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This Article is From Jun 12, 2016

राज्यसभा चुनाव : राजनीति के धंधे में सब व्यापारी हैं, यहां मुनाफ़ा ही धर्म है...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 12, 2016 23:46 pm IST
    • Published On जून 12, 2016 23:43 pm IST
    • Last Updated On जून 12, 2016 23:46 pm IST
जिस सदन को राजनीति में उच्च आदर्शों वाला माना गया और उसके गठन की मंशा यही थी कि यह चुन कर आए लोगों के सदन से अलग जनदबाव से ऊपर उठ कर नीतियों पर विचार करेगा, उस सदन का चुनाव आम चुनावों की तरह ही अनैतिक और लूट पाट के क़िस्सों से भरा हुआ है। आज से नहीं बल्कि ज़माने से राज्यसभा के चुनाव में यही होता आ रहा है। चूंकि पहले से होता रहा है और सब यही करते हैं, इस दलील ने हर दौर में हर ग़लत को जायज़ ठहराया है।

अनैतिकता ही राजनीति की नैतिकता है। जो लोग नैतिकता के प्लेटफॉर्म से राजनीति को देखते हैं, वो हर दौर में और हर पार्टी से ठगे जाने के लिए अभिशप्त हैं। राज्यसभा का चुनाव फिर से याद दिला गया कि वैचारिक और संवैधानिक नैतिकता कुछ नहीं होती। हर बार याद दिलाता है और हर बार जनता भूल जाती है। जनता को सब पता होता है इसलिए वो भूल जाती है क्योंकि जनता हमेशा नैतिकता को व्यावहारिक नज़र से देखती है। उसके पास आदर्शवादी मानक नहीं है। वो नेता से पैसे लेती है, शराब लेती है और वैचारिक अफीम लेती है ताकि वो किसी न किसी से नफरत का नशा पाल सके। बदले में वो भी उस व्यवस्था से लूटती है जिसे नेता लूटता है। नौकरशाही का तंत्र निर्जीवों से नहीं बना होता।

भारत की जनता भोली नहीं है। सयानी है। उसे सब मालूम है इसलिए वो भी इस भ्रष्ट राजनीति की लाभार्थी बन जाती है। वो रोज़ देखती है कि उसका एक हिस्सा बिन पानी के मर रहा है, एक हिस्से के पास अच्छा स्कूल नहीं है, बाज़ार की सड़कों पर चलने की जगह नहीं है, अस्पताल इलाज करने में सक्षम नहीं हैं, फिर भी वो राजनीतिक दलों से मिलने वाले रिश्वत को छोड़ नहीं पाती। उसके पास नफरत की राजनीति में घुस कर बहस करने का अथाह धीरज है मगर अनैतिकता की परतों को हटाकर देखने की बेक़रारी नहीं है।

राज्यसभा का चुनाव बताता है कि हमारा लोकतंत्र राजनीतिक दलों के गिरोह में फंस गया है। सांप्रदायिकता की लड़ाई सिर्फ गरीब हिन्दू-मुसलमान के लिए है। वही इसके ख़िलाफ़ लड़ता है और वही मारा जाता है। सियासतदान लड़ने के नाम पर सौदा करता है और मलाई खा लेता है। राजनीति एक धंधा है और इस धंधे में सब व्यापारी हैं। मुनाफ़ा जिसका धर्म है।

कांग्रेस के विधायकों ने साबित कर दिया कि वे विचारधारा से ज़्यादा बिकना पसंद करते हैं। हरियाणा कांग्रेस के नेताओं ने क़लम का जो बहाना पेश किया है, उस पर ध्यान देने से कोई लाभ नहीं। इन्हें नटराज पेंसिल तोहफ़े में भिजवा देनी चाहिए। पेंसिल से तो लिखनी आती होगी! अजीत जोगी को हंसी आ रही होगी कि वे बग़ावत कर कांग्रेस से बाहर हैं और ये बग़ावत कर कांग्रेस के भीतर हैं। बग़ावत का टू इन वन रेडियो कांग्रेस की खोज है। जात बिरादरी के नाम पर नेता बने लोगों को पता है कि विचारधारा दो कौड़ी की चीज है। हुड्डा के खिलाफ जांच चल रही है, फिर भी उनसे वोट लेते समय विरोधी उम्मीदवारों को संकोच न हुआ। हुड्डा ने इस वोट के बदले क्या सौदा किया होगा। कांग्रेस ने समर्थन किसे दिया? आरके आनंद को। आनंद इनेलो का समर्थन होने का दावा कर रहे थे जिसके नेता को हुड्डा ने ही जेल भिजवाया। वो आदमी कांग्रेस दफ्तर में धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दे रहा था। हुड्डा ने अपनी निरपेक्षता का धर्म साबित कर दिया!

कांग्रेस ने कर्नाटक में क्या किया? जेडीएस के विधायकों के अपनी पार्टी छोड़ कांग्रेस के प्रति अनुराग के क्या नैतिक कारण रहे होंगे? पैसा नहीं तो और क्या? बीजेपी ने निर्दलीय उम्मीदवारों को उतारकर कौन सा खेल खेला सबको पता है। निर्दलीय उम्मीदवार पैसे वाले ही क्यों उतारे गए? झारखंड में विधायकों के खिलाफ वारंट निकलवा कर मतदान करने से रोका गया। कांग्रेस बीजेपी की तरह बाकी दलों में उनके कार्यकर्ता पसीना बहाते रहे, लेकिन उनके नेताओं को बचाने के नाम पर दिल्ली के वकीलों के गिरोह ने राज्यसभा की सीट ले ली।

भारतीय राजनीति में नया नहीं घट रहा है। नया के नाम पर एकाध जगह नए नेता आ जाते हैं, मगर अब ये दल जंग खा चुके हैं। नए-नए दलों की पैदाइश हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। अखबार उठा कर देखिये। नेतृत्व के वही चेहरे पिछले चालीस-पचास साल से भारतीय राजनीति पर क़ाबिज़ हैं। वो इतनी बार से आ जा रहे हैं, सब एक-दूसरे के मुलाक़ाती हैं। सब एक जैसे हो गए हैं। राज्यसभा के चुनाव ने थोड़ी देर के लिए याद दिलाने की कोशिश की है कि भारतीय राजनीति में झंडे के रंग अलग हैं, मगर उनको लेकर चलने वाले सब एक जैसे हैं।

ये सारा संकट उनके लिए बोझ है, जो आदर्श और नैतिकता के पैमाने से तमाम दलों को देखते हैं। समर्थन करते हैं। किसी भी दल को इनकी कोई ज़रूरत नहीं है, बल्कि ये लोग सभी दलों के लिए नैतिक संकट है। इसलिए इनके खिलाफ सब हो जाते हैं। जनता बग़ैर नैतिक संकट के जीती है। कब से लोकपाल का कानून पास है। क्या लोकपाल लाने के लिए कोई संघर्ष है? भ्रष्टाचार मिट गया है ये सर्टिफ़िकेट बांट देने के बाद राज्यसभा का चुनाव क्या भ्रष्टाचार मुक्त था?

मुझे पता है विधायक पढ़कर हंसेंगे कि ये अभी भी जनता के सहारे नैतिकता का आह्वान कर रहा है। हा हा, बिल्कुल नहीं। मुझे पता है जिस गिरोह के सरदार ये खेल रचते हैं, वो गिरोह पहले जनता से ही बनता है। जिन्हें नैतिकता का दर्द हो रहा है उन्हें एक सुझाव है। किसी न किसी के अंध समर्थक हो जाएं। इससे उन्हें न नैतिक संकट होगा, न वैचारिक। राज्यसभा के चुनाव को भूल जाना बेहतर है। यही राजनीतिक दलों का सभी को संदेश है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इस मंत्र का दिन-रात जाप करने से मन का संताप मिटेगा और नींद अच्छी आएगी। जो नैतिक नहीं हैं, वो लोकतंत्र में मंत्र का जाप न करें, नोट गिनें नोट।

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