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This Article is From Mar 29, 2016

संवैधानिक संकट के बहाने संकट का संविधान

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 29, 2016 11:15 am IST
    • Published On मार्च 29, 2016 11:11 am IST
    • Last Updated On मार्च 29, 2016 11:15 am IST
“संविधान की धारा 356 तब लागू की जाती है जब राष्ट्रपति इस बात से संतुष्ट हो जाएं कि किसी राज्य में संविधान के अनुसार शासन नहीं किया जा सकता और यह विश्वास करने के पर्याप्त आधार है”

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले के समर्थन में जो ब्लॉग लिखा है उसकी ये पहली पंक्ति है। अगर राष्ट्रपति की संतुष्टि ही विश्वास करने का पर्याप्त आधार है तो इस हिसाब से अतीत के तमाम राष्ट्रपति शासन पर विश्वास कर लेना चाहिए और उन्हें संवैधानिक घोषित कर देना चाहिए। क्या वित्त मंत्री सभी राष्ट्रपति शासन के केस में राष्ट्रपति पर इतना विश्वास करने के लिए तैयार हैं। उनकी राय आज की है या हमेशा से रही है। राष्ट्रपति शासन को लेकर क्या यह नया संवैधानिक और राजनैतिक पैमाना है? तो फिर सुप्रीम कोर्ट ने एस आर बोम्मई केस में जो पैमाने तय किए हैं उसमें क्या इस पैमाने को अंतिम माना गया है कि महामहिम जी संतुष्ट हो जाएं तो इसका मतलब है कि सबकुछ ठीक है।

दस्तावेज़ी साक्ष्य हैं कि 35 सदस्यों ने विधानसभा के पहले और उस समय मतविभाजन की मांग की थी, लेकिन इसके बावजूद विनियोग विधेयक मतदान के बग़ैर पारित होने का दावा किया जा रहा है। इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि विनियोग विधेयक वास्तव में मत विभाजन में गिर गया था। ध्यान देने वाली बात है कि आज की तारीख (28 मार्च 2016) तक न तो मुख्यमंत्री और न ही विधानसभा के अध्यक्ष ने विनियोग विधेयक की प्रमाणित प्रति राज्यपाल के पास भेजी है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि विनियोग विधेयक को राज्यपाल की मंज़ूरी नहीं मिली। इस तरह विनियोग विधेयक पर कथित चर्चा और उसके पारित होने संबंधी सभी तथ्य साफ तौर पर इसके पारित न होने की ओर इशारा करते हैं। विनियोग विधेयक के बारे में गंभीर आशंका है। आज की तारीख में विधानसभा अध्यक्ष द्वारा प्रमाणित और राज्यपाल की मंज़ूरी प्राप्त विनियोग विधेयक नहीं है।

वित्त मंत्री के ब्लॉग से हमने ये चंद पंक्तियां उठाकर एक जगह रख दी हैं जो विनियोग विधेयक के पास होने या न होने से संबंधित हैं। वित्त मंत्री ये स्पष्ट नहीं कर रहे हैं कि मत विभाजन हुआ था या नहीं। अगर हुआ था तो किसकी अनुमति से हुआ था। स्पीकर तो यही कह रहे हैं मत विभाजन की अनुमति नहीं दी गई थी। जब स्पीकर अनुमति न दे तो क्या सदस्य खुद से मत विभाजन करा सकते हैं या सदस्य मत विभाजन की मांग कर दें तो स्पीकर की अनुमति या असहमति की कोई ज़रूरत ही नहीं रह जाती। क्या ऐसा स्पीकर के अधिकार को लेकर ऐसी कोई परंपरा है या नियम है?

हमने मत-विभाजन पर स्पीकर के अधिकार जानने के लिए एम एन कौल की किताब और शकधर की बहुत ही मोटी सी किताब practice and procedure of parliament को पलट कर देखा। अनुच्छेद, कानून की व्याख्या की हमारी क्षमता नहीं है फिर भी बड़े लोगों के काम में नुस्ख निकालने के साहस का अपना ही आनंद है। आप भी कोई निष्कर्ष निकाले बिना इन सवालों का लुत्फ़ उठाइये क्योंकि हो सकता है कि हमारे सवाल ही बचकाने हों।

बहरहाल इस पुस्तक के पेज 174 पर लिखा है कि डिवीज़न की अनुमति नहीं देने के बारे में स्पीकर के विशेषाधिकार :

“वाइस वोट (ध्वनि मत) पर स्पीकर के फैसले को बिना चुनौती दिए सदस्य चाहे तो स्पीकर को अपना नाम रिकार्ड करने के लिए अनुरोध कर सकता है। स्पीकर चाहे तो अनुरोध स्वीकार कर सकता है अगर उसे लगे कि मामला महत्वपूर्ण है और हाउस में इसके पक्ष में आम राय है।''

इस पैराग्राफ को पढ़ते हुए कहीं नहीं लगता है कि स्पीकर बाध्य ही है। वो चाहे तो अनुरोध स्वीकार कर सकता है। जैसे लोकसभा और राज्यसभा में कई सदस्यों ने इस बात का विरोध किया कि आधार बिल मनी बिल के रूप में कैसे पेश हो सकता है। मगर सबको स्पीकर का अंतिम फैसला स्वीकार करना ही पड़ा। यहां भी पेज 174 में लिखा है कि स्पीकर अनुरोध स्वीकार कर सकता है अगर हाउस में इसके पक्ष में आम राय हो। संसद और विधानसभा के स्पीकर के अधिकार में समानता होती है। स्पीकर कह रहे हैं ध्वनि मत से पास हुआ, विरोधी कह रहे हैं मतविभाजन से पास हुआ और यह भी कह रहे हैं कि मतविभाजन हुआ ही नहीं। मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि मत विभाजन को लेकर अंतिम बात कह दी गई है या नहीं। हो सकता है इस मामले को समझने में हमारी ही कोई कमी हो!

अब यहां स्पीकर की भूमिका पर सवाल खड़े होते हैं। नियम से भले ही वो बाध्य नहीं हैं और न चुनौती दी जा सकती है लेकिन क्या स्पीकर ने सदन में आम राय की अनदेखी की। आरोपों और राजभवन में किए गए दावों से तो यही लगता है कि स्पीकर ने आम राय की अनदेखी की और मत विभाजन को स्वीकार नहीं किया लेकिन ऐसा करने का उनका अधिकार अंतिम है या सदस्यों का। अगर सदस्यों को स्वीकार नहीं है तो इसे चुनौती अदालत में दी जाएगी या राजभवन में? क्या राजभवन सदन से ऊपर है? इस मामले में जितनी स्पीकर की भूमिका नैतिक रूप से संदिग्ध लगती है उतना ही संदेह राजभवन पर भी होता है।

जेटली जी ने एक सवाल उठाया है कि 28 मार्च कर विनियोग विधेयक की प्रमाणित प्रति राजभवन को नहीं भेजी गई। न तो मुख्यमंत्री ने भेजी न स्पीकर ने जबकि 18 मार्च का ही मामला है। यहां यह सवाल उठता है कि जेटली जी के अनुसार अगर विनियोग विधेयक पास ही नहीं हुआ तो प्रमाणित प्रति के इंतज़ार का क्या औचित्य रह जाता है? प्रमाणित प्रति तो स्पीकर ही अपने दस्तख़त से भेजता है तो क्या उसे स्वीकार करने के लिए राजभवन बाध्य है? मुख्यमंत्री का दावा है कि 18 तारीख को नहीं भेजी गई मगर उसके अगले दिन प्रमाणित प्रति राजभवन भेज दी गई। वित्त मंत्री कह रहे हैं कि 28 तारीख तक प्रमाणित प्रति नहीं भेजी गई। अब इसे तो तथ्यों के द्वारा ही साबित किया जा सकता है कि कौन सही बोल रहा है। अगर मुख्यमंत्री को लगता है कि प्रमाणित प्रति भेजी गई तो उन्हें कोरे बयान की जगह प्रमाण पेश करना चाहिए था।

सार्वजनिक तौर पर विनियोग विधेयक से जुड़े तथ्यों पर स्पष्टता ज़रूरी है क्योंकि इसी के पास होने या न होने को लेकर संवैधानिक संकट का दावा किया जा रहा है। जो कि एक तरह से दिखता भी है कि कांग्रेस के 9 विधायक बीजेपी के साथ चले गए हैं। अब सवाल ये है कि विनियोग विधेयक रखते समय कोई व्हीप जारी हुआ था। अगर व्हीप जारी हो जाए तो क्या कांग्रेस के सदस्य खिलाफ मतदान कर सकते हैं? व्हीप तोड़ने पर क्या इन 9 विधायकों के ख़िलाफ़ दल बदल का मामला नहीं बनता है। क्या बीजेपी और कांग्रेस ऐसा होने पर अपने सदस्यों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करती हैं। कांग्रेस के विधायकों का व्हीप का उल्लंघन कर बीजेपी के पास जाना और बीजेपी को गले लगाकर स्वीकार कर लेना क्या यह संवैधानिक रूप से सही है। आप नियम तोड़ कर किसी दल में चले जायें तो क्या आप नैतिक और संवैधानिक रूप से सही हो सकते हैं?

स्पीकर ने इन 9 सदस्यों की सदस्यता रद्द कर दी है। अब उनकी कानूनी स्थिति क्या है यह स्पष्ट नहीं है क्योंकि विधानसभा तो निलंबित हो चुकी है। ये 9 सदस्य अपने अधिकारों की मांग को लेकर राष्ट्रपति के पास जायेंगे या राज्यपाल के पास या अदालत के पास। इनकी सदस्यता के फैसले पर अभी अंतिम फैसला बाकी है। अगर कोर्ट ने सदस्यता बहाल कर दी तो बीजेपी के लिए यह बड़ी नैतिक जीत होगी भले ही ये 9 सदस्य कांग्रेस के हैं।
उत्तराखंड में हरक सिंह रावत और असम में हेमंत शर्मा जैसे बेहद ईमानदार छवि के नेता बीजेपी के पाले में गए तो अपनी समानांतर महत्वकांक्षा की ख़ातिर लेकिन असम में बीजेपी ने अपने सांसद को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया और उत्तरखांड में भी कह दिया सीएम उनकी पार्टी का होगा। अपने कार्यकर्ताओं का सम्मान करना कोई बीजेपी से सीखे और दलबदलुओं का अच्छा इस्तेमाल करना भी। बीजेपी कम से कम हरक सिंह रावत जैसे ईमानदार नेताओं के बारे में सोशल मीडिया में प्रचार तो करवा ही सकती है कि ऐसे ईमानदार नेताओं से राहुल गांधी ने मिलने से इंकार कर दिया।

राष्ट्रपति शासन की राजनीति कांग्रेस सरकारों की देन है। कांग्रेस के गुनाह बीजेपी के लिए वरदान साबित हो रहे हैं। जैसे ही आप उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले पर सवाल उठायेंगे सोशल मीडिया पर कुछ लोग आपको कांग्रेसी बताने आ जायेंगे। इसका मतलब यह है कि जो गुनाह कांग्रेस ने किये हैं और वही बीजेपी करे तो उसका ज़िक्र मत करो वर्ना कांग्रेसी हो जाओगे! ये सब चलता रहेगा। हरीश रावत को भी कई सवालों के जवाब देने हैं। स्टिंग में वे भी काफी ईमानदार दिख रहे हैं!

सरकार बर्ख़ास्त करने के लिए स्टिंग का आधार बनाना कम हास्यास्पद नहीं है। वो भी तो एक खुलेआम स्टिंग है कि एक पार्टी दूसरी पार्टी से कानून तोड़ कर दल बदल कर आए नेताओं को सहारा दे रही है। ज़रूर स्टिंग को लेकर नैतिक और कानूनी सवाल बनता है। स्टिंग के आधार पर रावत को इस्तीफा देना चाहिए, कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को जवाब देना चाहिए लेकिन इस आधार पर सरकार बर्खास्त कर दी जाए ये बात संवैधानिक रूप से समझ नहीं आती है। तब तो तृणमूल कांग्रेस के कितने नेता सांसद और मंत्री स्टिंग करते हुए पकड़े गए हैं। वहां भी सरकार बर्खास्त की जा सकती है जैसे 2014 में महाराष्ट्र में चुनाव से ठीक पहले राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।

संवैधानिक संकट के नाम पर संकट का जो नया संविधान लिखा जा रहा है, दरअसल वो इतना भी नया नहीं है। किताब का कवर बदला है बाकी मैटिरियल वही है।

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