'तू भी बेकरार... मैं भी बेकरार...', वर्ष 1998 में आई 'वक्त की आवाज़' फिल्म का यह गाना गूंज रहा था। छोटे से स्टूल पर साउंडबॉक्स रखा है। बगल में ही कोलकाता से आई मिनी बस खड़ी है, जिसकी छाया में कुछ लड़के ताश खेल रहे हैं। पास में ही बड़े-बड़े देग रखे हैं। चूल्हे पर कड़ाही गरम हो रही है। माताजी खीरा काटकर सबको दे रही हैं। खाना तो देर से बनेगा, लेकिन जश्न में देरी क्यों हो।
दाईं तरफ डायमंड हार्बर है। सूरज की रोशनी में बंगाल की खाड़ी में मिलने वाली कई नदियों का पानी मोती की तरह चमक रहा है। बहुत दूर समुद्री जहाज़ चल रहे हैं। जहाज़ की बाहरी आकृति ही नज़र आती है। बहुत कोशिश करने पर कैमरे के लेंस से कुछ लोगों की छाया चलती नज़र आ रही है। तभी साउंडबॉक्स का गाना बदल जाता है। इस बार का गाना बीसवीं सदी का नहीं है, इक्कीसवीं सदी के दूसरे बरस, यानि 2002 की फिल्म 'राज़' का गाना है - 'कितना प्यारा है ये चेहरा, जिसपे हम मरते हैं...'
छोटे कस्बों में बजने वाले ऐसे गानों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण होना चाहिए। इन गानों में एक किस्म की अधूरी चाहत है और किसी ख़्वाब के पूरा होने का इंतज़ार भी। शायद इसी की तलाश में कोलकाता से पचास किलोमीटर दूर डायमंड हार्बर कई लोग पिकनिक मनाने आए हैं। छोटा हाथी, 'मैक्सिमो' और 'एस' जैसी गाड़ियों पर लड़के-लड़कियों के झुंड सवार हैं। गाने बज रहे हैं और सब खड़े-खड़े डायमंड हार्बर आ रहे हैं, पिकनिक मनाने। क्रिसमस के दूसरे दिन भी पिकनिक का सिलसिला जारी है।
"क्या करें दादा, साल भर 'ऐकी' (एक ही) काम करते-करते बोर हो जाते हैं, इसलिए एक बार तो पिकनिक बनता है..." कोई पचास की उम्र रही होगी पिकनिक लीडर की। दमदम के दुर्गानगर मोहल्ले से 20-22 लोगों की टीम पिकनिक मनाने आई है। लीडर ने बताया कि सब एक ही मोहल्ले के हैं। कुछ विद्यार्थी भी हैं। लड़कियां और माता जी भी साथ में हैं। हम सबने चंदा किया है। 13-14,000 का खर्चा है। किसी ने सौ दिया तो किसी ने ढाई सौ। बराबर-बराबर तो कोई नहीं दे सकता, इसलिए कोई कम दिया तो कोई ज्यादा।
खाना क्या बन रहा है...? मेरे इस सवाल पर लीडर कहते हैं कि चिकन आ भात... मटन नहीं...? मटन कहां, दादा। सकने नहीं सकेंगे। मतलब मटन इतना महंगा है कि हम लोग नहीं खरीद सकते। प्याज़ काटे जा रहे हैं। हमारी नज़र एक और टोली पर पड़ती है। कुछ औरतें हैं और एक-दो मर्द। बोली से बिहार के मालूम पड़ते हैं, लेकिन बेहद साधारण। ब्रेड और समोसा परोसा जा रहा है।
यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति के बाद से हमारी आधुनिक ज़िंदगी में छुट्टी और आराम के समय में लुत्फ का बोध प्रवेश करता है, जिसके लिए हम अंग्रेज़ी में लेज़र (leisure) शब्द का इस्तमाल करते हैं। उस दौरान कई जगहों को पिकनिक के लिए तैयार किया गया। समुद्री किनारों को दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया गया। यूरोपीय इतिहासकारों ने बाकायदा इस पर अलग से किताबें लिखी हैं। भारत में भी अंग्रेज़ों के साथ यह प्रवृत्ति आती है, लेकिन जो पिकनिक मध्यम वर्ग की ज़िंदगी में हैसियत का प्रतीक थी, वह अब नहीं है। '70 के दशक की फिल्मों तक में पिकनिक के प्रसंग मिलते हैं। अब पार्टी के प्रसंग हैं, लेकिन इसके भी कई रूप हो गए हैं। बैचलर पार्टी से लेकर संगीत पार्टी तक।
अब हमारा मिडिल क्लास उच्च मिडिल क्लास की छोड़ी हुई जगहों में प्रवेश कर गया है और उसकी छोड़ी जगह में मेहनतकश और साधारण लोगों ने अपने सपनों का घर बना लिया है। भारत का मिडिल क्लास अब कुकर, गैस का सिलेंडर, बैडमिंटन और कॉर्क लेकर पिकनिक पर नहीं जाता, वह अब टूरिस्ट बन चुका है, जो कम से कम गोवा तो जाता ही है।
पर पिकनिक कोलकाता की आबोहवा में बची हुई है। शायद यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश के निम्न मध्यमवर्गीय तबके में भी बची हुई हो, जो आज भी मामूली झरनों के नीचे अपना वक्त बिताने जाते होंगे। डायमंड हार्बर बेहद सस्ता और शांत विकल्प है। पास से गुज़रती बसों के प्रेशर हॉर्न बंद कर दिए जाएं तो आप बंगाल की खाड़ी की हर धड़कन सुन सकते हैं। हार्बर के किनारे पश्चिम बंगाल पर्यटन का एक होटल है, जिसके बारे में ज़्यादातर बंगाली जानते हैं। सागरिका (शागोरिका) नाम है। इसके सामने मुंबई की नेकलाइन की तरह बेंच बने हैं। कुछ दुकानें हैं, जहां आप चार रुपये में अच्छी चाय पी सकते हैं। थोड़ी ही दूर पर पिकनिक स्पॉट हैं, जहां तरह-तरह के मसालों की गंध हवा में पसरी है। यहां आतंकित करने वाली दुकानें नहीं हैं। नियोन साइनबोर्ड नहीं हैं। किसी नेता का होली से उस होली तक की शुभकामनाओं वाली होर्डिंग भी नहीं है! दोबारा कार ले जाने पर पार्किंग वाला पहचान लेता है और 20 रुपया लौटा देता है। पूछने पर मुस्कुरा देता है कि अभी तो आपने दिया था। खसोटकर ज़्यादा कमाने की प्रवृत्ति से बचे हुए लोगों से मिलकर राहत महसूस होती है।
"आमरा एकटा गरम चाय खाबो... ताड़पोड़े एकटू सिंघाड़ा..." (मैं गरम चाय पिऊंगी, उसके बाद समोसा खाना है), खाड़ी के चमकते सौंदर्य को निहारती एक मां अपनी बेटी को फोन पर बता रही है। वह और उनके पति जीवन की संध्या बेला में धूप की जवानी का लुत्फ ले रहे थे। "कतो भाल लाग छे" (कितना अच्छा लग रहा है न...), दोनों एक साथ अपना वक्त महसूस कर रहे हैं। यहां आए लोगों को सेल्फी का डायरिया नहीं हुआ है। व्हाट्सऐप ने हमला नहीं किया है।
बहुत कम मध्यमवर्गीय लोग हैं यहां। ज़्यादातर मेहनतकश। ज़िंदगी को अमीर और ग़रीब के फ्रेम में देखने की बीमारी से मुक्त जीने के नज़रिये से देखने वाले हैं। लाल टी-शर्ट में उस लड़के को सुरूर चढ़ गया है, वह अकेला डान्स कर रहा है। उसके सामने गाने की कैटरीना नहीं है, पर उसने मान लिया है कि वह अकेला नहीं, कैटरीना के साथ ही नाच रहा है। नीचे बैठे उसके साथी मटन मुंह में डाल बैठे-बैठे हाथ उठाकर कमर मटका रहे हैं।
साल के अंत में दिल्ली का मीडिया पार्टी स्पॉट के कवरेज से भरा होगा। सबके-सब उच्चतर मध्यमवर्गीय होंगे। हम मीडियावालों ने ऐसी जगहों को छोड़ दिया है, जिनका नाम डायमंड हार्बर या बोटानिकल गार्डन होता है। मीडिया में करीब-करीब एक ही तबके के आसपास का सब कुछ छपता और दिखता है। उन्हीं का दुख दुख है और उन्हीं का जश्न जश्न। लेकिन जो लोग बाहर कर दिए गए हैं, वे रो नहीं रहे हैं, बल्कि सामान गाड़ी पर लाद रहे हैं। दोस्तों को जमा कर रहे हैं। पिकनिक की प्लानिंग कर रहे हैं।
This Article is From Dec 26, 2014
रवीश कुमार की कलम से : पिकनिक और पार्टी के बीच डायमंड हार्बर
Ravish Kumar, Vivek Rastogi
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Updated:दिसंबर 26, 2014 17:26 pm IST
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Published On दिसंबर 26, 2014 17:04 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 26, 2014 17:26 pm IST
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