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This Article is From Nov 03, 2017

जब दाल नहीं गली तो खिचड़ी बेचने लगे...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 03, 2017 01:05 am IST
    • Published On नवंबर 03, 2017 01:05 am IST
    • Last Updated On नवंबर 03, 2017 01:05 am IST
जब दाल नहीं गली तो खिचड़ी बेचने लगे. खिचड़ी बेरोज़गारों का व्यंजन पहले से है, नौकरी मिल नहीं रही है तो ज़ाहिर खिचड़ी ज़्यादा बन रही होगी. रोज़ कोसते हुए बेरोज़गार खा रहे होंगे तो बड़ी चालाकी से इसे राष्ट्रीय व्यंजन बनाने के मुद्दे से जोड़ा जा रहा है ताकि बेरोज़गार युवाओं को झांसा दिया जा सके कि उन्हें जो व्यंजन खाने लायक बना दिया गया है वो नेशनल इंपॉर्टेंस का है. राष्ट्रीय महत्व का, भले ही उनके रोज़गार का सवाल राष्ट्रीय महत्व का न रहे.

दही चूड़ा और सत्तू प्याज़ ग़रीबों का भोजन रहा है. जिसे देश की ग़रीबी का पता नहीं वही खिचड़ी की बात करता है. दाल का रेट बताओ, मटर और घी का बताओ. खिचड़ी गैस पर बनेगी या बीरबल के बाप के यहां बन कर आएगी. काम की बात पर बहस नहीं है, जिसे देखो यही सब फालतू टॉपिक पर शेयर कर, कमेंट कर दिन काट रहा है. यही सब बकवास टॉपिक ले आओ और एंकरों को भिड़ा दो.

नौजवानों, आपकी जवानी का सत्यानाश हो रहा है. समझो इस बात को. स्कूल से लेकर कॉलेज तक में पढ़ाई गई गुज़री है, फीस के नाम पर आप लुट रहे हैं. आपको अब खिचड़ी को नेशनल व्यंजन घोषित करवाने में लगाया जा रहा है. मुझे नहीं पता कि ये बात कहां से आई है, जहां से आई है, क्या वहां से रोज़गार की भी बात आई है?

खिचड़ी की बात कर बेरोज़गारों के भोजन का मज़ाक उड़ाया जा रहा है. जो लोग रोज़गार का सवाल उठा रहे हैं, उन्हें बताया जा रहा है, देखो जो बेरोज़गार खा रहे हैं, हम उसका मज़ाक उड़ा रहे हैं, फिर भी ये लोग हमारा गाना गा रहे हैं. लोग खिचड़ी खिचड़ी कर रहे हैं. रोज़गार रोज़गार नहीं गाएंगे. इतनी क्रूरता कहां से आती है भाइयों. जो खाना है, खाओ न. त्योहारी भोजन है खिचड़ी मगर ये दैनिक भोजन तो बेरोज़गारों का ही है न.

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