी मोदी रैली करने गए थे. वहां के बच्चों के अस्पताल में एक सेंटर फॉर वेक्सीन डेवलपमेंट केंद्र चलता है उसी केंद्र ने इस टीके का विकास किया है जिसका ट्रायल केवल भारत में चल रहा है. डॉ मारिया एलेना बोत्ताज़्ज़ी कहती है कि हमारे टीके का ट्रायल तीसरे चरण में पहुंच गया है जो दुनिया भर में प्रोटीन आधारित टीके के महत्व के लिए अहम है. यह टीका कम आमदनी वाले देशों के लिए उम्मीद पैदा करता है.

तीन जून की प्रेस रिलीज में लिखा है कि भारत सरकार ने सौ करोड़ रुपये दिए हैं लेकिन कंपनी की वेबसाइट या बेलर कालेज की वेबसाइट पर लिखा है कि कुछ पैसे भारत सरकार ने दिए लेकिन  बाकी का पैसा बिल गेट्स फाउंडेशन और CEPI Coalition for Epidemic Preparedness Innovations ने दिया है. इसका मतलब है कि बायोलोजिक ई जो टीका बना रहा है वह स्वदेशी नहीं है. इस कंपनी की वेबसाइट पर जो प्रेस रिलीज़ है वह 24 अप्रैल की है. इसके ठीक तीन दिन पहले 21 अप्रैल को कोविड टास्क फोर्स के प्रमुख डॉ वीके पॉल का एक बयान है. जिसमें दावा करते हैं कि बायोलोजिकल ई का टीका भारत सरकार की मदद से बन रहा है. 

वीके पाल ने बायोलोजिकल ई को मैन्युफैक्चरर कहा है. मतलब यही हुआ कि टीके का विकास किसी और ने किया है, निर्माता कंपनी का नाम बायोलोजिकल ई है. लेकिन क्या यह टीका केवल भारत सरकार की मदद से बन रहा है? क्या ऐसा दावा किया जा सकता है, खासकर तब जब उसी टीके के विकास में कई और देश और संस्थाएं साझीदार हों? 

टाइम्स आफ इंडिआ और इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है कि BIOLOGICAL E में बनने वाला कोरबेवैक्स टीके का विकास अमेरिका के टैक्सस शहर की एक संस्था ने किया है. जिसका नाम है Texas Children's Hospital Centre for Vaccine Development जो कि ह्यूस्टन, टेक्सस के Baylor College of Medicine  का सेंटर है. इस सेंटर ने सार्स की लहर के समय ही टीके की एक तकनीक विकसित की थी जो सार्स के थम जाने के कारण इस्तेमाल नहीं हुई. उसी के आधार पर कोविड का टीका बनाने का प्रयोग चल रहा है. पैसा नहीं होने के कारण इसका काम धीमा हो गया. तब टैक्सस की वोडका शराब बनाने वाली कंपनी ने कुछ पैसे दिए जिससे काम आगे बढ़ा फिर कई और संस्थाओं ने पैसे दिए. टीका बनाने वाली कंपनी के प्रमुख डॉ पीटर होटेज़ का बयान छपा है. यह कंपनी पेटेंट में यकीन नहीं रखती है. अपना सारा डेटा पब्लिक में डाल देती है ताकि कम आय वाले देश इसका इस्तेमाल कर सकें.

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सरकार को बताना चाहिए कि बायोलोजिकल ई कितने टीका का उत्पादन करेगी और उसके कितने हिस्से पर भारत का हक होगा. आप भी सोचिए कि अगर अखबार इस तरह से रिसर्च करते और बताते तो एक पाठक और दर्शक के रूप में आप कितने अलग होते. लेकिन आप तक यही सूचना पहुंची कि यह स्वदेशी टीका है जो कि नहीं है.