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This Article is From Aug 04, 2016

जीएसटी की व्यावहारिकता को परखता रहे आम आदमी, इसी में भलाई है...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 04, 2016 12:03 pm IST
    • Published On अगस्त 04, 2016 12:03 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 04, 2016 12:03 pm IST
बुधवार को राज्यसभा में जिस एकता और सद्भावना पर लोग भावुक हुए जा रहे हैं, वह दरअसल इसलिए भी है कि आर्थिक नीतियों के मामले में अब सारे दल एक जैसे हैं - ख़ासकर बीजेपी और कांग्रेस. जब नीतियों में ही कोई अंतर नहीं था, तो दलीलें कहां से टकरातीं. राज्यसभा में वित्तमंत्री अरुण जेटली और पूर्व वित्तमंत्री पी चिदम्बरम की भाषा और देहभाषा ऐसी थी, जैसे दोनों एक ही चैप्टर पढ़कर आए हों और उसे अपना पर्चा बताने का प्रयास कर रहे हों. दोनों के भाषणों में चंद भाषाई असहमतियों के साथ व्यापक सहमति का इज़हार हो रहा था. यही कारण है कि आर्थिक नीति के वक्त सदन की एकता अभूतपूर्व लगती है. यह एकता नहीं है, हमारी दरिद्रता है. एक भी दल जीएसटी के विरोध में कोई ठोस तर्क नहीं रख पाया, सब पैबंद जोड़ रहे थे.

जीएसटी को जीडीपी बढ़ाने, रोज़गार बढ़ाने और ग़रीबी दूर करने के पैकेज के रूप में पेश किया गया है. एक जागरूक लोकतंत्र में होना यह चाहिए था कि सरकार को सदन और सदन के बाहर बताना चाहिए कि दुनिया में कहां-कहां ऐसा हुआ है और उसका आधार क्या है. जहां जीएसटी लागू है, उनमें से किस देश की जीडीपी भारत की जीडीपी के बराबर है, जहां जीएसटी नहीं है, वहां भी. मैकिन्जी ग्लोबल इंस्टीट्यूट ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में बताया है कि 2005 से 2014 के बीच दुनिया की 25 विकसित अर्थव्यवस्थाओं में दो-तिहाई परिवारों की वास्तविक आय घटी है या जस की तस रह गई है, जिसके गंभीर आर्थिक और सामाजिक परिणाम हो सकते हैं. सिर्फ दो प्रतिशत परिवारों की वास्तविक आय बढ़ी है. यही बात तमाम अर्थशास्त्री कह रहे हैं. तमाम मुल्कों में देखा गया है कि मुल्क की 50 फीसदी संपत्ति कोई 100-50 लोगों के हाथों में जमा हो गई है.

भारत में जीएसटी के देरी से लागू होने पर रोने की भी ज़रूरत नहीं है. ऑस्ट्रेलिया में 1975 से चर्चा शुरू हुई और लागू हुआ सन 2000 में. वहां भी कांग्रेस-बीजेपी की तरह लेबर और कंज़र्वेटिव पार्टी अपना स्टैंड बदलते रहे. कंज़र्वेटिव पार्टी ने तो मेनिफेस्टो से जीएसटी निकाल दिया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद लागू करने में ही जुट गई. भारत जिस जीएसटी को ऐतिहासिक बता रहा है, वह सबसे पहले फ्रांस में 1954 में लागू हुआ था. इसी अप्रैल में मलेशिया ने जीएसटी लागू किया है. न्यूज़ीलैंड का जीएसटी दुनियाभर में बेहतरीन माना जाता है, वहां 1986 में लागू हुआ. 1991 में कनाडा और दक्षिण अफ्रीका में लागू हो चुका है. 140 से ज़्यादा देश जीएसटी लागू कर चुके हैं. अमेरिका में जीएसटी नहीं है.

जीएसटी को लेकर जनता में अभी पर्याप्त बहस होनी है. हिन्दी के पाठकों तक इससे जुड़े तमाम अनुभव और भी देरी से पहुंचेंगे. इसकी जगह पर 'एक देश, एक टैक्स' जैसे नारे ठेल दिए जाएंगे और लोगों को लगेगा कि इससे सिर्फ भला ही होने वाला है. तमाम योजनाओं के साथ यही दावे किए जाते हैं कि अब ग़रीबी गई, नौकरी आई. मगर कोई उन योजनाओं का नतीजा नहीं बताता कि कितनों को नौकरी मिली, कितनों की ग़रीबी गई. इंटरनेट पर 10-12 लेख और रिपोर्ट पढ़ने के बाद जो समझ में आया, वह मैं ख़ुद के लिए भी और अपने हिन्दी के पाठकों के लिए लिख रहा हूं.

जीएसटी मूलतः एक उपभोग कर है, जिसका भुगतान अंतिम उपभोक्ता करता है. इसे 1950 के दशक से दुनिया भर में इन्कम टैक्स के विकल्प के रूप में लाया गया है. मौजूदा दौर में पूंजी कहीं ठहरती नहीं है. वह एक देश से दूसरे देश में रातोंरात चली जाती है. दिन में सेंसेक्स धड़ाम से गिर जाता है और इस आवाजाही से सरकार को राजस्व को भारी नुकसान होता है. इसलिए पूंजी को आकर्षित करने और रोककर रखने के लिए टैक्स और ब्याज़ दरों में कई प्रकार की छूट दी जाती है. फिर भी पूंजी की यह प्रकृति नहीं बदल पाई है.

लिहाज़ा इसकी भरपाई का यह आइडिया निकाला गया कि अगर सभी उत्पादों के उपभोग पर जीएसटी के नाम से एक टैक्स लगा दें तो टैक्स वसूली का आधार व्यापक होगा. जीएसटी लागू करते समय यही बताया जाता है कि एक समान और स्थायी टैक्स है. मगर आगे आप पढ़ेंगे कि कैसे तमाम सरकारों ने जीएसटी की दरें बढ़ाने की तरकीबें निकाली हैं, ताकि कॉरपोरेट का टैक्स कम होता चला जाए, उन्हें पैकेज दिया जा सके. जिनकी संस्थानिक और व्यक्तिगत कमाई ज्यादा है, उन्हें राहत देकर आम और ग़रीब जनता पर समान रूप से टैक्स लाने का सिस्टम लाया गया है. जो ज़्यादा कमाएगा, वह कम टैक्स दे और जो कम कमाता है, वह एक समान टैक्स के नाम पर ज़्यादा टैक्स दे. सबने कहा कि जीएसटी से तीन साल महंगाई आती है. मैंने कहीं नहीं पढ़ा कि महंगाई सिर्फ तीन साल के लिए आती है. बल्कि यही पढ़ा कि महंगाई आती है.

न्यूज़ीलैंड का जीएसटी सर्वोत्तम श्रेणी का माना जाता है. यहां पर किसी भी उत्पाद को जीएसटी के दायरे से बाहर नहीं रखा गया है. जीएसटी की दर एक है और सब पर लागू है. भारत की तरह तीन प्रकार की जीएसटी नहीं है. न्यूज़ीलैंड के सामने भारत की तरह अलग-अलग राज्य व्यवस्था की चुनौती नहीं है. जैसे भारत में शराब, तंबाकू और पेट्रोल को जीएसटी से बाहर रखा गया है. ऑस्ट्रेलिया की तरह भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य बुनियादी सेवाओं को बाहर नहीं रखा गया है. जीएसटी का समान टैक्स लागू होने से सर्विस टैक्स बढ़ेगा और स्वास्थ्य और शिक्षा और महंगे हो जाएंगे.

जहां भी जीएसटी लागू हुआ है, वहां कुछ साल तो एक टैक्स होता है, मगर उसके बाद बढ़ाने की प्रक्रिया शुरू होती है. न्यूज़ीलैंड में जीएसटी 1986 में 10 फीसदी था, पहले 12.5 फीसदी बढ़ा और फिर 15 फीसदी हो गया. ऑस्ट्रेलिया में सन 2000 से 10 फीसदी है और वहां खूब बहस चल रही है कि इसे बढ़ाकर 15 फीसदी या उससे भी अधिक 19 फीसदी किया जाए. ब्रिटेन ने हाल ही में जीएसटी की दर बढ़ाकर 20 फीसदी कर दी है. 30 मुल्कों का एक संगठन है OECD (Organisation of Economic Co-operation and Development), और पिछले पांच साल में 30 में से 20 सदस्य देशों ने अपने यहां जीएसटी की दरें बढ़ाईं हैं. OECD के अनुसार 21 देशों ने 2009 से 2011 के बीच जीएसटी रेट को बढ़ाकर 17.6 से 19.1 किया है. जबकि जीएसटी की मूल अवधारणा यह है कि सब पर टैक्स लगे, सब पर कम टैक्स लगे. मगर बाद में धीरे-धीरे उपभोक्ताओं से वसूली होने लगती है, इसीलिए भारत में कांग्रेस कह रही है कि 18 फीसदी अधिकतम टैक्स का प्रावधान संविधान में जोड़ा जाए. मोदी सरकार इसलिए जोड़ने से मुकर रही है कि दुनिया में जहां भी जीएसटी लागू हुआ है, वहां कुछ साल के बाद जीएसटी बढ़ाने की नौबत आई है. इसी अप्रैल में मलेशिया में जीएसटी लागू हुआ है, वहां फिलहाल छह फीसदी जीएसटी रखा गया है.

जीएसटी बढ़ाने की नौबत क्यों आती है...? जो मुझे समझ आया, वह इसलिए, क्योंकि जीएसटी के नाम पर कॉरपोरेट टैक्स कम किया जाता है. अमीर लोगों के इन्कम टैक्स कम होते हैं. सरकार को कम राजस्व मिलता है. इसे छिपाने के लिए सरकार बताने लगती है कि कुल राजस्व में जीएसटी की भागीदारी बहुत कम है, इसलिए जीएसटी की दर बढ़ाई जा रही है. ऑस्ट्रेलिया में जीएसटी से कुल राजस्व का 23 फीसदी टैक्स ही आता है. एक जगह पढ़ा कि ऑस्ट्रेलिया के कुल राजस्व में जीएसटी का हिस्सा 12.1 फीसदी है. जापान में 19.5 फीसदी है. ऑस्ट्रेलिया में सरकार ने दावा किया है कि कर वसूली कम होने से पिछले 10 साल में शिक्षा और स्वास्थ्य में 80 अरब ऑस्ट्रेलियन डॉलर की कटौती की गई है. अगर जीएसटी से राजस्व ज़्यादा आता तो शिक्षा और स्वास्थ्य में कटौती क्यों करनी पड़ी. भारत में भी राजस्व के बढ़ने का दावा किया जा रहा है.

ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और न्यूज़ीलैंड के बारे में मैंने पढ़ा कि वहां पर जीएसटी लागू होने के साथ साथ इन्कम टैक्स में भी कमी की गई है, ताकि सामान्य आयकरदाता चीज़ों के दाम बढ़ने का झटका बर्दाश्त कर सके. भारत में आयकर में कटौती की कोई चर्चा तक नहीं कर रहा है. उल्टे वित्तमंत्री पिछले दो बजट से कॉरपोरेट टैक्स घटाने का ही ऐलान किए जा रहे हैं. तो क्या यह जीएसटी बड़े कॉरपोरेट और उच्च वर्गों को लाभ पहुंचाने के लिए आ रहा है. अब बहस यह चल रही है कि जीएसटी के दायरे से कुछ भी बाहर न हो, जैसा न्यूज़ीलैंड ने किया है.

ऑस्ट्रेलिया में एक अध्ययन यह भी हुआ कि जीएसटी लागू होने से वहां के छोटे उद्योगों पर क्या असर पड़ा है. पाया गया है कि शुरुआती दौर में जीएसटी लागू कराने के लिए सॉफ्टवेयर, कम्प्यूटर, खाता-बही विशेषज्ञ इन सब पर खर्चा काफी बढ़ गया, लेकिन बाद में उन्हें लाभ हुआ है. ज़ाहिर है जीएसटी से बिजनेस की प्रक्रिया सरल होती है. यह बिजनेस के लिए ज़रूरी है, मगर इससे आम आदमी का जीवन आसान नहीं होता, ग़रीबी दूर नहीं होती, बल्कि इन सबके नाम पर बड़े बिजनेस को बड़ा पैकेज मिलता है. आज के 'फाइनेंशियल एक्सप्रेस' में एक रिपोर्ट छपी है कि जीएसटी के आने से भारत के बड़े उद्योगों को सबसे अधिक लाभ होगा. जब सदन में बहस होती है, तब यह क्यों नहीं कहा जाता है कि बड़े उद्योगों को काफी फायदा होगा. क्यों कहा जाता है कि जीएसटी ग़रीबों के लिए है, आम बिजनेसमैन के लिए है.

हर जगह यह बात आई कि जीएसटी से ग़रीबों पर मार पड़ती है. न्यूज़ीलैंड ने इसका उपाय यह निकाला है कि वह ग़रीबों को कई तरह की आर्थिक मदद देता है. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के ज़रिये भारत में भी इसकी वकालत हो रही है. मगर आप देखेंगे कि कई जगहों पर इस इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम के नाम पर बड़ी संख्या में ग़रीबों को अलग भी किया जा रहा है. न्यूज़ीलैंड में जीएसटी को समझने वालों का कहना है कि इसकी कामयाबी तभी है, जब राजनीतिक दबाव में किसी आइटम को जीएसटी से बाहर नहीं किया जाए. जब हर चीज़ पर टैक्स लगाएंगे, तभी ज़्यादा राजस्व आएगा.

ऑस्ट्रेलिया की आर्थिक पत्रकार जेसिका इर्विन ने आलोचनात्मक लेख लिखा है, जो इंटरनेट पर मौजूद है. उन्हीं के लेख में पीटर डेविडसन नाम के टैक्स एक्सपर्ट का कहना है कि जैसे ही आप इन्कम टैक्स से जीएसटी की तरफ कदम बढ़ाते हैं, समाज में असमानता बढ़ने लगती है. न्यूज़ीलैंड में 30 वर्षों में आर्थिक असामनता बढ़ी है. मतलब ग़रीबों की संख्या बढ़ी है और ग़रीबों की ग़रीबी बढ़ी है. जीएसटी से ग्रोथ रेट बढ़ने का कोई स्पष्ट आधार तो नहीं मिलता, मगर यह ज़रूर पता चलता है कि इससे असमानता बढ़ती है.

मैंने सिर्फ ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के बारे में बात की है. हो सकता है, कोई ऐसा देश होगा या कई ऐसे देश होंगे, जहां जीएसटी के बाद आर्थिक तरक्की की रफ्तार तेज़ हो गई हो. अगर ऐसा हुआ होता तो दुनिया में ग़रीबी के बढ़ने की बात क्यों की जा रही है. क्यों कहा जा रहा है कि मज़दूरी नहीं बढ़ रही है. नौकरी नहीं बढ़ रही है. हम नहीं जानते कि भारत में क्या होगा. मगर दुनिया में जो हुआ है, उसके बारे में जानने में कोई बुराई नहीं है. ज़्यादा सवालों के साथ देखने-परखने से नए सिस्टम के प्रति विश्वास भी बढ़ सकता है और आशंका भी. एक नागरिक के लिए ज़रूरी है कि ऐतिहासिकता का आवरण लिए आ रही नई व्यवस्था की व्यावहारिकता को परखता रहे. इसी में सबकी भलाई है.

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