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This Article is From Jul 19, 2019

विश्‍वास मत की प्रक्रिया पूरी करने की मियाद क्‍या हो?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 19, 2019 16:14 pm IST
    • Published On जुलाई 19, 2019 01:52 am IST
    • Last Updated On जुलाई 19, 2019 16:14 pm IST

कर्नाटक विधानसभा में विश्वास मत पेश तो हो गया है. अब इस बात पर बहस हो रही है कि स्पीकर एक ही दिन में विश्वास मत की प्रक्रिया पूरी करें. कर्नाटक के राज्यपाल ने भी कहा है कि विश्वास मत एक दिन में पूरा हो. क्या संविधान में ऐसी कोई प्रक्रिया है कि राज्यपाल स्पीकर से कहें कि वे किसी प्रक्रिया को कब पूरी करें. क्या संविधान में ऐसी कोई प्रक्रिया है या नियम है जिसके तहत विश्वास मत को एक दिन के भीतर ही पूरा किया जा सकता है. यहां सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भी एक समस्या आ गई है. कांग्रेस विधायक दल के नेता सिद्धारमैया ने कहा है कि वे विधायक दल के नेता हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद व्हि‍प जारी नहीं कर सकते हैं. उनका पक्ष नहीं सुना गया है. जब तक सुप्रीम कोर्ट की तरफ से स्पष्टीकरण नहीं आ जाता है तब तक विश्वास मत की कार्यवाही रोक दी जाए.

बीजेपी चाहती है कि विश्वास मत एक दिन में ही पूरा हो. बीजेपी ने राज्यपाल से संपर्क किया और राज्यपाल ने एक दिन में बहस पूरी करने के लिए कहा है. मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने कहा कि नेता विपक्ष येदियुरप्पा को बहुत जल्दी है. कांग्रेस नेता शिवकुमार ने सदन में भाषण देते हुए कई सारी तस्वीरें पेश की. कहा कि व्हि‍प को लेकर बीजेपी और येदियुरप्पा देश को गुमराह कर रहे हैं. जो विधायक व्हि‍प का उल्लंघन करेंगे उनके खिलाफ कार्रवाई होगी. शिवकुमार ने इस्तीफा देने वाले विधायकों से अपील की कि वे वापस ले लें. मुख्यमंत्री कुमारस्वामी और सिद्धारमैया ने स्पीकर से मुलाकात की और कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश से उनके व्हि‍प जारी करने के अधिकार पर रोक लग गई है. वे व्हि‍प जारी नहीं कर सकते हैं. कानून मंत्री कृष्णा गौड़ा ने कहा कि जिन विधायकों ने बग़ावत की है उन पर विश्वास मत से पहले फैसला हो.

16 विधायकों के इस्तीफे के बाद कुमारस्वामी सरकार का गिरना नहीं रुक सकता है. दो निर्दलीय विधायक भी अलग हो गए हैं. एक विधायक के वापसी की सूचना है लेकिन इससे भी फर्क नहीं पड़ता है. येदियुरप्पा ने कहा कि विश्वास मत एक दिन में पूरा होना चाहिए. कुमारस्वामी की सरकार अल्पमत में आ चुकी है. 224 सदस्यों कि विधानसभा में सरकार के पास 118 विधायक थे. बीजेपी के पास 107. अगर 15 विधायकों का इस्तीफा मंज़ूर हो गया तो सत्ता पक्ष की संख्या 101 हो जाएगी. सरकार अल्पमत में आ जाएगी. शिवकुमार आज भी विधायकों से इस्तीफा वापस लेने की अपील करते रहे. कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नाराज़गी जताई है. मुख्यमंत्री और सिद्धारमैया जो सीएलपी नेता है उन्होंने स्पीकर से मुलाकात की और कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने व्हि‍प के अधिकार पर अंकुश लगा दिया है. स्पीकर ने राज्य के महाधिवक्ता से कानूनी राय ली. बीजेपी के नेता राज्यपाल से मिले और इस मामले में हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई.

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को फैसला दिया था और फैसले को संविधान का संतुलन बताया था. हमारे एक पत्रकार मित्र ने कहा कि समय के साथ शब्द भी बदल गए हैं. पहले ऐसे विधायकों के साथ बिकाऊ विधायक लिखा जाता था, अब बागी विधायक लिखा जा रहा है. इस फैसले में बागी विधायकों को सदन से गैर हाज़िर रहने की इजाज़त दी गई थी यानी उन पर व्हि‍प लागू नहीं हो सकता था. दूसरा कहा कि वे स्पीकर को निर्देश नहीं दे सकते हैं. संविधान में व्हि‍प के बारे में नियम स्पष्ट हैं. नियम है या परंपरा है. व्हि‍प का उल्लंघन मतलब सदस्यता जा सकती है. लेकिन क्या यह हो सकता है कि कांग्रेस विधायक दल के नेता व्हि‍प ही जारी न करें और विश्वास मत हो जाए. यह कैसे हो सकता है कि बीजेपी व्हि‍प जारी करे और उसी सदन में कांग्रेस कुछ विधायकों पर व्हि‍प जारी नहीं कर सकते हैं. क्या यह भी कोई नियम है कि एक ही दिन में विश्वास मत की प्रक्रिया पूरी हो. क्या राज्यपाल स्पीकर से कह सकते हैं कि आप विश्वास मत कब तक पूरा करें और क्या विश्वास मत से पहले सदस्यों को अयोग्य ठहराया जा सकता है. 

ख़बर आ रही है कि कर्नाटक के राज्यपाल केंद्र को रिपोर्ट भेज सकते हैं. उन्होंने कहा है कि शुक्रवार को दोपहर डेढ़ बजे तक विश्वास मत की प्रक्रिया पूरी करें. क्या राज्यपाल इस तरह स्पीकर को आदेश दे सकते हैं, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि स्पीकर को आदेश नहीं दे सकते हैं. क्या केंद्र इस वक्त धारा 356 का इस्तमाल कर बर्खास्त कर सकती है. 1994 में धारा 356 के दुरुपयोग को लेकर ऐतिहासिक फैसला कर्नाटक की बोम्मई सरकार गिरा देने के संदर्भ में ही आया था. बोम्मई को विधानसभा में बहुमत साबित नहीं करने दिया गया था. उनकी सरकार 1989 में गिरी थी लेकिन फैसला आया 1994 में. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 356 का इस्तमाल अतिविशिष्ठ परिस्थिति में ही हो सकता है. राजनीतिक हित के लिए नहीं हो सकता है.

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में सरकार बर्खास्त करने का फैसला उलटा पड़ गया था. कोर्ट ने पलट दिया था. उत्तराखंड हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटा दिया था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने सही माना था. 29 अप्रैल 2016 को कोर्ट ने कहा था कि 10 मई को हरीश रावत विश्वास मत हासिल करें. लेकिन कांग्रेस के 9 विधायकों ने पाला बदला था. उनकी सदस्यता स्पीकर ने रद्द कर दी थी. ये विधायक फिर कोर्ट चले गए. 10 मई को विश्वास मत था लेकिन 9 मई 2016 को उत्तराखंड हाई कोर्ट ने स्पीकर के फैसले को सही माना था. विश्वास मत में ये 9 विधायक हिस्सा नहीं ले सके, उन्होंने अलग से वोट किया था. उनका वोट नहीं गिना गया था. हरीश रावत विश्वास मत जीत गए थे. इसके पहले उत्तराखंड हाई कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया था. उस समय यह बात आई थी कि राष्ट्रपति शासन हटाकर वहां बीजेपी की सरकार बनाई जा सकती है. कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटा दिया. केंद्र सरकार की आलोचना भी की थी. उस समय के चीफ जस्टिस के एम जोसेफ ने कहा था कि केंद्र सरकार को तटस्थ होना चाहिए लेकिन वह प्राइवेट पार्टी की तरह व्यवहार कर रही थी. सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के फैसले को सही माना था.

2016 में 26 जनवरी के दिन अरुणाचल की सरकार भंग की गई थी और वहां राष्ट्रपति शासन लागू हुआ था. संविधान लागू होने के दिन राष्ट्रपति शासन लगा था. यह फैसला भी सुप्रीम कोर्ट में पलट गया था. कर्नाटक में भी इस्तीफा देने वाले विधायकों की सदस्यता का सवाल उठ रहा है. क्या उनकी सदस्यता पर फैसला विश्वास मत से पहले नहीं आना चाहिए. उत्तराखंड हाई कोर्ट का फैसला नज़ीर बन सकता है. जस्टिस यू सी ध्यानी का फैसला है जिसमें उन्होंने बागी विधायकों की याचिका पर अपना मत दिया था. कोर्ट ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के आधार पर स्पीकर की कार्यवाही का अध्ययन किया है. अदालत मानती है दसवीं अनुसूची के पैराग्राफ 2(1)(a) के तत्व याचिकाकर्ता के खिलाफ जाते हैं. उनके व्यवहार से यह साबित होता है कि उन्होंने अपने राजनीतिक दल की सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ दी है. भले ही वे किसी दूसरे दल के सदस्य नहीं बने हैं.

9 मई 2016 का उत्तराखंड का एक फैसला काफी कुछ कहता है. यही कि कर्नाटक के स्पीकर विश्वासत मत से पहले इस्तीफा देने वाले विधायकों की सदस्यता रद्द कर सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने सदस्यता रद्द करने की कार्यवाही पर रोक नहीं लगाई है. कर्नाटक के मामले में मुंबई गए विधायक के व्यवहार से भी ऐसा ही लगता है कि वे अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ चुके हैं. वे अपनी पार्टी की बात नहीं मान रहे हैं. 10वीं अनुसूची का यह प्रावधान इसलिए बनाया गया था कि आप जिस पार्टी के टिकट पर चुने गए हैं उसके साथ धोखा न करें. राज्यपाल स्पीकर से नहीं कह सकते कि विश्वास मत की कार्यवाही पूरी करें. सदन में बीजेपी के विधायक जमे रहे. बीजेपी के विधायकों को उत्तराखंड हाईकोर्ट का आदेश पढ़ना चाहिए. उस आदेश को पढ़ने से लगेगा कि जो सदस्य कांग्रेस-जेडीएस के मुंबई में हैं, उनकी सदस्यता रद्द हो सकती है. स्पीकर चाहें तो यह फैसला ले सकते हैं क्योंकि इन 15 विधायकों का व्यवहार कुछ और कह रहा है. विधायकों को बताना चाहिए कि क्या किसी राजनीतिक दल के नेता से व्हि‍प जारी करने की शक्ति ली जा सकती है. क्या उनके दल के साथ ऐसा होता तो वे स्वीकार करते.

कर्नाटक के लेख देवानूर महादेव और स्वतंत्रता सेनानी एच एक दोरेस्वामी ने विधानसभा के अध्यक्ष को पत्र लिखा है. पत्र का विषय है जब विधायक अपनी आत्मा और हमारे वोट बेच रहे हों तो राज्य और राजनीति की गरिमा को बचाए रखने की ज़िम्मेदारी हमारी है. 'कर्नाटक की राजनीतिक गतिविधियां हैरान करने वाली हैं. एक पार्टी की ओर दल बदल हो रहा है. हम महसूस करते हैं कि सभी बड़े राजनीतिक दलों को इन दुर्भाग्यपूर्ण गतिविधियों की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए. हम जानते हैं कि हमारा संसदीय लोकतंत्र संपूर्ण नहीं है. लेकिन इसके लिए हमारे संविधान के निर्माताओं ने भविष्य की पीढ़ियों पर विश्वास किया था और उन्हें कुछ मौके दिए थे. अनैतिक दलबदल को रोकने के लिए 1985 में दल-बदल निरोधक क़ानून बना. 2003 में इसमें संवैधानिक संशोधन हुए.  लेकिन क़ानून को बाईपास कर और दल बदल क़ानून की भावना को तोड़ते हुए ये विधायक इस्तीफ़ा दे देते हैं और कहीं ज़्यादा ताक़त हासिल कर लेते हैं और फिर दूसरे दल से चुनाव लड़ते हैं. हमारे राज्य कर्नाटक ने नैतिकता का उल्लघन कर देश को ये नया शॉर्ट कट बताया था जिससे हमारा सिर शर्म से झुक गया है. आज फिर ऐसी ही स्थिति हमारे राज्य में आई है और तीनों ही बड़ी पार्टियों को इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए.

आज जो लोग दल बदल रहे हैं चाहे वो जिस दबाव में या लालच में या फिर किसी और वजह से ऐसा कर रहे हैं वो लोग अपनी आत्मा को बेच रहे हैं और उन वोटों को बेच रहे हैं जो मतदाताओं ने उन्हें दिए. ये सही है कि विधायकों को इस्तीफ़ा देने का हक़ है. लेकिन हमें इसे सिर्फ़ तकनीकी मुद्दे के तौर पर ही नहीं देखना चाहिए बल्कि हमें इसे जनता और राजनीति के कोड ऑफ़ कंडक्ट के तौर पर देखना चाहिए. इसमें कोई शक़ नहीं है कि पार्टी तोड़ी जा रही हैं. मतदाता अपना वोट सिर्फ़ उम्मीदवारों को नहीं देते बल्कि वो पार्टियों को भी वोट देते हैं. कई बार मतदाता उम्मीदवारों को पसंद नहीं करते लेकिन वो उसकी पार्टी को पसंद करने की वजह से वोट देते हैं. ये वोट पांच साल के लिए होता है. ये मतदाताओं की ज़िम्मेदारी है कि वो इसके लिए न्याय करें. मौत या बीमारी के अलावा इस्तीफ़ों की कोई और वजह बताना ग़ैर ज़िम्मेदारी है. अभी जो हो रहा है वो सिर्फ़ ग़ैर ज़िम्मेदारी नहीं बल्कि धोखा है. ऐसा क़ानून बनना चाहिए जो इस्तीफ़ा देने वाले विधायकों को चुनाव लड़ने से रोके और छह साल तक किसी पद के लिए अयोग्य घोषित कर दे.  ये आज़ादी क़ानून के तहत रहते हुए ही दल बदल क़ानून को उखाड़ फेंकने की साज़िश है. ये अपने ही घर को उजाड़ने जैसा है. स्पीकर को इसे पूरी गंभीरता से लेना चाहिए.'

असम की एक कंपनी है हिन्दुस्तान पेपर कारपोरेशन. इसके कर्मचारियों ने सीएजी को लिखा है कि कई हज़ार करोड़ का घोटाला हुआ है, इसकी जांच की जाए. हिन्दुस्तान पेपर कारपोरेशन की दो मिले हैं जो अक्तूबर 2015 और 17 के बीच बंद रहीं. कर्मचारियों का दावा है कि सैलरी और मुआवज़ा न मिलने के कारण 57 लोगों की मौत हुई और कुछ ने आत्महत्या कर ली. 30 महीने से इसके कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल रहा है. कर्मचारी कई बार पत्र लिख चुके हैं प्रधानमंत्री को और मंत्रियों को. प्रदर्शन भी कर चुके हैं. सारा मामला फिर से उभरा है क्योंकि 9 जुलाई 2019 को भारी उद्योग मंत्री अरविंद गणपत सांवत ने लोकसभा में लिखित जवाब दिया है. सवाल कांग्रेस के मनीष तिवारी ने किया था. जवाब में मंत्री ने कहा कि हिन्दुस्तान पेपर कारपोरेशन लिमिटेड को चार साल के अंदर कुल 4141 करोड़ दिए हैं. 2014-15 में 1141 करोड़, 2015-16-1000 करोड़, 2016-17 में 1000 करोड़, 2017-18 में 1000 करोड़.

हिन्दुस्तान पेपर मिल की कई मिलें हैं. मंत्री ने यह नहीं कहा कि असम की दो मिलों को 4141 करोड़ दिया गया है. सिर्फ यह कहा है कि हिन्दुस्तान पेपर मिल को 4141 करोड़ दिया गया है. कर्मचारी पूछ रहे हैं कि इतना पैसा दिया गया तो उनके वेतन का बकाया पैसा क्यों नहीं मिला. इन कर्मचारियों ने हमसे भी संपर्क किया था. इसी साल 17 अप्रैल के प्राइम टाइम में इनकी कहानी दिखाई थी. कछार पेपर प्रोजेक्ट वर्कर यूनियन ने सीएजी को पत्र लिखा है कि चार साल में 4141 करोड़ की रकम दी गई तो कहां गई. ये हाई लेवल के करप्शन का मामला है इसलिए जांच होनी चाहिए. भारी उद्योग मंत्री को इस बारे में और स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत है.

असम से एक और खबर है. बाढ़ के कारण लोगों के सामने एक और मुसीबत आ गई है. केंद्र और असम सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न्स (एनआरसी) की अंतिम सूची तैयार करने की डेडलाइन 31 जुलाई से आगे बढ़ा दी जाए. दूसरी तरफ बाढ़ में फंसे लोगों की चिन्ता है कि उनके सर्टिफिकेट खो न जाएं. एनआरसी खो जाने का खतरा उन्हें जान जोखिम में डालने के लिए मजबूर कर रहा है.

अब हम इतना आगे आ चुके हैं कि यह कहना बेमानी होता जा रहा है कि सोशल मीडिया और उसके वायरल तत्वों से सावधान रहेंगे. कब कोई वायरल वीडियो और फोटो सरकार या प्रशासन के लिए सर दर्द बन जाए पता नहीं. इतनी बार इसके झूठ का पर्दाफाश हुआ है फिर भी लोग इसकी चपेट में आ जाते हैं. चपेट में आने वाले सब हैं. बस इतना ख़्याल रखिए कि एक बार चेक कीजिए. इसके आधार पर अपने गुस्से को इतनी जल्दी सार्वजनिक न करें और न ही किसी भीड़ का हिस्सा बनें. पर्याप्त कानून हैं उसी का सहारा लीजिए. लेकिन ये गलती आप ही नहीं कर रहे हैं बल्कि सभी से हो रही है. इस ग़लती का फायदा उठाकर एक खेल भी हो रहा है. जानबूझ कर ऐसे वीडियो डाले जा रहे हैं जिससे आप भड़क जाएं. उग्र हो जाएं. इस संदर्भ में दो घटनाओं का ज़िक्र करना चाहता हूं. बिहार में एक तस्वीर खूब वायरल हुई है.

अर्जुन मुज़फ्फरपुर के शिवाईपट्टी थाना के शीतलपट्टी गांव का है. अर्जुन की तस्वीर के बहाने बिहार के बाढ़ की त्रासदी रेखांकित की जाने लगी. प्रशासन की उपेक्षा की बात होने लगी. वायरल करने वाले सीरीया के बच्चे अलान कुरदी से तुलना करने लगे जिसका पार्थिव शरीर टर्की के समंदर किनारे मिला था. तस्वीर वायरल करने वालों को पूरी रिपोर्ट से मतलब नहीं था. सिर्फ एक तस्वीर इस फोन से उस फोन से होते हुए लाखो लोगों तक पहुंच रही थी. मनीष कुमार ने जब पड़ताल की तो कई तरह की बातें सामने आने लगीं. यही कि रीना देवी बागमती नदी के तट पर नहाने गई थीं. एक बच्चा पानी में फिसल गया. उसे बचाने के लिए मां कूद पड़ी. मां को नदी में उतरते देख बाकी बच्चे भी पानी में उतर गए. तेज़ बहाव के कारण सभी डूबने लगे. स्थानीय लोगों की नज़र पड़ी और उन्होंने रीना देवी और उनकी एक बेटी राधा को बचा लिया। मगर अर्जुन, राजा और ज्योति को नहीं बचाया जा सका. घटना के बाद से रीना और उसके परिजन गहरे सदमे में हैं. प्रशासन का कहना है कि रीना देवी सच नहीं बता रही है. मंगलवार को पति के साथ विवाद होने पर बच्चों को पानी में फेंक दिया और गांव वालों ने बचाने की कोशिश की.

रीना देवी के खिलाफ एक प्राथमिकी भी दर्ज हुई है. कहने का मतलब यही है कि हम सिर्फ एक तस्वीर को लेकर फार्वड कर रहे हैं मगर इसके पीछे की सूचना से किसी को मतलब नहीं है. मीडिया का भी यही काम हो गया कि वह वायरल का सच पता करता रहे. इसलिए थोड़ा संभल कर और ठहर कर प्रतिक्रिया देने में बुराई नहीं है. बिना तथ्यों के इस तस्वीर को लेकर राजनीतिक दलों ने भी ट्वीट कर दिया. अभी भी आप अगर इस तस्वीर को फार्वर्ड कर रहे हैं तो प्लीज़ ज़रा जानकारी जुटा लें. वीडियो कुछ और होता है, आडियो कुछ और. हेराफेरी कर कुछ भी बनाया जा सकता है. मध्य प्रदेश के मंदसौर में ऐसा ही खेल खेला गया. खानपूरा इलाके में मदरसे के बच्चे अपने प्रिंसिपल के लिए ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे थे. उस वीडियो में पाकिस्तान ज़िंदाबाद का आडियो डाल दिया गया और वायरल होने लगा. खलिहर लोगों का समाज प्रतिक्रिया देने के लिए तुरंत राज़ी हो गया. ज़ाहिर है किसी को पसंद नहीं आएगा लेकिन झूठा वीडियो सच बनकर हवा में उड़ने लगा.

साबिर साहब ज़िंदाबाद के नारे लगाए गए थे. इन्हें बदल कर कथित तौर पर पाकिस्तान ज़िंदाबाद कर दिया गया. पुलिस ने वायरल करने वाले 30-35 लोगों को चिन्हित भी किया है. बच्चों ने नारे इसलिए लगाए थे कि उन्हें आशंका थी कि कहीं सचिव और अध्यक्ष के झगड़े में मदरसा बंद न हो जाए और प्रिंसिपल साबिर पानवाला चले न जाएं. लेकिन इसका इस्तमाल भाईचारे के खिलाफ किया गया. पश्चिम मध्यप्रदेश के कई इलाकों में पहुंच गया. राजस्थान तक भी इसके मिलने की सूचना है. ऐसे वीडियो का इतिहास रहा है. एक जगह खंडन होने के बाद वह पूरी तरह मिटता नहीं है. कुछ दिनों के बाद दूसरी जगहों पर वायरल होने लगता है. बेहतर यही है कि थोड़ा संयम रखें. आपको भड़काने के लिए ऐसे वीडियो का बना देना कोई बड़ी बात नहीं है.

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