विज्ञापन
This Article is From Jun 19, 2015

"हे भगवान, हमारे अरविंद को सलामत रखना"

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    जून 19, 2015 10:56 am IST
    • Published On जून 19, 2015 01:12 am IST
    • Last Updated On जून 19, 2015 10:56 am IST
न्यूज़ चैनलों पर आ रहे विज्ञापन के आख़िर में जब एक महिला इस भावुकता के साथ अरविंद केजरीवाल के लिए दुआ मांगती है तो वह भगवान से कम, उस दर्शक से ज़्यादा मुख़ातिब होती है, जो टीवी के सामने बैठा है। आपने इस विज्ञापन को देखा ही होगा। हमारी राजनीति में नेता लीला करते हैं। वे नायक बनकर सामने वाले पर हमला करते हैं, तो उसी सामने वाले से पीड़ित भी बताते हैं। कोई अपनी ग़रीबी को बेचता है तो कोई अपनी जाति।

विज्ञापन में साधारण सूती साड़ी में महिला गोभी ख़रीदते वक्त महंगाई से परेशान दिखती है, लेकिन घर पहुंचते ही सीन बदल जाता है। बिजली का बिल आ गया होता है और कम देखकर वह खुश हो जाती है। वह कहती है, "हमारे लिए तो केजरीवाल ही मददगार बनकर आए हैं। बाकी सरकारें तो कहती थीं, पैसे नहीं हैं, फिर केजरीवाल के पास पैसे कहां से आए। दरअसल केजरीवाल ने दिल्ली में भ्रष्टाचार खूब कम कर दिया और जो पैसे बचे, उससे हमारे बिजली के बिल कम कर दिए..."

यह सब बोलते हुए उस महिला की निगाह टीवी पर आ रही बहस पर पड़ती है, जिसमें केजरीवाल सरकार पर सवाल दागे जा रहे हैं। तब महिला कहती है, "रोज़ टीवी पर देखते हैं तो लगता है कि सब बेईमान इकट्ठे हो केजरीवाल के पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं। रोज़ कुछ न कुछ उलट-सुलट बोलते रहते हैं। इतना गुस्सा आता है इन सब लोगों पर, खुद से तो कुछ होता नहीं हैं। सारे मिलकर केजरीवाल के पीछे पड़े हैं। रोज़ भगवान से दुआ मांगती हूं कि हे भगवान, हमारे अरविंद को सलामत रखना।"

यह विज्ञापन बहुत चालाकी से टीवी की बहसों को खारिज करता है। उसमें उठने वाले सवालों पर हमला करता है। इनके ज़रिये जो छवि कमज़ोर हो रही है, उससे लड़ा जा रहा है। ठीक है कि मीडिया के कुछ हिस्से ने केजरीवाल सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा-सा खोल दिया है, लेकिन संदेश दिया जा रहा है कि सारी दुनिया केजरीवाल के पीछे पड़ी है। एक राज्य का मुख्यमंत्री चाहे अधिकारों की लड़ाई में कितना भी कमजोर हो, वह इतना लाचार नहीं हो सकता कि उसके लिए दुआ मांगी जाए। हमारे राजनेता खुद को ईश्वर का दूत भी बना देते हैं और फिर उसी ईश्वर से सहारा भी मांगने लगते हैं। कोई कहता है कि मां गंगा ने बुलाया है तो आया हूं, कोई कहता है कि कोई शक्ति है, जो यह सब करा रही है।

इस विज्ञापन को मौजूदा राजनीतिक संदर्भ के बिना नहीं देखा सकता है। जितेंद्र सिंह तोमर अब दरबदर हो चुके हैं। ठीक है कि भाजपा सांसदों की कथित फर्ज़ी डिग्री की जांच नहीं हो रही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावों में कहते रहे कि एक साल के भीतर आरोपी सांसदों के मामलों में फैसला आना चाहिए, यह भी ठीक है कि अब यह किसी को याद नहीं है, लेकिन इससे तोमर को लेकर उठने वाले सवाल कम नहीं हो जाते हैं। जितेंद्र सिंह तोमर के फ़र्ज़ीवाड़े ने बड़ी दिल्ली बनाम छोटी दिल्ली की लड़ाई में केजरीवाल को कमज़ोर किया है। जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी, सुषमा स्वराज और वसुंधरा मामले पर नहीं बोल रहे हैं, उसी तरह तोमर मामले पर मुख्यमंत्री केजरीवाल ने भी सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहा है। दिल्ली नगर निगम के कर्मचारियों के वेतन के मामले में भी मात खाने से उन्हें झटका लगा है।



उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच अधिकारों की लड़ाई जारी है। इस लड़ाई में चुने हुए मुख्यमंत्री का नैतिक पक्ष मज़बूत होने के बाद भी उपराज्यपाल इसलिए आक्रामक हैं, क्योंकि उनके पास बड़ी दिल्ली है और पुलिस है। इस तरह की ख़बरें उड़ाना कि 21 विधायकों के ख़िलाफ़ चार्जशीट होगी, संदेह पैदा करता है कि दिल्ली में कुछ भी हो सकता है। जो भ्रष्ट है, उसके ख़िलाफ़ बिल्कुल कार्रवाई होनी चाहिए। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ ही आम आदमी पार्टी का वजूद है। इसका इम्तिहान उसे भी देना होगा, पर इससे यह सवाल खत्म नहीं हो जाता कि आरोपी सांसदों और अन्य राज्यों में आरोपी विधायकों के बारे में क्या हो रहा है। क्या उतनी तेज़ी दिखाई जा रही है। मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले को किस तरह से पचा लिया गया, सबने देखा। उत्तर प्रदेश के बेलगाम मंत्रियों, पंजाब में ड्रग्स के कारोबार को राजनैतिक संरक्षण देने वाले नेताओं और बिहार में धान खरीद घोटाले में कार्रवाई क्यों नहीं होती है? केंद्र के जिन नेताओं के ख़िलाफ़ फ़र्ज़ी डिग्री या ग़लत जानकारी देने के आरोप हैं, उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई क्यों नहीं होती?

क्या अब राजनीतिक लड़ाई विज्ञापनों के ज़रिये लड़ी जाएगी। केंद्र सरकार हो या दिल्ली सरकार, अगले पल कबाड़ में बदल जाने वाले इन विज्ञापनों पर कितना पैसा बहा रहे हैं। यह विज्ञापन किसलिए हैं। सरकार के कार्य का प्रचार करने के लिए या राजनैतिक संकट से उबरने के लिए। जो छवि गंवाई गई है, उसे हासिल करने के लिए या आने वाले संकटों की आशंका को देखते हुए ढाल तैयार करने के लिए। विज्ञापन में मुख्यमंत्री केजरीवाल को मसीहा की तरह पेश किया गया है। ऐसी ही छवि आएदिन प्रधानमंत्री की गढ़ी जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मोबाइल ऐप लांच हुआ है। दोनों ही नेता निरंतर मीडिया में रहते हैं। धारणाओं की लड़ाई लड़ते रहते हैं। एक जगह छवि गंवाते हैं, तो दूसरी जगह से भरपाई करने लगते हैं। लोग जानना चाहते हैं कि प्रधानमंत्री वसुंधरा राजे मामले पर क्या सोचते हैं तो वह योग की तस्वीरें ट्वीट कर रहे हैं। चुपासन कर रहे हैं। लोग जानना चाहते हैं कि तोमर पर केजरीवाल क्या सोचते हैं तो वह पीड़ितासन कर रहे हैं।

इस विज्ञापन में आम आदमी पार्टी की सरकार को सलामत रखने की बात नहीं है। आम आदमी पार्टी को सलामत रखने की बात नहीं है। सिर्फ केजरीवाल को सलामत रखने की दुआ पढ़ी जा रही है। चुनाव के समय में भी केजरीवाल ऐसे विज्ञापन बना चुके हैं, जिसमें उन्होंने सरकार छोड़ने की अपनी ग़लती मानी और मद्धम स्वर में किसी बूढ़ी मां से वादा किया कि आप मेरा साथ देंगी न। इन सब पैंतरों से एक किस्म की भावुकता रची जाती है। केजरीवाल खुद को प्रोडक्ट के तौर पर पेश कर रहे हैं और भगवान से दुआ मांगते हैं कि इस ब्रांड को बचाए रखना।

हमारी राजनीति में सरकार और पार्टी का मतलब एक व्यक्ति हो गया है। हम सब इन लोकतांत्रिक सवालों पर इतने आलसी हैं कि व्यापक रूप से महत्व ही नहीं देते। सुविधा के हिसाब से एक को व्यक्तिवादी बताते हैं तो दूसरे पर चुप हो जाते हैं। इन दिनों सरकार के कई मंत्री टीवी पर योग कर रहे हैं। योग गुरुओं और प्रवचन कर्ताओं की तरह लगने लगे हैं। प्रधानमंत्री ने खुद को योग से जोड़ लिया है तो मंत्रियों ने योग को प्रधानमंत्री समझ लिया है। वे आसनों के ज़रिये अपनी निष्ठा जता रहे हैं, अलग-अलग रूपों में अपने नेता को ही सामने ला रहे हैं।

1988 में एक फिल्म आई थी 'शहंशाह'। टीनू आनंद की इस फिल्म के गाने में क्यों न किसी नेता की तस्वीर फिट कर दी जाए और टीवी पर बजा दिया जाए। "अंधेरी रातों में, सुनसान राहों पर, हर ज़ुल्म मिटाने को एक मसीहा निकलता है, जिसे लोग शहंशाह कहते हैं..." इससे भी सात साल पहले 1981 में एक और फिल्म आई थी 'क्रोधी', जिसका एक मसीहाई गाना मुझे बेहद पसंद है। गाने के लिए कम, जीनत अमान की वजह से ज़्यादा। जिसके बोल इस तरह है - "लो वो आगे चल निकला है, तुम उसके पीछे हो जाओ, या पहुंचो अपनी मंज़िल पे, या इन रस्तों में खो जाओ, कसम उठाके उसने कदम उठाया है, वो मसीहा आया है..."

तो मेरे प्यारे नेताओं, ज़मीन पर आ जाओ। मसीहा बनना है तो यू-टयूब पर बहुत सारे मसीहाई गाने हैं। उन्हें सुन लो, लेकिन लोकतंत्र में न तो खुद को ईश्वर का अवतार बनाओ न मसीहा, न ज़रूरत से ज़्यादा पीड़ित। अपनी राजनीतिक लड़ाई लड़ने के लिए भावनाओं को बीच में कम से कम लाओ। जब तक भावनाएं रहेंगी, राजनीति कमज़ोर ही होगी। लोकतंत्र की समस्याओं से लड़ने के लिए दो ही हथियार काफी हैं - तर्क और संघर्ष। इन दोनों का टॉनिक एक ही है - काम, सिर्फ काम।

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com