यह ख़बर 25 दिसंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

रवीश कुमार की कलम से : कोलकाता, केक और क्रिसमस

कोलकाता:

सेंट पॉल कथिडरल, कोलकाता। रात के 10 बज रहे हैं। सैकड़ों लोग चर्च के अंदर जाने के लिए क़तार में हैं। मैं भी क़तार के साथ-साथ धीरे-धीरे सरक रहा हूं। अलग-अलग बोलियां सुनाई दे रही हैं। दूसरे प्रांत से भी लोग आए हैं। कुछ पर्यटन के तौर पर, तो कुछ धार्मिक मान्यताओं को निभाने। एक बड़ा तबक़ा ऐसा भी है, जो उत्सवधर्मिता को जीने आया है।

टीका लगाए एक पंडित जी हैं, तो भर मांग सिंदूर लगाए एक महिला लाइन धीरे-धीरे सरकने के बाद भी उकता नहीं रही है। लड़कियों का एक समूह चर्च की तरफ़ से बनाई गई झांकी पर टिप्पणी कर रहा है। अरे देखो, गड़ेरिया का बच्चा तो बंगाली है। कुर्ता-पायजामा में है और शाल ओढ़े है। अंदर जाने का इंतज़ार लंबा होता जा रहा है। फिर भी इस अधीर वक्त में लोग धीरज के साथ खड़े हैं। चर्च की सादगी बरक़रार है। तड़क-भड़क वाली सजावट नहीं है।

अंदर प्रवेश करते ही आवाज़ आ रही है। महात्मा गांधी ने अहिंसा को सबसे शक्तिशाली हथियार बताया था। गांधी ने कहा था कि मरने के अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन मारने का कोई कारण नहीं हो सकता है। शांति और मानवता के संदेश दिए जा रहे हैं। पेशावर में बच्चों की हत्या पर शोक व्यक्त किया जा रहा है। संबोधित करने वाले बिशप रेवरेंड अशोक विश्वास हैं। धर्म की इतनी ही बातें हुईं कि सब पर दया करो। पड़ोसी से प्यार करो।

यह सुनते-सुनते मैं चर्च के अंदर वहां खड़ा हो जाता हूं, जहां मीडिया के कैमरे लगे हैं। बहुत से चर्च देखे हैं, लेकिन जीवन में पहली बार क्रिसमस की पूर्व संध्या पर मध्यरात्रि मास देखने आया हूं। 1847 में कोलकाता का सेंट पॉल कथिडरल बन गया था। 1857 की क्रांति से 10 साल पहले। इसे उत्तर भारत के चर्चों का मातृ-चर्च कहा जाता है।

चर्च के अंदर शांति की सामूहिकता है। टीवी पर जिस क्रिसमस को धूमधाम के अर्थ में देखा और जाना जाता है, उसके ठीक उलट शांति और खामोशी पसरी है। सारे लोग बैठे हैं और सबके सामने बाइबिल के कुछ अंश रखे हैं। भीतर अंधेरा है, मगर सबके सामने मोमबत्ती जल रही है।

ईसा मसीह के जन्म के मौक़े पर चर्च के भीतर ग़ैर ईसाई भी हैं। बिशप सबका आह्वान करते हैं। हिन्दुस्तान को आज़ादी मिलने के ठीक 100 साल पहले बना यह चर्च यूरोपीय वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण है। जल्दी ही ख़ास तरह का एक दान-पात्र घूमने लगता है। लोग उसमें अपनी इच्छा के अनुसार पैसे डाल रहे हैं। हज़ार से लेकर 10 रुपये के नोट तक। मेरी नज़र उस लड़की पर पड़ती है, जो संकोच और सबसे नज़रें बचाते हुए दानपात्र में एक-दो सिक्के डाल रही है। राजा हो या रंक सब अपने हिस्से में से कुछ न कुछ ईश्वर को देना चाहते हैं।

चर्च से बाहर कोलकाता का मैदान दीवाली की तरह सज़ा है। क्रिसमस मनाना कोई कोलकाता से सीखे। रेडियो से लेकर टीवी और अख़बार तक में शारदा स्कैम के बाद क्रिसमस की तैयारियों का भी खूब कवरेज है। केक को लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैं और नाना प्रकार के ब्रांड के विज्ञापन टीवी पर आ रहे हैं। गली-मोहल्ले की छोटी-छोटी दुकानें भी क्रिसमस के मौक़े पर सजी हुई हैं।

दिल्ली में ठीक उल्टा है। वहां से वैसी ही ख़बरें आ रही हैं, मानो क्रिसमस का मतलब सिर्फ सरकारी छुट्टी भर रह गया है। छुट्टी होगी या नहीं होगी, इसी में क्रिसमस का भाव खो गया है। दिल्ली की हवा में तरह-तरह की आशंकाएं तैर रही हैं। लोग भूल जाते हैं कि राज सत्ता और लोकसत्ता दो अलग-अलग चीज़ें होती हैं। कोलकाता के लोक में क्रिसमस सिर्फ ईसाई धर्म के अनुयायियों का त्योहार नहीं है। ईद, होली और दीवाली की तरह क्रिसमस भी सबका है। क्रिसमस मनाना हो, तो कोलकाता आइए। दिल्ली के बस की बात नहीं है। वहां हर बात राज सत्ता से तय होती है। कोलकाता के लोग गुड गवर्नेंस की जगह गुड क्रिसमस मना रहे हैं।

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लौटते वक्त टैक्सी ड्राईवर से पूछा कि आप भी क्रिसमस मनाते हैं? दीपांकर चुप रहा। थोड़ी देर बाद बोला कि टैक्सी ड्राईवर के लिए न पूजा है, न क्रिसमस। हमारा भी कोई त्योहार होना चाहिए, ताकि हम चलते-चलते मना सकें। गढ़ना ही है, तो ऐसा कोई नया लोक उत्सव गढ़ दीजिए। उत्सव को काम में बदल देने से उत्सव नहीं रह जाएगा। आधी रात को कोलकाता जगमगा रहा है। कोलकाता पुलिस मुस्तैदी से ट्रैफ़िक का संचालन कर रही है। तमाम महानगरों में कोलकाता जैसा महानगर कोई नहीं है। क्रिसमस भी कोलकाता जैसा कहीं और नहीं।