खेती से जुड़े तीन नए कानूनों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी जो सपने दिखा रहे हैं, वही सपने वे 2016 में ई-नाम को लेकर दिखा चके हैं. 14 अप्रैल 2016 को ई-नाम योजना लांच हुई थी. उसके भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने जो कहा था मोटा-मोटी वही बातें इस बार भी कह रहे हैं. वह सपना फेल हो गया. इसके बाद भी प्रधानमंत्री मोदी उसी सपने को इस बार भी दिखा रहे हैं. भारत के किसानों को 14 अप्रैल 2016 का उनका भाषण सुनना चाहिए.
'ऐसी व्यवस्था है, जिस व्यवस्था की तरफ जो थोक व्यापारी है, उनकी भी सुविधा बढ़ने वाली है. इतना ही नहीं ये ऐसी योजना है, जिससे उपभोक्ता को भी उतना ही फायदा होने वाला है. यानि ऐसी मार्केट व्यवस्था बहुत कम होती है कि जिसमें उपभोक्ता को भी फायदा हो, बिचौलिए जो बाजार व्यापार लेकर के बैठे हैं, माल लेते हैं और बेचते हैं, उनको भी फायदा हो और किसान को भी फायदा हो.” (प्रधानमंत्री मोदी, 14 अप्रैल 2016)
अपने भाषण के इस हिस्से में वे बिचौलिए के फ़ायदे की भी बात कर रहे हैं. क्या कमाल का सपना बेचा कि ई-नाम से सभी को फायदा होगा. किसान, व्यापारी, बिचौलिया और उपभोक्ता. दिल्ली के विज्ञान भवन में अधिकारियों और कृषि-जानकारों के बीच जिस आत्मविश्वास से प्रधानमंत्री ने यह सपना बेचा कि ई-नाम से केरल का किसान बंगाल के किसान से माल ख़रीद लेगा, वैसा कोई नहीं कर सकता है. ई-नाम को चार साल हो चुके हैं. चार साल एक लंबा अर्सा होता है कि उनके भाषणों के अनुसार किसानों के जीवन में परिवर्तन आया कि नहीं आया. 4 साल का वक्त काफी होता है यह समझने के लिए कि ई-नाम से हुआ क्या. आज जब खेती के तीन नए कानूनों के बचाव में वे भाषण दे रहे हैं तो ई-नाम ग़ायब हो चुका है मगर यहां से वहां ले जाकर माल बेचने का सपना वे तब भी दिखा रहे थे, अब भी दिखा रहे हैं.
“अगर मान लीजिए बंगाल से चावल खरीदना है और केरल को चावल की जरूरत है तो बंगाल का किसान ऑनलाइन जाएगा और देखेगा कि केरल की कौन सी मंडी है जहां पर चावल इस क्वालिटी का चाहिए, इतना दाम मिलने की संभावना है तो वो ऑनलाइन ही कहेगा कि भई मेरे पास इतना माल है और मेरे पास ये सर्टिफिकेट और मेरे ये माल ऐसा है, बताइए आपको चाहिए और अगर केरल के व्यापारी को लगेगा कि भई 6 लोगों में ये ठीक है तो उससे सौदा करेगा और अपना माल मंगवा देगा.” (प्रधानमंत्री मोदी, 14 अप्रैल 2020)
अब आप प्रधानमंत्री का 21 सितंबर 2020 के भाषण का अंश देखिए. आपको लगेगा कि उनके पास भी अब नया बोलने को कुछ नहीं है. एक ही टेप है जो बार-बार बजा देते हैं. एक ही अंतर है. ई-नाम लांच करते समय बिचौलिए को भी फायदा करा रहे थे, इस बार उन्हें ताकतवर गिरोह बता रहे हैं.
“साथियों, हमारे देश में अब तक उपज और बिक्री की जो व्यवस्था चली आ रही थी, जो कानून थे, उसने किसानों के हाथ-पांव बांधे हुए थे. इन कानूनों की आड़ में देश में ऐसे ताकतवर गिरोह पैदा हो गए थे, जो किसानों की मजबूरी का फायदा उठा रहे थे. आखिर ये कब तक चलता रहता? इसलिए, इस व्यवस्था में बदलाव करना आवश्यक था और ये बदलाव हमारी सरकार ने करके दिखाया है. नए कृषि सुधारों ने देश के हर किसान को ये आजादी दे दी है कि वो किसी को भी, कहीं पर भी अपनी फसल, अपने फल-सब्जियां अपनी शर्तों पर बेच सकता है. अब उसे अपने क्षेत्र की मंडी के अलावा भी कई और विकल्प मिल गए हैं.” (प्रधानमंत्री मोदी, 21 सितंबर 2020)
14 अप्रैल 2016 और 21 सितंबर 2020 के उनके भाषण में कोई अंतर नहीं है. भारत में 7 हज़ार मंडियां हैं. अव्वल तो मंडियों की संख्या इससे भी अधिक होनी चाहिए मगर चार साल में डिजिटल इंडिया का स्लोगन सुबह-शाम जपने वाली सरकार कुल 1000 मंडियों को भी नहीं ई-नाम से नहीं जोड़ पाई ताकि दरभंगा का किसान पानीपत के किसान को मखाना बेच सके. इसका भी हाल बताता हूं.
4 जनवरी 2019 को गजेंद्र सिंह शेखावत राज्य सभा में बयान देते हैं कि 31 मार्च 2018 तक भारत में कुल 585 मंडियों को ई-नाम से जोड़ा गया है. 2019-20 तक इसमें 415 मंडियों को और जोड़ने की मंज़ूरी मिल गई है. डेढ़ साल से अधिक समय बीत जाता है. 2 अप्रेल 2020 को कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कहते हैं कि जल्द ही 415 मंडियों को ईनाम से जोड़ा जाएगा जिस से कि इस से जुड़ी मंडियों कि कुल संख्या 1000 हो जाएगी.
मतलब 31 मार्च 2018 के बाद सरकार ने ही ई-नाम योजना को किनारे लगा दिया था जिसके लांच के समय प्रधानमंत्री ने भारत के किसानों को ढेर सारे सपने दिखाए थे. अगर ऐसा नहीं होता तो दो साल तक मोदी सरकार के मंत्री एक ही बात नहीं करते कि ई-नाम से 415 मंडियों को जोड़ा जाएगा. आप 14 अप्रैल 2016 के उनके भाषण को ध्यान से पढ़िए, इंटरनेट पर है. आपको पता चलेगा कि गोल-गोल बातें बना रहे हैं. कहीं से कुछ भी स्पष्ट नहीं है. एक ही बात बार-बार कि केरल का किसान बंगाल वाले को बेच देगा मगर यह नहीं बताते हैं कि केरल और बंगाल के बीच केला या आलू को लेकर दाम में कितना अंतर होगा कि वह हज़ारों रुपये ट्रक का भाड़ा भी दे देगा.
ई-नाम से कितने किसान जुड़े हैं इसकी संख्या भी बताती है कि भारत के किसानों में इंटरनेट की जागरूकता कितनी कम है. इससे यह भी पता चलता है कि किसानों के बीच इंटरनेट की पहुंच कितनी कम है. अगर नहीं होती तो किसान के साथ आज उनके बच्चे भी स्मार्ट फोन लेकर ऑनलाइन क्लास कर रहे होते. सबको पता है कि किसानों को बेवकूफ बनाया जा सकता है तो कुछ भी बोल दो.
6 मार्च 2020 को कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने संसद में कहा था कि ई-नाम से 1 करोड़ 66 लाख किसान जुड़ चुके हैं. 9 जुलाई 2019 को सरकार ने बताया था कि 30 जून 2019 तक 1 करोड़ 64 लाख किसान ई-नाम से जुड़े हैं. यानी एक साल में दो लाख नए किसान ही इस प्लेटफार्म से जुड़ते हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार देश में किसानों की संख्या 11 करोड़ से अधिक मानी जाती है और चार साल में ई-नाम से मात्र दो करोड़ किसान भी नहीं जुड़ सके हैं.
ई-नाम क्यों फेल हुआ? क्यों सरकार ई-नाम से सभी मंडियों को नहीं जोड़ सकी, जो सरकार तीन साल में भारत के छह लाख गांवों को आप्टिकल फाइबर से जोड़ने का एलान करती है वह सरकार चार साल में भारत की 7 हज़ार मंडियों को इंटरनेट के ढांचे से नहीं जोड़ पाई. वैसे डेढ़ लाख गांवों में भी आप्टिकल फाइबर किसी तरह घसीट-घसीट कर ही पहुंचा औऱ जहां पहुंचा है वहां भी उसकी हालत ख़राब ही है.
चार साल बीत गए हैं. यह लंबा अरसा है जब किसानों को लेकर इंटरनेट से पूरे देश की मंडी से जुड़ने का अनुभव हो चुका होता मगर चार साल में सिर्फ चंद किसानों को यह अनुभव हासिल हुआ. आज भी ज़्यादातर किसान ई-नाम का नाम ही नहीं सुना है. 14 अप्रैल 2016 को प्रधानमंत्री ने एक काम की बात कही थी कि किसान जब सामने से देख लेता है तब भरोसा करता है. मगर चार साल बीत गए ई-नाम सामने से दिखा ही नहीं.
“मैं मानता हूं किसान का जैसे स्वाभाव है. एक बार उसको विश्वास पड़ गया तो वो उस भरोसे पर आगे बढ़ने चालू कर जाएगा. बहुत तेज गति से ई NAM पर लोग आएंगे, पारदर्शिता आएगी. इस मार्केट में आने के कारण भारत सरकार बड़ी आसानी से, राज्य सरकारें भी मॉनिटर कर सकती हैं कि कहां पर क्या उत्पादन है, कितना ज्यादा मात्रा में है. इससे ये भी पता चलेगा ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम कैसी होनी चाहिए, गोदाम का उपयोग कैसे होना चाहिए, इस गोदाम में माल शिफ्ट करना है या उस गोदाम में, यानि हर चीज एक पॉर्टल के माध्यम से हम वैज्ञानिक तरीके से कर सकते हैं और इसलिए मैं मानता हूं कि कृषि जगत का एक बहुत बड़ा आर्थिक दृष्टि से आज की घटना एक टर्निंग प्वाइंट है.” (प्रधानमंत्री मोदी, 14 अप्रैल 2016)
प्रधानमंत्री इतिहास और टर्निंग प्वाइंट से नीचे का कोई काम नहीं करते हैं. उनका काम बहसों और दावों में ही ऐतिहासिक नज़र आता है. पलट कर आप उनकी कई योजनाओं की समीक्षा करेंगे तो यही हाल मिलेगा कि प्रधानमंत्री खुद ही उसे इतिहास के कूड़ेदान में डाल चुके हैं. स्मार्ट सिटी, स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया और ये ई-नाम. 4 साल में देश की 10 प्रतिशत मंडियां ही जुड़ सकीं.
एक और सपना अभी तक बेचा जा रहा है. 2022-23 में किसानों की आमदनी दुगनी होगी. लेकिन यही नहीं बताया जाता है कि अभी कितनी आमदनी है और 2022 में कितनी हो जाएगी. कई जानकारों ने लिखा है कि किसानों की सालाना औसत आमदनी का डेटा आना बंद हो गया है. हैं न कमाल. पर डेटा बीच-बीच में फाइलों से फिसल कर आ ही जाता है.
जुलाई 2019 में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर राज्य सभा में बयान देते हैं कि हरियाणा के किसानों की कमाई देश में सबसे अधिक है. उनकी एक महीने की कमाई 14,434 है और छह राज्यों में किसानों की एक महीने की कमाई का औसत 5000 से भी कम है. बिहार, झारखंड, बंगाल, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और ओडिशा के किसान एक महीने में 5000 से भी कम कमाते हैं. बिहार के किसानों की मासिक आमदनी 4000 से भी कम है. चार साल बाद वो 8000 हो गई तो क्या इसे डबल होना कहेंगे? इसे बेवकूफ बनाना कहा जाएगा. मुद्रा स्फीति यानी महंगाई के हिसाब से देखेंगे तो यह कुछ भी नहीं है.
यह डरावना है कि बिहार और यूपी का किसान महीने का 5000 भी नहीं कमा पाता है. हरियाणा में जहां मंडी है वहां का किसान 14, 434 रुपये प्रति माह कमाता है और बिहार जहां 2006 से मंडी नहीं है वहां का किसान 4000 रुपये से कम कमाता है. प्रधानमंत्री जो सपना दिखा रहे हैं उससे बिहार और यूपी का किसान 2022-23 में डबल होकर हरियाणा के बराबर भी नहीं पहुंचेगा.
सरकार कह रही है कि मंडी सिस्टम खत्म नहीं होगा. एक नया सिस्टम उसके साथ आया है. तो यह सिस्टम तो 2016 में ही लाया गया और उसके पहले से भी है. केरल का केला जाने कब से बिहार में बिक रहा है और आंध्र प्रदेश का सफेदा आम मालदा से ज्यादा बिकता है. सवाल दाम का है. प्रधानमंत्री यह नहीं बताते कि दाम कैसे तय होंगे. किसान कहता है कि हमें न्यूनतम समर्थन मूल्य दे दो. इसकी गारंटी दे दो. एक लाइन लिख दो कि किसी भी मंडी में या उसके बाहर न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर बिक्री नहीं होगी. सरकार इस पर बात नहीं करती है.
प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल के 6 साल बीत चुके हैं. खेती को लेकर उनका यह पहला फैसला नहीं है. अब तो 6 साल की समीक्षा हो सकती है कि आपने क्या किया. 2019-20 का आर्थिक सर्वे आया था. इस सर्वे के चैप्टर सात में खेती किसानी के बारे में जो बात कही गई है उसके अनुसार 2014-15 में देश की राष्ट्रीय आमदनी में खेती का योगदान 18.2 प्रतिशत था जो 2019-20 में गिर कर 16.5 प्रतिशत हो गया. 2014-15 से खेती में विकास दर का औसत जस का तस है.
“ये इतनी बड़ी संभावना, हम कल्पना कर सकते हैं कि हमारे किसान को पहली बार ये तय करने का अवसर मिला है कि मेरे माल कैसे बिकेगा, कहां बिकेगा, कब बिकेगा, किस दाम से बिकेगा, ये फैसला अब हिंदुस्तान में किसान खुद करेगा.”(प्रधानमंत्री मोदी, 14 अप्रैल 2016)
तारीख़ ध्यान से पढ़िएगा. चार साल बीत गए हैं. प्रधानमंत्री संभावनाओं का ही सपना दिखा रहे हैं. संभावनाएं हकीकत में बदल नहीं पा रही हैं. 2014 से मोदी जी ने मिडिल क्लास को सपने दिखाना शुरू किया. 6 साल बाद सारे सपने धुआं-धुआं हो चुके हैं. प्रधानमंत्री पहले से जान लेते हैं कि सपना खत्म हो रहा है. नया भाषण और नई जनता तैयार कर लेनी है. इसलिए 2016 में नोटबंदी और 2017 में जीएसटी आई. अब देश के करोड़ों व्यापारियों को सपना बेचा गया. अब उन सपनों के खत्म होने का टाइम आ गया है. इसलिए प्रधानमंत्री नए वर्ग की तलाश कर रहे हैं जिसे अगले 6 साल के लिए सपना दिखाया जा सके. वो नया वर्ग किसान है. बीच-बीच में ग़रीबों के खाते में 500 रुपये डालते रहते हैं और ग़रीबों को भी 500 रुपये के लेवल पर छोड़ देते हैं. प्रधानमंत्री को पता है कि ग़रीबों को सपने अच्छे नहीं लगते तो उनके जनधन खाते में 500 रुपये डाल दो.
जनता अपने सपनों को ढूंढने में लगी है और प्रधानमंत्री नई जनता को ढूंढने में लगे कि उनका अगला भाषण कौन सुनेगा. आप अंदाज़ा लगाइये. किसानों के बाद प्रधानमंत्री अगला सपना किसे बेचेंगे? महिलाएं? छात्र? गेस कीजिए.
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