17 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी ने मैं भी चौकीदार अभियान लॉन्च किया था. 17 मार्च से 19 अप्रैल के बीच उत्तर प्रदेश में 26,000 हैंडल ने खुद के नाम के आगे चौकीदार रख लिया. इन हैंडलों से साढ़े आठ लाख बार ट्वीट हुए. लेकिन जब डेटा की जांच की गई तो पता चला कि 26,000 में से मात्र 1300 हैंडल ने 70 प्रतिशत ट्वीट किए. यानी 463000 बार. हर हैंडल ने एक महीने में 356 ट्वीट किए. एक दिन में 11 से 12 ट्वीट का औसत आता है.
एक तो सबसे सक्रिय चौकीदार निकला जिसने अध्ययन के दौरान के समय में 9000 बार ट्वीट किया है. 70 प्रतिशत ट्वीट सिर्फ 10 प्रतिशत ही चौकीदार कर रहे हैं. 24,000 चौकीदार नाम बदल कर खुश हो गए. चुप रह गए.
इस अध्ययन से एक और बात सामने आई है. मतदान के दिन चौकीदार वाले हैंडल पर सक्रियता बढ़ जाती है. भाजपा शानदार मतों से जीत रही है जैसी बातें ज़्यादा लिखी होती हैं. ज़ाहिर है मतदान के दिन ट्विटर पर माहौल बनाया जाता है. एक तरह का यह प्रचार ही है. ज़रूर दूसरे दल भी करते हैं मगर प्रतिशत के मामले में वे अभी नगण्य के स्तर पर हैं. मतदान समाप्त होने के समय के साथ ट्विटर हैंडल पर सक्रियता भी ठंडी पड़ जाती है. इनका कंटेट बीजेपी की रणनीति के साथ बदलता रहता है.
अध्ययनकर्ता ने कहा है कि उसके लिए बताना मुमकिन नहीं है कि सक्रिय ट्विटर हैंडल वाकई जीवित शख्स के हैं या मशीनी हैंडल हैं जिन्हें हम बॉट्स कहते हैं. या फिर ये लोग आई टी सेल के सदस्य हैं. मगर यह ज़रूर दिखा कि सारे हैंडल का बर्ताव एक दूसर के जैसा है, जिससे पता चलता है कि सब कुछ संगठित तरीके से चलाया जा रहा है. anthro.ai वेबसाइट पर यह रिपोर्ट मिली जो ज़ोया वाही ने लिखी है.
इस वेबसाइट के परिचय में लिखा है कि इसमें गणित के विद्वान हैं, डेटा-वैज्ञानिक हैं, एंथ्रोपॉलजिस्ट हैं. इस तरह के लोग अब विश्लेषण कर रहे हैं. सोचिए पत्रकारिता कितनी बदल गई है. जानकारी और समझ को नए स्तर पर ले जाने के लिए किस क्षमता के लोगों की ज़रूरत है जो शायद पत्रकारों में नहीं होती है. वेबसाइट नई मालूम पड़ती है.
ख़ुद को समृद्ध करना है तो आप सूचनाओं के सोर्स खोजते रहिए. अलग-अलग वेबसाइट की सूची बनाइये. तभी आप तुलना भी कर पाएंगे कि आपने क्या जाना, जो जाना वो जानकारी थी या प्रोपेगैंडा या माहौल राग. न्यूज़ चैनलों पर कोई कंटेंट नहीं हैं. जो भी है वो भोंडा है या फिर प्रोपेगैंडा है. अपवाद पर न जाएं. कभी-कभार तो अच्छा हो ही जाएगा. इसलिए कहा कि न्यूज़ चैनल न देखें. उससे आपको सूचना नहीं मिलती है. चैनलों का तंत्र सुरक्षित क्षेत्र के विषयों पर डिबेट कर अपनी बहादुरी झाड़ लेता है. बहुत से बहुत स्टिंग कर एक दो दिन के लिए हंगामा कर लेगा. जिससे ख़ास कुछ नहीं होता है.
इसलिए आप या तो चैनल न ही देखें और अगर देखना चाहते हैं कि कटेंट का विश्लेषण करें. आपको देखने के बाद जानने को क्या मिला. क्या खोज कर लाई गई सूचना के आधार पर आपने रिपोर्ट देखी, क्या लोकेशन के बहाने काम का हाल देखा या स्टुडियो में बने स्थायी सेट के सामने बैठे लोगों की बहस में ही हिन्दुस्तान देखा. फार्मेट कंटेंट नहीं होता है. सूचनाविहीन संसार है न्यूज़ चैनलों का. आप टीवी के सामने बैठ कर क्या कर रहे हैं.
क्या किसी न्यूज़ चैनल पर आपने ऐसी रिपोर्ट देखी है कि सारे रिपोर्टर स्किल इंडिया सेंटरों की जांच कर रहे हैं. उनके फर्ज़ीवाड़े को सामने ला रहे हैं. इतनी हिम्मत नहीं है. इसलिए वे नेता का बयान ढूंढते हैं जिसकी कोई कमी नहीं है. उन बयानों पर हमला कर पत्रकार होने का दावा करते हैं. हां अगर विपक्ष का राज्य होगा तो यही न्यूज़ चैनल अपने संसाधनों का ठीक इसी तरह इस्तमाल करेंगे जो मोदी सरकार की योजनाओं का पता लगाने में नहीं कर पाते हैं. तभी कहता हूं और फिर कहता हूं या तो टीवी देखने का तरीका बदल लें, या टीवी देखना बंद कर दें. जय हिन्द.
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