क्या हम किसी आकाशवाणी के इंतज़ार में है कि जब प्रधानमंत्री बोलेंगे तो ऐसा बोलेंगे, जो अब तक नहीं बोला गया है। ऐसा क्या सुनना बाकी है, जो हम प्रधानमंत्री के बोलने का इंतज़ार कर रहे हैं। हर बहस और लेख में याद दिलाया जा रहा है कि अरे हां, प्रधानमंत्री तो बोल ही नहीं रहे हैं। इतना तो बोलते हैं, मगर इस पर क्यों चुप हो गए हैं। क्या वे भी मौन मोहन सिंह की तरह मौन मोदी हो गए हैं। वे मन की बात में नहीं बोल रहे हैं, जन से बात नहीं कर रहे हैं।
पिछले दो हफ्ते से उनकी सरकार के मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता ज़ोर-ज़ोर से बोल ही रहे है कि कुछ ग़लत नहीं हुआ है। क्या प्रधानमंत्री कुछ अलग कह देंगे, क्या वे कह देंगे कि हां, ग़लत हुआ है। मेरी पार्टी के प्रवक्ता झूठ बोल रहे थे। ठीक है कि चुनावों में बहुत बोला करते थे, लेकिन किसी भी नेता के सामने दो मुख्यमंत्री और दो केंद्रीय मंत्री को एक साथ हटाने की चुनौती हो, उसे चुप्पी मार ही जाएगी। आप बेशक उनकी मजबूरी की तुलना मनमोहन सिंह से कर सकते हैं। इसमें खुशी मिलती है तो ज़रूर कीजिए, लेकिन एक प्रधानमंत्री क्या अपने नेताओं के काले-सफेद कारनामों के बारे में नहीं जानते होंगे। क्या उन्हें पता नहीं कि उनके सांसद, विधायक कहां से पैसा लाते हैं। क्या उन्हें पता नहीं कि विरोधी दलों के नेताओं के पास कहां से पैसा आता है। यही कारण था कि मनमोहन सिंह चुप रहते थे, यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी को चुप रहना पड़ रहा है।
प्रधानमंत्री को बोलने का मन ज़रूर करता होगा। वे जब भी किसी सभा में जाते होंगे उनकी निगाहें उनसे बचती होंगी कि कहीं कोई इस उम्मीद में तो नहीं आ गया है कि मुझे वसुंधरा राजे और सुषमा पर बोलना है। जब वे जन्मदिन के बारे में ट्वीट करने जाते होंगे तो ख़्याल तो आता ही होगा कि कोई यह न लिख दे कि वसुंधरा मामले पर कब बोलेंगे। प्रधानमंत्री के लिए चुप रहना इतना आसान नहीं है। ललित मोदी ने अरुण जेटली, राजीव शुक्ला, रॉबर्ट वाड्रा और प्रियंका गांधी के भी नाम लिए हैं। वो अपने घर से लेकर दूसरों के घर तक के मामले में क्या-क्या बोलेंगे। कहां तक बोलेंगे। प्रधानमंत्री भी सोचते होंगे कि क्या दिन आ गए हैं, जब मुख्यमंत्री था तो अपने ऊपर लगे आरोपों से परेशान रहता था, तब सब मेरा बचाव करते थे, आज जब वे प्रधानमंत्री बने हैं तो उन्हें उन सबका बचाव करना पड़ रहा है। उन पर लगे आरोपों को सहना पड़ रहा है।
इसलिए मैं खुलकर बोलने वालों की तकलीफ समझता हूं। उनकी चुप्पी उन्हें भीतर से बहुत बुलवाती है। उन्होंने सेल्फी विद डॉटर्स का अभियान चलवाया ताकि सोशल मीडिया पर उन्हें लेकर कुछ और बातें भी हो सकें। आलोचकों ने तब तो खूब सराहा था जब गांव के सरपंच ने ये अभियान चलाया, लेकिन जब प्रधानमंत्री ने इसे आगे बढ़ाया तो सब आलोचना करने लगे। ज़रूर देखना चाहिए कि गांव के सरपंच ने अपनी कमियों को छिपाने के लिए एक नेक अभियान का सहारा तो नहीं लिया, लेकिन सिर्फ इस बात को आधार बनाकर उनके अभियान पर सवाल उठाना भी ठीक नहीं है। यह सवाल ज़रूरी तो है ही कि इन अभियानों से हकीकत बदलेगी क्या। कहीं नहीं बदली तो कहीं बदली भी है पर इससे ऐसे अभियानों की ज़रूरत तो रहेगी ही।
सुनना भी एक तरह से बोलना होता है। कई लोग याद दिला रहे हैं कि गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर दंगों के आरोप में जेल गईं माया कोडनानी को तब तक नहीं हटाया जब तक उन्हें जेल नहीं भेजा गया। ऐसे दलीलों के सहारे आम आदमी पार्टी वाले कह रहे हैं कि हमने भी जितेंद्र सिंह तोमर को तभी हटाया जब वे जेल गए। प्रधानमंत्री में ये आदत अच्छी है। वे किसी को हटाते नहीं हैं। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने ठीक कहा था कि ये एन डी ए हैं, यहां इस्तीफे नहीं होते। क्या ये प्रधानमंत्री का बयान नहीं है। जब तक वे खंडन नहीं करते तब तक यह बयान प्रधानमंत्री का ही है। यह भी तो सोचिये कि कहीं वे चुप रहकर दूसरों की बोलती बंद करने का कोई प्लान तो नहीं बना रहे। 2000 से 2015 तक की राजनीति में मैंने नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी की कोई हार नहीं देखी है। इसलिए उत्साहित जन अपनी कमर ठीक से कस लें।
उनकी चुप्पी से कई लोगों को सलाहकार बनने का मौका मिल गया है। वे लेख लिखने लगे हैं कि प्रधानमंत्री नहीं बोलकर अपना नुकसान कर रहे हैं। कोई उपाय बता रहा है कि काश प्रधानमंत्री कार्यालय में मीडिया सलाहकार होता। इस हालत में तो अच्छा है कि कोई नहीं है वर्ना हर दूसरी ख़बर ये होती है कि प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार भी फोन नहीं उठा रहे हैं। उनका मोबाइल चार दिनों से बंद है। मनमोहन सिंह ने भी तो रखा था, उन्होंने कौन-सा तीर मार लिया। जब मीडिया में इतने सलाहकार हैं ही तो तनख्वाह और पद देकर किसी को सलाहकार रखने की ज़रूरत क्या है। जो व्यक्ति अपने दम पर चुनाव लड़कर अपनी पार्टी और विरोधी राजनीति को धाराशाही करते हुए प्रधानमंत्री बन सकता है वह बिना मीडिया सलाहाकर के भी काम चला सकता है।
हम सब भ्रष्टाचार को 3 घंटे की फिल्म की तरह देखने लगे हैं। कहानी का अंत सुखांत हो और असत्य पर सत्य की विजय हो जाए। भ्रष्टाचार ही आज की राजनीति का पालनकर्ता है। उसे मिटाने वाला मिट जाएगा। कांग्रेस हो या भाजपा, जनता दल या समाजवादी सब भ्रष्टाचार के पैसे से ही नैतिकता की राजनीति कर रहे हैं। हम सब चाहते हैं कि फिल्म खत्म हो और अगली किसी फिल्म के लिए भ्रष्टाचार हार जाए।
आज किसी ने गूगल से उनके भाषण का एक अंश निकाल कर दिया। मैं सुनने लगा। प्रधानमंत्री इलाहाबाद की सभा में बोल रहे थे। सुनते हुए एक बार तो मुझे भी लगा कि सफाई हो जाएगी लेकिन क्या हम नहीं जानते कि मुश्किल है। आपके लिए लिख रहा हूं कि उन्होंने क्या बोला। उनके भाषण को शब्दश टाइप किया है।
" आप मुझे बताइये राजनीति में से अपराधीकरण खत्म होना चाहिए कि नहीं होना चाहिए। गुंडागर्दी जानी चाहिए कि नहीं चाहिए। बम बंदूक की राजनीति समाप्त होनी चाहिए कि नहीं चाहिए। मां गंगा की धरती से मुझे आशीर्वाद दो। इलाहाबाद के भाइयों बहनों मुझे आशीर्वाद दो। मैं मौत को मुट्ठी में लेकर निकला हूं। मैं राजनीति में अपराध के खिलाफ लड़ना चाहता हूं। मैं अपराधीकरण का खात्मा करने के लिए आपका आशीर्वाद चाहता हूं। मैं आपको बताता हूं। नई सरकार बनने के बाद ये जितने पार्लियामेंट के मेंबर चुनकर आएंगे, उन्होंने अपना नामांकन भरते समय एफिडेविट में लिखा है किस पर कितने केस दर्ज हुए हैं, सब लिखा हुआ है। ये सारी चीज़ें मैं सुप्रीम कोर्ट को दे दूंगा। सुप्रीम कोर्ट को हाथ जोड़कर कहूंगा कि ऐसी व्यवस्था करो कि ये जो नए चुनकर आए हैं, सबका खाता खोल दो। केस चलाओ, एक साल के अंदर-अदर जो गुनहगार हैं, उन्हें जेल में डालो, जो बेगुनाह हैं, उन्हें संसद में भेजो। और जो जेल जाएंगे वो सीट खाली हो जाएगी, उपचुनाव आएगा, इलाहाबाद में मालूम हैं न...हां..। भाइयों बहनों अब कोई बदमाश, ये बम बंदूक की राजनीति करने वाले एक साल के बाद संसद में दिखाई नहीं देंगे। एक बार संसद की सफाई कर दूंगा और फिर एसेंबली को हाथ में लूंगा। विधानसभा में जितने बैठे हैं ( वे दोनों हाथ फैला कर चुटकी बजाते हैं, भीड़ जोश से भर जाती है),दूध का दूध पानी का पानी करके रहूंगा भाइयों। इसमें किसी पार्टी और गोत्र नहीं देखूंगा। किसी का नहीं देखूंगा। अगर मोदी पे मुकदमा होगा, वो भी चलेगा।
यह भाषण इतना शानदार है, उनकी हर बात पर पीछे से उनके समर्थन में जानदार जवाब आता है। भीड़ नई ऊर्जा से भर जाती है। एक साल में संसद की कितनी सफाई हुई ये तो राम जाने, लेकिन प्रधानमंत्री की एक मर्ज़ी तो पूरी हो ही रही है। सबकी पोल खुल रही है। इतना आसान नहीं है कि भ्रष्टाचार और अपराधियों को राजनीति से साफ कर देना। बोलने का मतलब है कि कार्यवाही करना। इस रास्ते पर वे निकले तो कभी लौट कर सात रेसकोर्स नहीं आ पाएंगे। सबको हटाते-हटाते या तो अकेले बचेंगे या खुद भी हट जाएंगे। आप तैयार हैं, इसके लिए। ये बलिदान सिर्फ उन्हें नहीं आपको भी देना होगा।"
This Article is From Jul 01, 2015
प्रधानमंत्री को बिल्कुल नहीं बोलना चाहिए, उनकी चुप्पी काफी है सुनने वालों के लिए
Ravish Kumar
- Blogs,
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Updated:जुलाई 01, 2015 13:45 pm IST
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Published On जुलाई 01, 2015 13:03 pm IST
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Last Updated On जुलाई 01, 2015 13:45 pm IST
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