काम कम, फोटो ज़्यादा - कोरियोक्रेसी हो गई है डेमोक्रेसी

काम कम, फोटो ज़्यादा - कोरियोक्रेसी हो गई है डेमोक्रेसी

यह राजनीति का फोटोकाल है। नेता के लिए हर लम्हा एक फोटो है। नेताओं का फोटो प्रेम नया नहीं है। भारत का हर शहर नेताओं के फोटो से भरा है। पोस्टरों पर वे किसी देवदूत की तरह बधाई और संदेश देते नज़र आते हैं। इन पोस्टरों में भी बदलाव हो रहा है। पहले पासपोर्ट साइज़ फोटो को बड़ा कर लगा दिया जाता था, अब किसी को दुलारते, पुचकारते या पैदल मार्च करते हुए नेता की तस्वीर पोस्टरों का हिस्सा बनने लगी है।

2012 के साल के बाद से राजनीति में फोटो का इस्तेमाल बदल गया है। इतना बदल गया है कि अब फोटो के पार जाकर देख पाना मुश्किल होता जा रहा है।

ग़ौर से देखेंगे कि आपके राजनीतिक चिन्तन के स्पेस को फोटो से भर दिया गया है। सुबह सुबह ट्वीटर पर फोटो का आना चालू हो जाता है। किससे मिल रहे हैं, क्या पहन रहे हैं और किसे क्या दे रहे हैं। हर मुलाकात को एक फोटो में तब्दील कर उसे प्रपंच और प्रचार का हिस्सा बनाया जा रहा है। विरोधी के फोटो का मज़ाक उड़ाया जाता है और अपनी पार्टी के नेता के फोटो का प्रचार किया जाता है। उस मुलाकात में क्या हुआ, उसके बाद क्या नतीजा निकला इसकी जानकारी कम होती है लेकिन फोटो आ जाता है। मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। गांधी के इस कथन को आज बदल कर मेरा फोटो ही मेरा संदेश है कर दिया जाना चाहिए।

फोटो को लेकर राजनीतिक प्रतियोगिता चल पड़ी है। जब भी किसी नेता या ओहदेदार की छवि ख़राब होती है या वो विवादों में आता है, वो अगले ही दिन किसी फोटो स्पाट पर नज़र आ जाता है। ट्रेन में सफर करने लगता है तो किसी ग़रीब से मिलने लगता है। कोई किसी विजेती से मिलते ही ट्वीट करने लगता है तो कोई चादर चढ़ाने से पहले टाइमलाइन पर उसका फोटो चढ़ा देता है। कई बार लगता है कि नेता एक दिन सुरक्षाकर्मी छोड़ दो चार फोटो वाले को लेकर चलने लगेंगे। चल तो रहे हैं मगर फोटो ही अब लोकतांत्रिक राजनीतिक सुरक्षा का नया हथियार हो गया है। ट्रेन में बैठे हैं उसका फोटो, ट्रेन से उतर कर कहां जा रहे हैं उसका फोटो। सोशल मीडिया पर इस फोटो और उस फोटो में तुलना होती है। देखो वे खाली डिब्बे में अकेले जा रहे हैं, देखो ये भरी हुई बोगी में सबके साथ जा रहे हैं।

सूचनाएं कम हो रही हैं। सवालों के जवाब कम मिल रहे हैं। बस फोटो भेज दिये जाते हैं। काम हुआ इसका फोटो नहीं है मगर काम करते हुए दिखते रहने का फोटो है। आप सवाल कीजिए कि काम नहीं हो रहा है तो अगले दिन किसी जगह पर जाकर नेता जी फोटो खींचवा आते हैं। राजनीतिक व्यक्ति को ज़रूर प्रचार करना चाहिए और अपने काम के बारे में बताना चाहिए मगर कई बार लगता है कि यह अति हो रहा है। क्या ट्वीटर और फेसबुक पर हर दिन लाखों मिट्रिक फोटो कचरा पैदा किया जा रहा है। कोई छवि ज्यादा देर तक नहीं टिकती है। जब एक फोटो से आप आह्लादित होते हैं दूसरा फोटो आ जाता है कि अरे आप बेकार में खुश हो रहे थे। ये फोटो देखिये।
 
आप किसी भी सरकारी मुखिया या प्रवक्ताओं के ट्वीट देखिये। सूचना कम है, फोटो ज्यादा है। वायुसेना के जहाज़ से उतरते सामानों और लोगों की तस्वीरों की भरमार है। ऐसा लगता है कि ये सारे फोटो के लिए ही बिठा कर लाए जा रहे हैं। एक बार नहीं बार बार ऐसी तस्वीरें ट्वीट हो रही हैं। यमन से लेकर नेपाल तक के सराहनीय काम को फोटो-कर्म में बदल दिया है। ज़रूर इससे धारणा बदली है और देश का नाम भी होता है लेकिन क्या छवि ही इन प्रयासों की एकमात्र सूचना है। आप ऐसी कितनी तस्वीरें देख सकते हैं। ऐसा लगता है कि सारा आपरेशन विशालकाय जहाज़ों के भीतरी मैदानों में ही चल रहा है। आपदा या मदद के आपरेशन कितनी जानकारियों और सबक से भरे होते हैं मगर वो सब अब गायब है। गीतकार और लेखक नीलेश मिसरा की बात ठीक लगी कि गर्व होता है कि भारत पहल कर रहा है लेकिन पल-पल की तस्वीरों का प्रदर्शन कुछ खटक रहा है।

मदद की अपनी एक गरिमा होती है लेकिन प्रचार की भी एक सीमा होनी चाहिए। सेवा हमारा धर्म है तो यह भी भारतीय दर्शन है कि किसी की मदद करो या किसी को कुछ दो तो हर किसी से मत कहो। सरकार या राजनीतिक दल को एक संतुलन कायम करना चाहिए। निस्वार्थ सेवा को प्रचार सेवा में नहीं बदला जाना चाहिए। कई राज्य सरकारों ने भी इन मौकों को फोटो योग्य सराहनीय कार्य में बदलने का प्रयास किया है। जब केंद्र सरकार कर ही रही है तो अलग अलग राज्य सरकारें क्यों कूद रही हैं। नेपाल से कई लोग बता रहे हैं कि यहां मदद के नाम आ रहे हैं। फोटो खींचा कर चले जा रहे हैं। यही हाल स्वंयसेवी संस्थाओं का भी हो गया है।

हर मदद को एक संख्या में बदला जा रहा है और एक एक संख्या को जोड़ कर हज़ार तक पहुंचाया जा रहा है। संख्या इस फोटो युद्ध में एक नया हथियार है। हर नेता के पास सेल्फी और फोटो के लिए वक्त है। आम आदमी से पूछो तो रोता मिलेगा कि फलाने नेता को ई-मेल भी किया, घर भी गए पर मुलाकात नहीं हुई। काम तो नहीं हुआ पर मुलाकात की फोटो ट्वीट हो गई।

ऐसी ही होड़ विपक्ष में हो गई है। एक फार्मूला सा बन गया है कि एक अच्छा फोटो किसी को अच्छा नेता बना सकता है। वैचारिक विमर्श कम पैदा किए जा रहे हैं। फोटो संघर्ष ज्यादा हो रहा है। राहुल गांधी यात्रा पर हैं। एक तरह से फोटो-यात्रा पर हैं। हर पल की तस्वीर है। सत्ता पक्ष फोटो-पक्ष हो गई है तो विरोधी भी फोटो-पक्ष हो गया है। फोटो का जवाब फोटो है। जहाज़ से लेकर ट्रेन में बच्चों के साथ नज़र आ रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे प्रधानमंत्री रुक कर सेल्फी खींचाने लगते हैं या खींचने लगते हैं। आम आदमी पार्टी की छवि पर सवाल उठते हैं तो अचानक अगले दिन से नए नए तरह के जनसंपर्क के फोटो आने लगते हैं। यही काम सरकार और विरोधी भी कर रहे हैं। मंत्री जी फलाने मोहल्ले में लोगों की बातें सुनते हुए इस तरह के शीर्षक के साथ फोटो ट्वीट होता है। समस्या क्या थी और समाधान हुआ या नहीं या कौन सी नई बात थी जिससे जानने के लिए दफ्तर छोड़कर उन्हें जाना पड़ा यह सब हमारी जानकारी का हिस्सा नहीं है। बस एक फोटो है।

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डेमोक्रेसी को कोरियोक्रेसी में बदल दिया गया है। हर चीज़ क्रोरियोग्राफ्ड है। इसीलिए कहता हूं कि ये डेमोक्रेसी नहीं है। अब ये कोरियोक्रेसी हो गई है। लोकतंत्र को किसी स्टेडियम में सजा दिया गया है। नेता के आने से पहले कई दिनों की तैयारी चलती है। थीम डिज़ाइन होते हैं और उसका टीवी से प्रसारण होता है। एक दम डांस इंडिया डांस की तरह। हर पल की तस्वीर ली जाती है और ट्वीट किया जाता है। पार्टी से लेकर व्यक्तिगत नेताओं ने अब अपने यहां ऐसी टीम बनानी शुरू कर दी है जो उनके हर काम को फोटो में बदल दे। नेताओं के यहां बनाई जा रही सोशल मीडिया की टीमें अब वो काम कर रही हैं जो शादी ब्याह या साल के आखिरी दिनों में ईवेंट तैयार करने वाली कंपनियां करती हैं। पदयात्रा हो या स्टेडियम में लोगों का संबोधन सब इस तरह से सजाया जा रहा है ताकि इसका हर फ्रेम एक नया फोटो दे जाए। स्वागत है आपका कोरियोक्रेसी में। हम सब सेल्फी जागरूक नागरिक बन रहे हैं।