रवीश कुमार का ब्लॉग : लोगों की आंखें अंधी, कान बहरे, मुंह से ज़ुबान ग़ायब है, चीन में सच बताने के लिए कोई बचा नहीं

मीडिया की स्वतंत्रता को कुचलने के कार्यक्रम आलीशान बनाए गए. सुंदर शामियाने लगाए गए. उस शामियाने में विपक्ष के नेता और दिल्ली मुंबई के विद्वान भी बिठाए गए. लेखक, जानकार, वरिष्ठ पत्रकार सबने उन बहसों में शिरकत कर पहले इसे वैधता प्रदान की. ऐसे कार्यक्रमों के नाम उन शब्दों से रखे गए जिनकी पहचान लोकतांत्रिक मूल्यों की अभिव्यक्ति के लिए की जाती है. बाद में इन अच्छे लोगों को हटा कर उसी मंच पर कब बदतमीज़ और पुरातनपंथी एक्सपर्ट और प्रवक्ता ले आए गए, पता ही नहीं चला.

रवीश कुमार का ब्लॉग : लोगों की आंखें अंधी, कान बहरे, मुंह से ज़ुबान ग़ायब है, चीन में सच बताने के लिए कोई बचा नहीं

फाइल फोटो

''उन्मुक्त आवाज़ की जगह सिमट गई है. आप स्वतंत्र पत्रकार हैं, कहना ख़तरनाक हो गया है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग के शासन में ऐसे पत्रकार ग़ायब हो गए हैं. सरकार ने दर्जनों पत्रकारों को प्रताड़ित किया है और जेल में बंद कर दिया है. समाचार संस्थाओं ने गहराई से की जाने वाली रिपोर्टिंग बंद कर दी है. चीन में शी जिनपिंग के साथ मज़बूत नेता का उफान फिर से आया है. इसका नतीजा यह हुआ है कि चीन के प्रेस में आलोचनात्मक रिपोर्टिंग बंद हो गई है. यह संपूर्ण सेंसरशिप का दौर है. हमारे जैसे पत्रकार करीब करीब विलुप्त हो गए हैं'. 43 साल की पत्रकार ज़ांग वेनमिन का यह बयान न्यूयार्क टाइम्स में छपा है.

ज़ांग चीन की साहसी खोजी पत्रकार मानी जाती थीं. देश भर में घूम-घूम कर पर्यावरण की बर्बादी, पुलिस की बर्बरता और अदालतों में बिना सबूत के सज़ा की ख़बरें इकट्ठा करती थीं. इन दिनों ज़ांग की जड़ें काट दी गई हैं. उन्हें चीन का कोई भी अख़बार या वेबसाइट नहीं छापता है. सरकार ने उनके सोशल मीडिया अकाउंट को बंद करा दिया है. ज़ांग लिखे तो कहां लिखें, सुनाएं तो किसी सुनाएं. उनके पास रोज़गार नहीं है. किसी तरह अपनी बचत के ज़रिए जी रही हैं. भ्रष्ट नेताओं पर रिपोर्ट बनाने के कारण साल भर के लिए जेल में बंद कर दिया.

सच बताने के लिए कोई बचा नहीं है. सरकार ने नागरिकों को अज्ञानी बना दिया है. उन्हें कुछ पता नहीं है. लोगों की आंखें अंधी हो गई हैं, उनके कान बहरे हो गए हैं और उनके मुंह में कोई शब्द नहीं हैं. आलोचना का अधिकार सिर्फ पार्टी के पास है. खोजी पत्रकारिता को सिस्टम की कमियों को ठीक करने के मौके के रूप में नहीं देखा जाता है. शी जिनपिंग की पार्टी-स्टेट समझती है कि इससे सामाजिक स्थिरता को ख़तरा है. कई बार तो पता ही नहीं चलता है कि सेंशरशिप कहां से आ रहा है.

गांव से शहरों में आए लोगों के विस्थापित जीवन पर फीचर स्टोरी करने वाली वेबसाइट Q Daily को कई बार बंद कर दिया गया. आरोप लगाया गया कि ओरिजिनल रिपोर्टिंग के ज़रिए जनमत को नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया गया है. जिन मुद्दों को पहले कवर किया जाता था उन्हें काफी सीमित कर दिया गया है. Q Daily की एडिटर-इन-चीफ यांग यिंग का कहना है कि “सरकारी हस्तक्षेप के कारण वेबसाइट का बिजनेस ठप्प हो गया है. वेबसाइट ने राजनीति और सेना के कवर किए जाने पर सरकारी कंट्रोल को मानने का भी प्रयास किया लेकिन पता नहीं कब किस बात से सरकार नाराज़ हो जाए. यहां मीडिया संस्थान चलाने में कोई सम्मान नहीं बचा है.“ चीन के बाहर ग़लत रिपोर्ट छापने के कारण पत्रकारों को निकाला जाता है, चीन के भीतर सही रिपोर्ट छापने के कारण नौकरी चली जाती है.

ज़ांग वेनमिन और यिंग यांग भारत की पत्रकार नहीं हैं. फिर भी इनकी बातें भारत पर भी लागू होती हैं. भारत में भी खोजी पत्रकारिता या फील्ड में जाकर मेहनत से खोज कर लाई गई रिपोर्टिंग बंद होती जा रही है. ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि कोई ख़बर सीधे सरकार से न भिड़ जाए. मुख्यधारा की ज़्यादातर मीडिया संस्थानों के यहां यही हो रहा है. कुछ छोटी संस्थाएं और कुछ जुनून पत्रकारों की वजह से ख़बरें यहां वहां से छलक कर आ जाती हैं लेकिन धीरे-धीरे अब वो भी कम होती जाएंगी.

वैसे तो बहुत देर हो चुकी है. आप सरकार के समर्थक हों या आलोचक, कोई फर्क नहीं पड़ता है. भारतीय रेल के कर्मचारियों ने कई जगहों पर हड़ताल की. आराम से कहा जा सकता है कि रेलवे के ये लाखों कर्मचारी 2019 के चुनाव में बीजेपी के साथ ही खड़े रहे होंगे. यही कर्मचारी उसी गोदी मीडिया के उपभोक्ता भी होंगे. जिनके ज़रिए उन्होंने अपने दिमाग़ में ख़ास छवि बनाई. आज जब उनका अस्तित्व दांव पर है, तो यही मीडिया उनके लिए नहीं आया. उनके आंदोलन को वैसा कवरेज़ नहीं मिला जैसा मिलना चाहिए था.

अब यही रेल कर्मचारी व्हाट्स एप में मेसेज फार्वर्ड कर रहे हैं कि मीडिया बिक गया है. उनके आंदोलन को नहीं दिखा रहा है. जब तक रेल कर्मचारियों के अस्तित्व पर संकट नहीं आया था, तब तक वे इसी मीडिया के समर्थक थे और उपभोक्ता थे. अपनी मेहनत की कमाई ख़र्च कर रहे थे. अब अचानक उन्हें मीडिया के बिके होने का ज्ञान प्राप्त हो रहा है.  यही हाल कई तबकों का है. यही हाल सबका होगा. लोगों ने समझना बंद कर दिया है कि सरकार को चुनना और मीडिया को चुनना एक ही बात नहीं है. मीडिया को जिस माहौल में ख़त्म किया गया, उस माहौल के समर्थक बने रहने वाले ये रेलवे कर्मचारी, अब किस मीडिया से उम्मीद कर रहे हैं. अगर उन्होंने इतना ही यकीन है कि मीडिया बिका हुआ है तो क्या उन्होंने उन अख़बारों को बंद किया जिनके कंटेंट को बिना सोचे समझे गटक रहे थे. हर महीने 300 से 500 रुपये ख़र्च कर रहे थे. क्या टीवी का रीचार्ज बंद कर दिया?

अगर आप मानते हैं कि मीडिया बिका है तो अपने आंदोलन में मीडिया की आज़ादी का भी मुद्दा शामिल कीजिए. अहिंसक और सकारात्मक दबाव के ज़रिए प्रेस के सवाल को उठाइये और राजनीतिक दबाव बनाइये. वर्ना जल्दी ही भारत के बारे में भी आप सुनेंगे. पत्रकारिता समाप्त हो गई है. पत्रकारिता में कोई सम्मान नहीं बचा है. जब सम्मान बिकने के बाद मिलने लगे तो फिर क्यों कोई जोखिम में डालकर पत्रकारिता करेगा? और इतने बड़े देश में पत्रकारिता जोखिम ही क्यों हो, ख़बरें लिखने पर रोक क्यों हों और लिख देने पर नौकरी क्यों जाएं.

आप ग़ौर करें. किस तरह टीवी चैनल भारत के लोकतंत्र की हत्या कर रहे हैं. अख़बार नींद की गोली खिलाते हैं और चैनल दर्शक और पाठक का गला रेंत देते हैं. आज आप मेरी इन बातों को खारिज करेंगे लेकिन याद करेंगे एक दिन. जब चित्तरंजन, पतरातू और कपूरथला के रेल कारखानों के बाहर आंदोलन कर रहे होंगे और कोई पत्रकार आपकी ख़बर के लिए नहीं आएंगे. तब एक बात और याद कीजिएगा. आप भी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं.

आप ही सोचिए. जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत के प्रधानमंत्री से मिलते हैं तो क्या हम इन सवालों को महत्व देते हैं, क्या सोचते हैं कि यह कैसा मंज़र है? हमारे लिए वह महानता और उपलब्धि के गौरवशाली क्षण होते हैं. आप इन क्षणों की तलाश में लगे रहिए. पतन के निशान आपके कदमों के नीचे गहरे होते जा रहे हैं. बस फ़िसल कर गिरने या धंस जाने पर मीडिया को दोष न दीजिए. आपको पता था कि यह बिका हुआ मीडिया है, फिर भी आप इस पर पैसे ख़र्च कर रहे थे. इस पर सवाल नहीं कर रहे थे. इसे लेकर सरकार से सवाल नहीं कर रहे थे.

16 विपक्षी दलों ने राज्य सभा में मीडिया की स्वतंत्रता पर बहस के लिए अर्ज़ी दी है. विपक्ष मीडिया को लेकर बहुत देर से जागा है. 16 दलों के नेता अपनी बहस के अगले दिन एक रिपोर्ट तैयार करें. उस बहस की ख़बर कितने अख़बारों में छपी, चैनलों में दिखाई गई. उस रिपोर्ट को राज्यसभा के सभापति के यहां जमा कर दें. विपक्ष के जागने से कुछ नहीं होने वाला है. अब जो होना है वह लंबे दौर के लिए हो चुका है. अब यहां से वापसी का रास्ता नहीं है. विपक्ष के नेताओ ने भी उन बहसों में जाकर उन कार्यक्रमों को मान्यता दी है जहां पत्रकारिता नहीं होती है. प्रोपेगैंडा होता है.

मीडिया की स्वतंत्रता को कुचलने के कार्यक्रम आलीशान बनाए गए. सुंदर शामियाने लगाए गए. उस शामियाने में विपक्ष के नेता और दिल्ली मुंबई के विद्वान भी बिठाए गए. लेखक, जानकार, वरिष्ठ पत्रकार सबने उन बहसों में शिरकत कर पहले इसे वैधता प्रदान की. ऐसे कार्यक्रमों के नाम उन शब्दों से रखे गए जिनकी पहचान लोकतांत्रिक मूल्यों की अभिव्यक्ति के लिए की जाती है. बाद में इन अच्छे लोगों को हटा कर उसी मंच पर कब बदतमीज़ और पुरातनपंथी एक्सपर्ट और प्रवक्ता ले आए गए, पता ही नहीं चला. आज भी अच्छे लोग टीवी चैनल में जा रहे हैं. उनकी शाम घर में नहीं कटती है. उनके जाने से प्रोपेगैंडा का वैधता मिलती ही जा रही है. दर्शक कभी नहीं समझ पाएगा कि जिस टीवी को देख रहा है वह टीवी उसके साथ क्या खेल रहा है.

मीडिया सिर्फ सरकार और कोरपोरेट की तरफ से ख़त्म नहीं होता है. समाज के सभी हिस्सेदारों की मदद से भी ख़त्म होता है.

(नोट- दोनों ही ख़बर इंडियन एक्सप्रेस से ली है जो रविवार के एक्सप्रेस में छपी है) 

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