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This Article is From Dec 23, 2014

रवीश कुमार की कलम से : टीवी की जगह ट्रेन से गुज़रते हुए

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    दिसंबर 23, 2014 15:27 pm IST
    • Published On दिसंबर 23, 2014 15:12 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 23, 2014 15:27 pm IST

हावड़ा राजधानी ने रफ़्तार पकड़ ली है। हमारी ट्रेन यूपी से बिहार प्रवेश करने के बाद खुली धूप के नीचे भाग रही है। कुम्हऊ, सासाराम, डेहरी ओन सोन, रफ़ीगंज, परैया... गया आने से पहले के कई नाम तेज़ी से गुज़र रहे हैं। आज अगर टीवी स्टूडियो में होता, तो मोदी लहर की तीव्रता नाप रहा होता। टीवी कश्मीर और झारखंड के नतीजों के जश्न में डूबा होगा। लोकतंत्र की जीत का उद्घोष कर रहा होगा। विरोधी मोदी को ख़ारिज कर रहे होंगे, तो जानकार कांग्रेस को।

कुल-मिलाकर टीवी पर हक़ीक़त की विविधता एक-दो मसलों तक सिमटी हुई होगी। ख़बरों की दुनिया में चुनावी नतीजे के दिन कवरेज करने के मौक़े को देवता का वरदान माना जाता है। मैं बहुत आराम से उस कथित वरदान से वंचित ट्रेन के दस घंटे लेट होने के बाद भी समभाव से बैठा उन तस्वीरों को देख रहा हूं, जो कभी टीवी पर नहीं आते हैं। पटरी किनारे मिलने वाले लोगों का हुलिया बता रहा है कि हिन्दुस्तान की जीडीपी इन्हें छूकर भी नहीं गुज़री है। बस आपसे साझा करना चाहता हूं, मैंने क्या-क्या देखा।

पटरी के किनारे अनगिनत औरतें और बच्चे दिखे। किसी के तन पर गरम कपड़े नहीं, लेकिन ठिठुरकर अपनी साड़ी में सिमट गई एक औरत ने बकरी के बच्चों को गरम कपड़े पहनाए हैं। कई मज़दूर हैं, जो चुपचाप भारत को महान बनाने के लिए नई रेल लाइन बिछा रहे हैं। पटरी के बीच एक औरत अपने बच्चे के बाल से ज़ूं निकाल रही है। अलग-अलग कपड़ों में बहुत से बच्चों ने पटरी के बीच बिछाई जाने वाली सीमेंट की सिल्ली को खड़ाकर विकेट बना लिया है। अभाव में क्रिकेट खूब पनप रहा है।

सासाराम के पास के एक स्कूल में बड़ी लड़कियां खेल रही हैं, तो एक लड़की छत पर गेहूं सुखा रही है। वो आज स्कूल या कॉलेज नहीं गई होगी। सरकारी स्कूलों की इमारतों को देखकर यक़ीन हो जाता है कि आंकड़े भले बदल जाएं, लेकिन ये ऐसे ही रहेंगे। बच्चों ने ख़राब मास्टरों को सुनना बंद कर अपने हित में अच्छा फ़ैसला किया है। वे धूप का मज़ा ले रहे हैं और खेल रहे हैं।

गंदे पानी का तालाब दिखता है, जिसमें एक नंगा बच्चा रंग-बिरंगे बत्तखों को दाने डाल रहा है। रफ़ीगंज स्टेशन के पास वाराणसी-आसनसोल के बीच चलने वाली एक पैसेंजर ट्रेन खड़ी है। ट्रेन का अस्थिपंजर हिला हुआ है। दो औरतें एक बच्चे के साथ किसी को विदा करने आईं हैं। बार-बार आंसू पोंछ रही हैं। ट्रेन में बाक़ी लोग भारत की ग़रीबी रेखा खोज रहे हैं। प्लेटफॉर्म पर एक बूढ़ा सिर पर हाथ रखकर ऐसे बैठा है, जैसे लोकतंत्र में लुट गया हो।

बहुत से पेड़, खुले-खुले खेत, रेत के मैदान पर दो-तीन किमी दूर से चली आ रही औरत, बच्चों के झुंड को देखते-देखते हम गया के नज़दीक़ आ गए हैं। अचानक दीवारों पर सपनों के मास्टरों का एलान दिखता है। भुवनेश्वर यादव आई टी आई, ज़ुबैर खान जीव विज्ञान के मास्टर। अंग्रेज़ी की कमज़ोरी दूर करने के लिए ग्रामर का गंडा-तावीज़ बेचने वाले मास्टरों के नाम पढ़कर यक़ीन हो जाता है कि एक दिन अंग्रेज़ी ही इन भूखे नंगों का उद्धार करेगी। जो बच जायेंगे, उनका कल्याण अंडरवियर और सीमेंट के विज्ञापनों से हो जाएगा।

हावड़ा राजधानी गया स्टेशन पहुंचती है। लोगों की भीड़ देखकर लगता है कि हमारा लोकतंत्र धूप सेंकने निकला है या भूख। मानपुर के पास खेतों में हाथ से चलने वाले ट्रैक्टर आज़माया है। थोड़ी दूर बाद टनकुप्पा आता है। यहां प्लेटफॉर्म पर खड़े लोगों को देखकर मन उदास हो जाता है। इन बचे-खुचे लोगों को विकास की खुरचन भी मिलेगी या नहीं। आज भी ये तमाम तस्वीरें टीवी से बाहर रह गई हैं।

ट्रेन के भीतर लोग मुझे झांककर देख रहे हैं। अरे आप तो टीवी में आते हैं न। पर किसे फ़र्क पड़ता है कि टीवी में क्या आता है। कौन आता है। हमारी ट्रेन गया से निकल गई है। इन अनगिनत अनजान लोगों को देखकर अक्सर क्यों लगता है कि कहीं ये मैं तो नहीं हूं, कहीं वो मैं तो नहीं हूं। अच्छा होता कि मैं आज स्टूडियो में ही होता। कम से कम कुछ लोग तो कहते कि देखो-देखो ये वही है।

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