पीएम केयर फंड के तहत खरीदे वेंटिलेटर कितने काम आ पाए?

आखिर हज़ारों करोड़ रुपये से खरीदे गए इन वेंटिलेटर की दूसरी लहर में क्या भूमिका रही, इसका मूल्यांकन क्या दस साल बाद होगा?

पीएम केयर के तहत सप्लाई किए गए वेंटिलेटर की खराब गुणवत्ता को लेकर एक साल से मीडिया में विस्तार से ख़बरें छप रही हैं. कभी मामूली खराबी तो कभी रखरखाव में कमी का बहाना बना कर इस मसले की सच्चाई छलकती रहती है. आखिर हज़ारों करोड़ रुपये से खरीदे गए इन वेंटिलेटर की दूसरी लहर में क्या भूमिका रही, जब नहीं चली तब और जब चल रही थीं तब. इसका मूल्यांकन क्या दस साल बाद होगा? 15 मई को सरकार एक बयान जारी करती है कि “प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने एक उच्च स्तरीय बैठक में कुछ राज्यों में वेंटिलेटर के स्टोरजे में पड़े होने की कुछ रिपोर्टों को गंभीरता से लिया और निर्देश दिया कि केंद्र सरकार द्वारा दिए गए वेंटिलेटर के उपयोग और संचालन का तत्काल ऑडिट किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि जरूरी हो तो स्वास्थ्य कर्मियों को वेंटिलेटर के ठीक से संचालन के लिए रिफ्रेशर ट्रेनिंग प्रदान की जानी चाहिए.” इसमें यह नहीं लिखा है कि वेंटिलेटर घटिया है जिसकी शिकायत कई डाक्टरों ने की है तो उसकी जांच होनी चाहिए कि पीएम केयर फंड से घटिया वेंटिलेटर की सप्लाई कैसे हो गई.

हमारे सहयोगी हरबंस ने ऐसी ही एक ऑडिट झारखंड से की है. झारखंड को केंद्र से 1250 वेंटिलेटर मिले हैं. जिनमें से अधिकांश कोविड के इलाज में सक्षम नहीं हैं. मरीज़ की ज़रूरत इस मशीन से पूरी नहीं होती है. जब इसका इस्तमाल आईसीयू में होता है तो कई तरह की दिक्कतें आती हैं. रांची के सबसे बड़े सरकारी हॉस्पिटल रिम्स में हरबंस ने देखा कि पीएम केयर्स फंड से मिले अधिकांश वेंटिलेटर को स्टोर में रख दिया गया है. हॉस्पिटल के अंदर क्रिटिकल केयर के कुछ विशषज्ञों से मिला, उन्होंने कैमरे पर बोलने से मना कर दिया लेकिन कैमरा बंद होने पर बताया कि कोरोना के गंभीर संक्रमितों में हमेशा इंवेज़िव व नॉन इंवेज़िव युक्त वेंटिलेटर की जरूरत होती है, लेकिन कई कंपनियों ने सामान्य वेंटिलेटर की सप्लाई कर दी है. उनका कहना है कि इस वेंटिलेटर से सिर्फ ऑक्सीजन की आपूर्ति की जा सकती है. वेंटिलेटर में मरीजों को लंबे समय तक रखा जाता है, इसलिए ऐसे मशीन को एक सप्ताह तक चला कर छोड़ा जाता है. यह देखा जाता है कि मशीन बीच में तो काम करना बंद तो नहीं कर रही है. इन सभी प्रक्रिया के पूरा होने के बाद ही कंपनी को अस्पताल द्वारा एनओसी दिया जाता है. जबकि पीएम केयर से राज्य में दिये गये वेंटिलेटर के बारे में ऐसा कुछ नहीं हुआ. मशीन देने के बाद कंपनी के प्रतिनिधि पूछने तक नहीं आये.

राज्य के स्वास्थ्य मंत्री का भी कहना है कि सरकार तो चलाना चाहती है लेकिन मशीन ही लायक नहीं है इसलिए इन्हें खोलकर वापस डब्बे में डाल दिया गया. वेंटिलेटर किसी काम के नहीं हैं. 

बिहार के सुपौल से हमारे सहयोगी पंकज भारतीय ने रिपोर्ट भेजी है. पंकज के अनुसार पिछले साल जून में ही पीएम केयर्स के तहत छह वेंटिलेटर आए थे. जिनका इस्तमाल नहीं हो सकता. पता चला कि वेंटिलेटर की सप्लाई करने वाली कंपनी ने कुछ ज़रूरी पार्ट्स अभी तक नहीं दिए हैं.

पंकज ने सदर अस्पताल में देखा कि वेंटिलेटर धूल खा रहे हैं. चलाने वाले स्टाफ नहीं हैं. लोगों के मरने और हाहाकार मचने के बाद 15 मई को स्वास्थ्य विभाग जागता है. आदेश होता है कि एक डॉक्टर, चार तकनीशियन और आठ वार्ड बॉय को रखा जाएगा लेकिन 21 मई तक डॉक्टर यहां काम पर नहीं आए. वेंटिलेटर शुरू नहीं हो सका. सदर अस्पताल के उपाधीक्षक डॉ अरुण कुमार वर्मा कहते हैं कि डॉक्टर से बात हुई है, शीघ्र योगदान करेंगे और सेक्शन मशीन का जार के लिए स्टाफ को पटना भेजा गया है. जब तक प्रधानमंत्री को आडिट रिपोर्ट पहुंचेगी, ऐसे मामलों की लीपापोती हो चुकी होगी. अस्पताल प्रशासन को वेंटिलेटर के लिए आवश्यक ऑक्सीजन की भी चिंता है. 15 दिन पहले ही आक्सीजन प्लांट का सर्वे हुआ है.

शुक्रवार को पंकज भारतीय ने यह रिपोर्ट भेजी थी. हमें लगा था कि इस बीच चालू हो गया होगा लेकिन सोमवार सुबह जब पंकज ने पता किया तो स्थिति जस की तस थी. वेंटिलेटर के संचालन के लिए जिस एनेस्थेसिसट डॉ अमित कुमार को प्रतिनियुक्त किया गया था उन्हेोंने लिखित तौर पर ज्वाइन करने से इंकार कर दिया है. वेंटिलेटर का जार आ गया है लेकिन चलाने वाला नहीं है. जो मरीज़ यहां आता है उसे वहां भेजने का सिलसिला जारी है जहां यही समस्या उसका इंतज़ार कर रही है. 

यह समस्या केवल बिहार या झारखंड की नहीं है. पीएम केयर के वेंटिलेटर के खराब होने की खबरें तो पिछले साल से छप रही हैं. ऑडिट होने की बात अब की गई है जब लोग मरे हैं. मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात हर जगह से तमाम रिपोर्ट छप चुकी हैं, हमारे कई सहयोगियों ने भी की हैं लेकिन इसके घटिया निकलने पर कोई हलचल नहीं है. क्या इसलिए कि पीएम केयर से मिला है.

20 मई की दिव्य भास्कर और दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट तो प्रधानमंत्री के ऑडिट वाले आदेश के बाद छपी है. इस रिपोर्ट में सुनील सिंह बघेल ने बताया है कि केंद्र ने राज्यों को जो वेंटिलेटर दिया है वो हांफ गए हैं. कहीं पर वोल्टेज कम हो जाता है तो कहीं पर ऑक्सीजन का प्रेशर कम हो जाता है. यही नहीं, कहीं कहीं पर 5 रू. के fuse की वजह से PM Cares वाले वेंटिलेटर ठप्प हैं. पांच रुपये के फ्यूज़ की वजह से. जिन कंपनियों ने वेटिलेटर की सप्लाई की है वो software अपडेट करने, रखरखाव और अतिरिक्त कल पुर्ज़े पहुंचाने में देरी कर रही हैं. 23 मई के इंडियन एक्सप्रेस की खबर देखिए. केंद्र ने पीएम केयर फंड के तहत राज्य को 592 वेंटिलेटर दिए जिनका इस्तमाल नहीं हो सकता. इन वेंटिलेटर को लेकर राज्य सरकार ने भारत इलेक्ट्रिकल लिमिटेड को 571 शिकायतें भेजी हैं. केवल 180 का समाधान हुआ है. 366 मशीनों में आक्सीजन कम हो जाने, कंप्रेसर फेल हो जाने की शिकायतें आई हैं. किसी का पार्ट गायब था तो किसी को कंपनी की तरफ से लगाया नहीं गया था.

ऐसा क्यों है कि राजस्थान और झारखंड के स्वास्थ्य मंत्री इन वेंटिलेटर को लेकर बोलते हैं जहां विपक्ष की सरकार है और बिहार के स्वास्थ्य मंत्री वेंटिलेटर की तरफदारी करते हैं. कोई कमी नहीं दिखती है. जान तो आपकी है. क्या वो भी कांग्रेस और बीजेपी के अनुसार हो गई है. वेंटिलेटर को लेकर डॉ हर्षवर्धन ने अखबारों में छपी कुछ खबरों को ट्वीट किया है. जिन अखबारों में वेंटिलेटर को लेकर सवाल पूछे गए हैं उन्हें नहीं, बल्कि उन खबरों को किया है जो पीएम केयर्स की वाहवाही करती हैं. 22 मई को स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन Times news network, Republic world, Economic times की खबरों को ट्वीट करते हैं. एक खबर में बताया है कि पीएम केयर्स फंड से वेंटिलेटर का उत्पादन तीन गुना हो गया है. दूसरी खबर में बताया गया है कि केंद्र ने वेंटिलेटर को सपोर्ट न मिलने के कारण राज्यों की खिंचाई की है. केंद्र की टीम ने वहां जा कर उन पार्ट्स को बदला उसके बाद वेंटिलेटर चलने लगा. खुद ही बता रहे हैं कि नए वेंटिलेटर की क्या हालत है. पार्ट्स की कमी से नहीं चल रहे थे.

और सवाल इसका है ही नहीं कि वेंटिलेटर का उत्पादन कितना गुना हुआ, सवाल है कि उसकी गुणवत्ता कैसी है? 15 मई को पीएमओ आडिट की बात करता है और 22 मई को हर्षवर्धन खुद को पसंद आने वाली खबरों की कतरन को ट्वीट करते हुए ऑडिट शब्द का इस्तमाल करते हैं. क्या अखबार की कतरन ऑडिट है? 11 अप्रैल को स्वास्थ्य मंत्रालय सात राज्यों को पत्र लिखता है जहां वेंटिलेटर का इस्तमाल नहीं हो रहा है. लेकिन वेंटिलेटर के इस्तमाल न होने की खबर तो अभी तक आ रही है. 24 मई तक.

इस ट्वीट में डॉ हर्षवर्धन कहते हैं कि उपकरणों की ऑडिट ने कांग्रेस की वेंटिलेटर वाली साज़िश की थ्योरी का पर्दाफाश कर दिया है. एक और ट्वीट में हर्षवर्धन कहते हैं कि #ICU में मृत्यु शैय्या पर लेटी @INCIndia को चाहिए कि एक बार अपने झोला छाप युवराज द्वारा फ़ैलाए भ्रम से बाहर निकल कर #PMCaresFund से मिले #ventilators पर भरोसा करें. जिससे लाखों जानें बच रही हैं, उन पर भरोसा न करना अनैतिक है. आईसीयू में मरीज़ लेटा है, जिसे आक्सीजन नहीं मिल रहा था. कांग्रेस नहीं लेटी थी.

पीएम केयर्स के वेंटिलेटर पर उठ रहे सवाल को लेकर आहत होने की ज़रूरत नहीं है कि यह पीम केयर्स का है. सवाल इसलिए उठना चाहिए कि खराब वेंटिलेटर जानलेवा हो सकता है. वैसे इन सवालों का जवाब तो आने से रहा. बदले में व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में कोई मैसेज आ जाएगा कि कुछ हुआ ही नहीं. इस व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी ने अपने एक छात्र को फेल कर दिया. इस यूनिवर्सिटी पर भरोसा करने के कारण ही रामदेव को अपने बयान से वापस लेना पड़ा. जबकि एक दिन पहले कहा था कि उन्होंने ऐसा बयान नहीं दिया. क्या रामदेव वाकई व्हाट्सऐप फार्वर्ड के आधार पर बयान दे रहे थे? हम नहीं जानते कि मैसेज किसका था, कहीं आईटी सेल का तो नहीं था?

9 मई को ऋषिेकेश एम्स की इमारत में रामदेव प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे. वहां पर एक मैसेज पढ़ते हैं और बताते हैं कि व्हाट्सऐप फार्वर्ड है जिसमें लिखा है कि एलोपैथी स्टुपि़ड और दिवालिया साइंस है. लेकिन मैसेज पढ़ने के बाद रामदेव कहते हैं कि जितने लोगों की मौत हास्पिटल ना जाने से हुई, आक्सीजन न मिलने के कारण से हुई, उससे ज़्यादा की मौत आक्सीजन के बावजूद हुई और एलोपैथी दवाओं के बावजूद हुई. इस बयान को लेकर FIMA ने FIR कर दिया और IMA ने भी कड़ी निंदा कर दी.

इसे सिर्फ एक बयान की तरह नहीं देखा जाना चाहिए, जिस लेकर रामदेव ने माफी मांग ली है. आईटी सेल परेशान है कि लाशों के ढेर देख रही जनता को कैसे बरगलाया जाए. किस तरह के बहाने बनाए जाएं जिससे सरकार को जवाबदेही से बचाया जा सके. रामदेव एलोपैथी को लाखों लोगों की मौत का ज़िम्मेदार तो बताते हैं लेकिन एक बार भी मोदी सरकार की नीति की नाकामी नहीं कहते. व्हाट्सएप के फार्वर्ड मैसेज की डिज़ाइन पोलिटिकल है और सरकार को जवाबदेही से मुक्त करने की है. इसलिए रामदेव के माफीनामे से बात खत्म नहीं हो जाती है.

हुकमत के हमराहियों को पता है कि समाज ने देखा है कि लाखों मरे हैं, मगर बताया गया हज़ारों में. उनके इस गुस्से पर पानी डालने के लिए तरह तरह के तर्क गढ़े जा रहे हैं. दूसरी लहर नहीं आई थी तब इन्हीं रामदेव की तथाकथित दवा कोरोनिल के लांच के समय परिवहन मंत्री और नितिन गडकरी गए थे. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने तो स्वास्थ्य मंत्री से कोरोनिल के लांच में जाने और कोरोनिल की विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठाया था. कोई एक्शन नहीं हुआ. विवादित आंकड़ा ही सही 12 दिनों में पचास हज़ार की आधिकारिक संख्या ने बहुत कुछ बदला है वर्ना रामदेव की तथाकथित दवा कोरोनिल का लांच करने वाले डॉ हर्षवर्धन ने रामदेव को पत्र नहीं लिखा होता और रामदेव भी माफी नहीं मांगते. तथाकथित दवा इसलिए कह रहा हूं कि मोदी सरकार के दो दो मंत्रियों के लांच करने के बाद भी मोदी सरकार ने इस दवा में भरोसा नहीं जताया है और ICMR ने अपनी गाइडलाइन में इसका ज़िक्र नहीं किया है. जिस तरह रेमडिसिवर और प्लाज़मा को लेकर बहुत महीनों बाद ICMR ने कहा कि ये उपयोगी नहीं है. जितने आत्मविश्वास से रामदेव एलोपैथी को स्टुपिड कह देते हैं शायद उतना आत्मविश्वास ICMR में नहीं है कि कह दे कि कोरोनिल का सेवन न करें या यही कह दे कि कोरोनिल का सेवन करें.

ऐसा नहीं है कि एलोपैथी पर सवाल नहीं उठाए जा सकते लेकिन उसका एक तरीका तय है. मेडिकल जर्नल में हर दिन एलोपैथी के दावे को लेकर बहस चलती रहती है. रामदेव को एलोपैथी के बजाए अस्पतालों के भीतर की कुव्यवस्था की बात करनी चाहिए. बताना चाहिए कि ये अस्पताल के नाम पर अस्पताल नहीं हैं. इनके पास डाक्टर नहीं हैं. आक्सीजन नहीं है. वेंटिलेटर नहीं हैं. उसके लिए कौन ज़िम्मेदार है नाम लेकर बात करना चाहिए. 

सूरत के भाजपा विधायक वी डी झालावडीया कोविड कम्युनिटी वार्ड में जाकर रेमडिसिवर का डोज़ निकालते हैं और ड्रि‍प में इंजेक्शन देते हैं. वी डी झालावडीया डॉक्टर, कंपाउंडर और नर्स नहीं हैं. कांग्रेस के प्रवक्ता जयराज सिंह परमार ने कहा है कि राज्य के स्वास्थ्य मंत्री नितिन पटेल को पांचवी कक्षा पास झालावडीया से प्रेरणा लें एक ट्रेनिंग सेंटर खोल लें जहां भाजपा के कार्यकर्ता और विधायकों को इंजेक्शन देने की ट्रेनिंग दी जाए. अखबारों में झालावडीया का बयान छपा है कि अगर कुछ गलती हुई है तो माफी मांगता हूं. मैं तो सिर्फ लोगों की सेवा कर रहा हूं. लाखों लोगों की मौत पर रोने से लेकर इंजेक्शन देने का यह तमाशा अगर विश्व गुरु भारत के प्रांगण में नहीं होगा तो कहां होगा वत्स. कुर्सी पर कलाकार बैठ गए हैं और कलाकारों को बैठने के लिए कुर्सी तक नहीं है.

मैं सोच रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखूं कि रामदेव को अपना वैज्ञानिक सलाहकार बना लें लेकिन अब लग रहा है कि विधायक वी डी झालावडीया के लिए पत्र लिखना पड़ेगा कि कम से कम इन्हें हेल्थ मिनिस्टर तो बना ही दें. कोरोना ने जब दस्तक दी थी तब यह बात ज़ोर शोर से कही गई थी कि इससे लड़ने का एक ही हथियार है विज्ञान. विज्ञान का मतलब तर्क और तथ्य. पिछले एक साल में हमने थाली बजाने से लेकर दीया जलाने में जो मेहनत की है उसी का परिणाम है यह वीडियो जो आगरा से आया है. 

विनोद शर्मा ने पीपल पर ही खाट डाल ली है. हवा बहुत शानदार है और आनंद के क्या कहने. अगर मस्ती के लिए कोई बैठा है तो अच्छी बात है. लेकिन दावा किया जा रहा है कि ऑक्सीजन लेवल बढ़ाने के लिए यहां बैठे हैं, यह गंभीर बात है. विनोद शर्मा ने कम से कम सामाजिक दूरी का तो पालन किया ही है लेकिन उसी सोच के नीचे बैठे लोग यहां योग करने का भ्रम पाल रहे हैं. अगल बगल बैठे हैं और मास्क नाक से नीचे हैं. यह प्रयोगशाला आगरा के ब्लाक बरौली अहीर मे खुली है. किसने कहा है कि कोरोना के मरीज़ का आक्सीजन लेवल कम होता है तो पीपल के पेड़ के नीचे बैठने से आक्सीजन बढ़ जाता है. फिर भारत महान ऑक्सीजन सिलेंडर क्यों खोज रहा था, पीपल के पेड़ क्यों नहीं खोज रहा था? ऐसा करने वाले अपनी जान खतरे में डालेंगे. कोरोना से लड़ने के नाम पर थाली बजाने और दीया जलाने वाला समाज अब भी चाहे तो बैक डेट से शर्म कर सकता है.

हमने पिछले एक साल में वैज्ञानिक सोच के नाम पर यही हासिल किया है. परंपरा की आड़ में मूर्खता को आगे कर दिया ताकि बहस अपमान को लेकर हो, अस्पताल को लेकर नहीं. पिछले साल जब थाली बजाने की अपील हुई तो आलोचना डरी सहमी थी. पत्रकार तारीफ कर रहे थे कि प्रधानमंत्री का जनता पर कितना प्रभाव है. असल में वे इस फैसले की आलोचना से खुद को बचा रहे थे. पर्यावरणविद दुनू रॉय ने प्रो दिनेश मोहन के बारे में लिखते हुए एक प्रसंग का ज़िक्र किया है वो मैं थाली बजाने वाले इस मुल्क में पढ़ना चाहता हूं. 1980 में वैज्ञानिक चेतना को लेकर भारत के वैज्ञानिकों ने एक बयान जारी किया था. इस बयान में लिखा है कि जब सामाजिक ढांचा और वर्गीकरण तार्किक और वैज्ञानिक तरीके से सिद्ध किए गए समाधानों को लागू करने में रुकावट पैदा करे तो वैज्ञानिक चेतना की यही भूमिका होनी चाहिए कि वह ऐसी सामाजिक रुकावटों की बुनावट की परतों को खोल कर सबके सामने रख दे और बताए कि यह रुकावट क्यों तर्क आधारित नहीं है.

लेकिन हम सामाजिक रुकावटों, अंधविश्वास के आगे परंपरा के नाम पर इस तरह से चुप हो गए कि कहीं थाली बजाने और दीया जलाने पर सवाल उठाने का मतलब भारतीयता और पंरपरा का अपमान न समझ लिया जाए. इटली में लोग बालकनी पर खड़े होकर नर्स डाक्टर के लिए ताली बजा रहे थे, हमने थाली बजाकर डाक्टर और नर्स को बीच राह में छोड़ दिया. डाक्टर अपनी तनख्वाह के लिए आंदोलन पर उतर आए. वैसे तालाबंदी के दौरान ब्राजील के राष्ट्रपति बोलसोनारो के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए लोगों ने अपनी बालकनी में खड़े होकर थाली बर्तन बजाए थे.

याद तो होगा ही कैसे ध्वनि प्रदूषण की परवाह किए बिना अस्पतालों के बाहर सेना के बैंड को भेज दिया गया. अस्पताल के बाहर बैंड बजाने का आइडिया क्या वैज्ञानिक था? लेकिन सरकार की तारीफ हो रही थी, मोटी मोटी हेडलाइनें इतरा रही थीं, अस्पतालों के ऊपर वायु सेना के हेलिकाप्टर से फूल बरसाए जा रहे थे. जबकि कैमरा घूमना चाहिए था कि अस्पतालो के भीतर और सबको बोलने की आज़ादी होनी चाहिए थी कि यहां क्या है, क्या होना चाहिए. बाहर बैंड बजता रह गया और आप भूल गए कि अस्पताल में आक्सीजन नहीं है, वेंटिलेटर नहीं है.

पिछले साल ही बहस होनी चाहिए थी कि अगर मार्च 2020 में स्पेन सारे प्राइवेट अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण कर सकता है, वहां जनता के लिए इलाज को फ्री कर सकता है तो भारत क्यों नहीं कर सकता है? भारत में न सरकारी अस्पतालों को लेकर बहस हुई और न प्राइवेट अस्पताल को लेकर जिनमें से अधिकांश दुकान ही हैं, अस्पताल नहीं. जहां लोग कैसे कैसे मरे और मारे गए हैं आप जानते हैं मगर बहस के केंद्र में नहीं है. गोदी मीडिया ने पूरा साल तबलीग जमात, सुशांत सिंह की मौत के फर्ज़ी कवरेज में निकाल दिया और आपको बहला दिया. इस बार भी वही हो रहा है. कोविड का कवरेज पीछे जाने लगा है. बिहार मधुबनी के सकरी से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की एक तस्वीर आई है. यह तस्वीर ग्लोबल इंडियन के लिए नहीं है. केवल आंतरिक भारतीयों के लिए है ताकि बदनामी न हो. टूल -किट पर फिर से बहस हो रही है लेकिन कोई देखने वाला नहीं कि अस्पतालों में इलाज के टूल किट ही नहीं हैं.

कागज़ पर मौजूद इस अस्पताल का वजूद आप देख सकते हैं. यह तस्वीर आपसे सवाल पूछ रही है कि आप सरकार से सवाल पूछें जो आपसे कहती है कि हमे मिलकर कोरोना को हराना है. लेकिन यहां तो मिलिभगत के कारण आप और हम कोरोना की जंग हार रहे हैं. आपके परिवारों और परिचितों में इतने लोग मर गए. ये तस्वीरें बता रही हैं कि मिलीभगत वाले आपसे मिलकर लड़ने के नाम पर आपको ही मिट्टी में मिला रहे हैं. Do you get my point?

फैसला आपको करना है. हेडलाइन बदल देने से देश नहीं बदल जाता है. इस वक्त अस्पतालों को मैनेज करने की ज़्यादा ज़रूरत है न कि हेडलाइन मैनेजमेंट की. बात पोल खुलने की नहीं है, वो तो पूरी दुनिया के सामने खुल चुकी है, बात है आपकी ज़िंदगी की.

शिमला के आईजीएमएस अस्पताल में यह महिला इसलिए भावावेश में हैं क्योंकि इनका कहना है कि इनके पति को सही इलाज नहीं मिला. ऑक्सीजन नहीं मिला जिससे उनकी मौत हो गई. अस्पताल खुद ही अपनी पोल खोल रहा है. कह रहा है कि जिन स्टाफ ने गलत व्यवहार किया वो आउटसोर्स वाले हैं. उन्हें अब ट्रेनिंग दी जाएगी कि मरीज़ों के परिजन से कैसे व्यवहार करें. अस्पताल में जब तक आउटसोर्स और ठेके पर लोग रखे जाते रहेंगे यही होता रहेगा. पूछिए कि क्या बिना ट्रेनिंग के लिए आउटसोर्स पर लोग रख लिए गए? पूछिए कि क्या इन्हें समय पर और पर्याप्त पैसा मिलता है, पूछिए कि आउटसोर्स पर काम करने वाले कब रखे गए और कितने दिन के लिए रखे गए.

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

याद दिला रहा हूं ताकि याद रहे कि आपके अपने किस हालात में तड़पा कर मारे गए हैं. यह याद रखना ज़रूरी है ताकि अस्पतालों की व्यवस्था में सुधार हो और अस्पताल की जवाबदेही तय हो. पारदर्शिता आए. मरीज़ों के परिजनों को सारी सूचना दी जाए. याद रखिएगा.