करनाल में किसानों के प्रदर्शन ने एक बार फिर से उजागर किया है कि प्रदर्शन करने का अधिकार भी लड़ कर लिया जाता है. करनाल में किसानों ने सचिवालय का घेराव कर सरकार की बनाई लक्ष्मण रेखा की जगह अपनी लक्ष्मण रेखा खींच दी है कि वे कहां तक जा सकते हैं. दिल्ली की सीमाओं पर 9 महीने से रोके गए किसानों ने करनाल शहर के भीतर लघु सचिवाल के पास अपना नया मोर्चा बना लिया है. हज़ारों की संख्या में किसान यहां रात भर मौजूद रहे. खुले आसमान के नीचे रात बिताई. यहीं खाना खाया और सो गए. संयुक्त किसान मोर्चा ने ट्वीट किया कि किसानों ने फुटपाथ पर रात गुज़ारी है. सुबह तक यहां टेंट लगने शुरू हो गए. कोरोना के काल में सेवा करने वाले गुरुद्वारे से श्रद्धालु यहां सेवा देने आ चुके हैं. इसका मतलब यह नहीं कि गर्मी और उमस से भी किसानों को राहत मिल गई है. हमारे सहयोगी शरद ने बताया कि सभी धर्मों के लोग यहां पर भंडारा चला रहे हैं. मुफ्त में मेडिकल सेवा देने वाले डाक्टर भी किसानों की मदद के लिए आगे आए हैं. बारिश सर्दी गर्मी और लाठी चार्ज की आशंका में किसानों ने अपने प्रदर्शन को लेकर कितने इम्तिहान दिए लेकिन अब भी ये किसान सरकार को कुछ लोगों द्वारा भरमाए हुए लगते हैं. गर्मी और उमस के बीच किसानों ने आज का दिन भी काटा. किसानों की यह गृहस्थी बता रही है कि उनका इरादा भी शांति बनाए रखने में है लेकिन अपनी मांग से कोई समझौता नहीं करेंगे.
करनाल शहर के भीतर हज़ारों किसानों के आने के बाद भी शहर बंद नहीं हुआ है. किसानों ने अपना धरना इस तरह से लगाया है कि शहर भी चलता रहे. जिस लघु सचिवालय का घेराव किया गया है उसके भीतर में अधिकारियों के आने जाने का रास्ता बंद नहीं किया गया है. अधिकारी आराम से आ-जा रहे हैं.
हरियाणा सरकार चाहती तो समाधान निकाल सकती थी लेकिन शुरू से ही अधिकारी के साथ खड़े होकर सरकार ने सारा मामला ज़िला प्रशासन पर डाल दिया. किसान नेता कह रहे हैं कि फैसला चंडीगढ़ से होना है. इसलिए उनकी लड़ाई सरकार से है. किसान मांग कर रहे हैं कि करनाल के पूर्व SDM के ख़िलाफ़ FIR हो या कार्रवाई हो. प्रशासन ने किसान नेताओं को वीडियो को लेकर अपना पक्ष रखा है लेकिन नेता संतुष्ट नहीं हुए. इसके बाद ख़बर आई कि दोपहर दो बजे किसान नेताओं को बातचीत के लिए बुलाया गया है.संयुक्त किसान मोर्चा के नेता बातचीत के लिए गए.
करनाल में किसानों का सचिवालय घेराव सामान्य घटना नहीं है. करनाल में इंटरनेट बंद है लेकिन इससे किसानों की संख्या और धरना पर कोई असर नहीं पड़ा है. किसानों ने इन 9 महीनों में टेस्ट करके देख लिया है कि वे अपने आंदोलन को कहां तक ले जा सकते हैं. क्या आपको पता है कि भारत की 41 आर्डिनेंस फैक्ट्रियों के कर्मचारियों को हड़ताल करने का अधिकार छीन लिया गया है. फ्लैशबैक से यह खबर निकाल कर लाया हूं ताकि आप किसानों के प्रदर्शनों की महिमा को समझ सकें और विदेशों में रहने वाले NRI अंकिलों को बता सकें कि भारत में हर किसी को प्रदर्शन करने का अधिकार हासिल नहीं है. आर्डिनेंस फैक्ट्री के 84000 कर्मचारियों के पास हड़ताल का अधिकार था जो अब चला गया है.
अगर आप 41 आर्डिनेंस फैक्ट्रियों में काम करते हैं या वहां काम करने जाने वाले हैं तो आपको प्रदर्शन करने का अधिकार नहीं होगा. हमने इसी एक जुलाई के प्राइम टाइम में इसकी तस्वीरें दिखाई थीं. कर्मचारी आर्डिनेंस फैक्ट्रियों के निगमीकरण के ख़िलाफ़ हडताल और धरना प्रदर्शन कर रहे थे. यह कोई पहली बार नहीं हो रहा था. आर्डिनेंस फैक्ट्री के इतिहास में कई हड़तालें हुई हैं. धरना प्रदर्शन हुए हैं लेकिन कभी भी रक्षा आपूर्ति बाधित नहीं हुई और न इसकी वजह से देश की सुरक्षा को खतरा पहुंचा है. इस हिसाब से सरकार किसी भी हड़ताल को देश की सुरक्षा के खिलाफ घोषित कर सकती है. बहरहाल जून के महीने में मोदी सरकार हड़ताल पर रोक लगाने का अध्यादेश लेकर आती है जिसे मानसून सत्र में पास कर कानून का रूप दे दिया गया है. इसके अनुसार आर्डिनेंस फैक्ट्री के कर्मचारियों को जो हड़ताल के लिए उकसाएगा या आयोजन वगैरह के लिए चंदा देगा उसे दो साल की जेल होगी और 15,000 का जुर्माना. हड़ताल में शामिल हुआ तो दस हज़ार जुर्माना और एक साल की जेल. मज़दूरों की हड़ताल के लिए मज़दूर चंदा देंगे तो जेल होगी. राजनीतिक दलों को कंपनियां चंदा देंगी तो उनका नाम छिपाया जाएगा ताकि पता नहीं चले. यह भी पता नहीं चले कि भविष्य में जो कंपनी ऐसी कंपनियों को खरीद लेगी उसने उस पार्टी को कितना चंदा दिया है जिसकी सरकार है.
करनाल में किसानों के सचिवालय घेराव के संदर्भ में इसकी चर्चा इसलिए क्योंकि इसका संबंध कृषि कानूनों से है. कृषि कानूनों से पहले अध्यादेश जारी किया गया. किसानों को पता तक नहीं था. क्या आर्डिनेंस फैक्ट्री के कर्मचारियों से बात कर अध्यादेश लाया गया था कि वे हड़ताल करेंगे तो जेल भेजेंगे. दोनों ही अध्यादेश के ज़रिए सामने आते हैं और बाद में कानून बनते हैं. एक तरफ खेती के क्षेत्र में Essential Commodities Act खत्म किया जाता है तो दूसरी तरफ रक्षा के क्षेत्र में हड़तालों को रोकने के लिए Essential Defence Services Act पास किया जाता है.
कानून बनने के बाद भी आर्डिनेंस फैक्ट्री के कर्मचारी प्रदर्शन कर रहे हैं. दिल्ली हाईकोर्ट में इसके खिलाफ याचिका दायर की गई है. कर्मचारी संगठन अलग-अलग आर्डिनेंस फैक्ट्री में इसी 13 से 18 सितंबर के बीच मतदान करा रहे हैं कि कौन सरकार के फैसले के साथ है और कौन विरोध में है. अभी भी काम के बाद नारेबाज़ी चल रही है और प्रदर्शन हो रहा है लेकिन नए कानून के अनुसार किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई है. कर्मचारी संगठन इस कानून का विरोध कर रहे हैं. विपक्ष ने भी संसद में विरोध किया कि जब सदन आर्डर में नहीं है तो इसे पास नहीं किया जाना चाहिए लेकिन सरकार ने इसे पास कराया. विपक्ष ने इसे काला कानून कहा तब राजनाथ सिंह ने कहा कि सरकार ने मज़दूर संगठनों से बात की है. उन्हें भरोसे में लिया है. रक्षा राज्य मंत्री का बयान है कि मौलिक अधिकार का हनन नहीं हुआ है. कर्मचारियों को सुविधाएं दी जा रही हैं. हड़ताल अभिव्यक्ति का अधिकार है. इस अधिकार को छीनकर कुछ सुविधाओं का दिया जाना पर्याप्त नहीं हो सकता है. आप उस समय के सारे बयानों को ठीक से पढ़िए. रक्षा मंत्री की एक एक लाइन को गौर से सुनिए. अध्यादेश तभी लाया जाता है जब कोई आपात स्थिति होती है और संसद नहीं चल रही होती है. यहां तो संसद में ही राजनाथ सिंह कह रहे हैं कि इस कानून का इस्तेमाल नहीं करेंगे. तो फिर ला क्यों रहे हैं.
प्राइम टाइम का एपिसोड यू ट्यूब में मिलता है तो आप इस बयान कोसुनिएगा. रक्षा मंत्री कह रहे हैं कि कोई भी कानून तभी प्रभावी होगा जब उसका इस्तेमाल होगा. हो सकता है इस कानून के इस्तेमाल की ज़रूरत ही न पड़े. फिर कानून क्यों बना? रक्षा मंत्री जिस निगमीकरण की बात कर रहे हैं उसका विरोध राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के भारतीय मज़दूर संघ ने भी किया है और तमाम मज़दूर संगठनों ने किया है लेकिन सदन में रक्षा मंत्री ने कहा कि सभी संगठनों के साथ सद्भवनापूर्ण वार्ता हो चुकी है. उन्होंने यह नहीं कहा कि मज़दूर संगठन तैयार हैं. उन्होंने कहा कि संगठनों से सद्भवनापूर्ण वार्ता हो चुकी है. सदभावना पूर्ण वार्ता का क्या यह मतलब होता है कि मज़दूर संगठनों ने हां कर दी है.
मैं जानता हूं कि हिन्दू मुस्लिम नेशनल सिलेबस के कारण लोगों ने सोचना बंद कर दिया है लेकिन मैं परेशान नहीं हूं. हिन्दी प्रदेश के लाखों नौजवान सांप्रदायिकता के सुख में डूबे हुए हैं. वे अगर कभी दुखी नज़र आएं तो व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी वाली मीम दिखा दीजिए कि नेहरू मुसलमान थे. इस बात से उन्हें जितनी खुशी मिलेगी उतनी नौकरी मिलने से भी नहीं मिलेगी.
आर्डिनेंस फैक्ट्री में भी व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी चलाने वाले बहुत से लोग हैं जो इन दिनों सरसों तेल की महंगाई पर मैसेज फार्वर्ड नहीं कर पा रहे हैं. पेट्रोल के सौ रुपये लीटर होने पर उनसे बोला नहीं जा रहा है लेकिन हिन्दू मुस्लिम सिलेबस आते ही वे जाग जाते हैं. जब निगमीकरण की बात आई तब इस फैक्ट्री से जुड़े कई लोगों ने मैसेज किया कि प्राइम टाइम में हमारे मुद्दे पर बात होनी चाहिए. महंगाई और सैलरी कम होने के कारण आज कल आपका पर्स खाली ही होगा. मेरी एक बात लिखकर पर्स में रख लीजिए. हिन्दू मुस्लिम नेशनल डिबेट आपकी नागरिकता को खत्म कर देगा. बच्चों को दंगाई बना रहा है. आर्डिनेंस फैक्ट्री के कर्मचारी मेरी बात सुन रहे होंगे तो बोल रहे होंगे कि ठीक बोला है रवीश कुमार.
जिस देश का संविधान अनगिनत संघर्षों से निकला है, उस देश की संसद से कानून बना है कि हड़ताल करने पर जेल होगी. क्या आप बिना आंदोलनों के इतिहास के भारत के संविधान की कल्पना कर सकते हैं. 1929 में अंग्रेज़ी हुकूमत एक कानून लेकर आई थी जिसके तहत किसी भी तरह के प्रदर्शन को गैरकानूनी घोषित किया जा सकता था. इसी बिल पर चर्चा चल रही थी जिसके बारे में भगत सिंह लिखते हैं कि जो सुन नहीं सकते उन्हें अपनी बात सुनाने के लिए असेंबली में बम फेंका था. बाद में भगत सिंह ने बम और बंदूक से दूर रहने की भी बात कही थी. सितंबर का महीना शहीदे आज़म की जन्मशती का महीना होता है. पिछले साल 28 सितंबर को प्रधानमंत्री मोदी ने उनकी याद में ट्वीट किया है. इस साल आर्डिनेंस फैक्ट्री के कर्मचारियों का हड़ताल का अधिकार ले लिया गया. भगत सिंह का फोटो लगाकर कई दल राजनीति करते हैं लेकिन केंद्र सरकार ने जो कानून बनाया है उसके विरोध की औपचारिकता निभा कर इंस्टा पर वीडियो अपडेट करने लगे हैं. लेकिन क्या आपको पता था कि इस तरह का कानून भारत में बना है कि आर्डिनेंस फैक्ट्री के कर्मचारी हड़ताल करेंगे तो जेल जाएंगे. क्या आपको दिखाई दे रहा है कि धीरे-धीरे लोकतंत्र की दीवार कमजोर की जा रही है.
आजकल नेता लोग इंस्टानुकुल हो गए हैं. इंस्टाग्राम पर दूसरे ही रूप में दिखाई देते हैं. उन्हें लगता है कि ट्वीटर फ़ूल बनाने की जगह है और इंस्टा कूल होने की जगह है. कई नेता इंस्टा पर छोटा वीडियो बनाकर पोस्ट कर रहे हैं. बैकग्राउंड म्यूज़िक डाल रहे हैं ताकि लगे कि नेता जी वोट लेने के बाद सिनेमा के सेट पर काम करने चले गए हैं. तय करना मुश्किल हो जाता है कि हीरो आ रहा है या विधायक आ रहा है. सुप्रीम कोर्ट से लेकर तमाम अदालतों में अपनी कई टिप्पणियों में कहा है कि लोकतंत्र में प्रदर्शन करना नागरिक का अधिकार है. किसान आंदोलन को लेकर सुनवाई के दौरान पिछले साल दिसंबर में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हम साफ करना चाहते हैं कि यह अदालत इस समय चल रहे प्रदर्शन में दखल नहीं देगी. बल्कि प्रदर्शन करने का अधिकार मौलिक अधिकार का हिस्सा है और लोक व्यवस्था का ध्यान रखते हुए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है. जब तक यह प्रदर्शन अहिंसक है, किसी के जीवन को नुकसान नहीं पहुंचाता है, इस अधिकार के इस्तेमाल में किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं है. हम इस स्तर पर मानते हैं कि बिना किसी बाधा के किसानों के प्रदर्शन की अनुमति जारी रहनी चाहिए.
इसके बाद भी आर्डिनेंस फैक्ट्री को लेकर ऐसा कानून आया. संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में किसानों ने प्रदर्शन के अधिकार को भयभुक्त किया है. सचिवालय के घेराव के ज़रिए उन्होंने उस भय को मिटा दिया है जो उनके आसपास तरह-तरह से खड़ा किया गया था. गोदी मीडिया के ज़रिए उन्हें आतंकवादी और ख़ालिस्तानी बताया गया. गोदी मीडिया के ज़रिए उनके आंदोलन का मज़ाक उड़ाया गया. आईटी सेल लगाया गया. उनके रास्ते में बड़ी बड़ी कीलें गाड़ दी गईं. न जाने कितने मुकदमे हुए लेकिन किसानों का प्रदर्शन चलता रहा.
कृषि कानूनों के खिलाफ भारत की कई विधानसभाओं में प्रस्ताव पास हुए हैं. वही हाल नागरिकता कानून का है. इस कानून के वक्त इस तरह का समां बांधा गया जैसे आज ही इसकी ज़रूरत है. सांप्रदायिक भाषण दिए गए हैं. एक समुदाय को दिन रात अपमानित किया गया. दिल्ली में उन्हें वोट के ज़रिए करेंट लगा देने के भाषण दिए गए. भारत के लोकतंत्र को इस स्तर पर पहुंचा दिया गया कि केंद्रीय मंत्री मंच से गोली मारो के नारे लगाने लगे. दंगे तक हो गए और उनकी जांच की हालत आप देख रहे हैं. दिसंबर 2019 से सितंबर 2021 आ गया है. नागरिकता कानून के तहत नियम नहीं बने हैं. सरकार ने संसद से पांचवी बार नियम बनाने के लिए और समय मांगा है. 2019 में लगता था सरकार के लिए इस क़ानून से बड़ा कोई और काम नहीं है. इन सब बातों को रोज़ याद नहीं करेंगे तो आपको समझ नहीं आएगा कि आपका बच्चा बेरोज़गार क्यों है और सरसों का दाम दौ सौ रुपया किलो क्यों है और पेट्रोल सौ रुपया लीटर क्यों है.
आज तमिलनाडु विधानसभा में नागिरकता कानून के खिलाफ प्रस्ताव पास हुआ. मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कहा कि लोकतंत्र की जो स्थापित मान्यताएं हैं उसके अनुसार एक देश का शासन समाज के सभी वर्गों की आकांक्षाओं को लेकर चलना चाहिए लेकिन इस कानून से साफ साफ दिखता है कि इसमें शरणार्थियों की तकलीफ का ध्यान नहीं रखा गया है बल्कि किस देश और किस धर्म के हैं इस आधार पर भेदभाव किया गया है. एमके स्टालिन ने कहा कि इस कानून की कोई ज़रूरत नहीं है. श्रीलंका के तमिलों का इसमें कोई ध्यान नहीं रखा गया है. इसलिए विधानसभा केंद्र सरकार से मांग करती है कि इस कानून को खत्म करे. अभी तक देश की आठ विधानसभाओं में इस कानून के खिलाफ प्रस्ताव पास हो चुका है. मार्च में स्टालिन ने एक और बयान दिया था कि अगर AIADMK और PMK के सदस्यों ने राज्यसभा में सरकार का साथ नहीं दिया होता तो यह कानून पास नहीं होता. और अगर डीएमके सत्ता में आई तो तमिलनाडु में यह कानून लागू नहीं होगा.
इस तरह से कानून बनाए जा रहे हैं. गोदी मीडिया को आगे कर सांप्रदायिक बातों को फैलाया जाता है. ऐसा माहौल बन जाता है कि उत्तर भारत के राजनीतिक दल डर जाते हैं और शाहीन बाग जाने से कतराते हैं. लेकिन आज किसानों का प्रदर्शन किसी के आने न आने और मीडिया के कवर करने या न करने के डर से आज़ाद हो चुका है.
जून 2016 में मोदी कैबिनेट ने एक फैसला किया कि टेक्सटाइल सेक्टर के लिए छह हज़ार करोड़ का पैकेज दिया जाएगा जिससे अगले तीन साल में एक करोड़ रोज़गार पैदा होंगे. अभी हम इसका हिसाब नहीं कर रहे हैं कि एक करोड़ रोज़गार पैदा हुआ कि नहीं. मेरा हिसाब सिम्पल है. छह हज़ार करोड़ के पैकेज से अगर एक करोड़ रोज़गार पैदा होगा तो आप बताइये कि साढ़े दस हज़ार करोड़ के पैकेज से साढ़े सात लाख रोजगार ही पैदा होगा? मतलब कम पैसे से ज्यादा रोज़गार औऱ ज़्यादा पैसे से कम रोज़गार. उस समय और इस समय के बयान सुन लीजिए और फिर कल हिन्दी अखबारों की हेडलाइन पढ़ लीजिएगा. पहला बयान रश्मि वर्मा का है जो 2016 में टेक्सटाइल सचिव थीं और उसके बाद आज का बयान टेक्सटाइल मंत्री का है.
छह हज़ार करोड़ के पैकेज से एक करोड़ रोज़गार, साढ़े दस हज़ार करोड़ के पैकेज से साढ़े सात लाख ही रोज़गार. मैं मैथ्स की ट्यूशन लूं या प्राइम टाइम करूं.